संजय कुमार सिंह
आज सभी अखबारों की लीड एक ही है, बुलडोजर न्याय पर सुप्रीम रोक। अलग-अलग अखबारों ने इसे अपनी श्रद्धा के अनुसार प्रस्तुत किया है। देश भर के छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे, सरकार समर्थक-विरोधी सभी एक ही खबर को प्रमुखता देंगे तो कोई भी यही समझेगा कि फैसला बड़ा है। लेकिन ऐसा है नहीं। यह तो सबको पता है कि सरकार मनमानी कर रही थी और किसी का अवैध निर्माण भी बगैर पूर्व सूचना और समय दिये नहीं गिराया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने पुराने नियमों के पालन की बात ही कही है और यह स्पष्ट कर दिया है कि अधिकारी मनमानी करेंगे तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। यह नियम पहले से होना चाहिये, होगा भी। मुझे नहीं पता है कि मुकदमा क्या था या अपील क्या थी पर मनमानी करने वाले को सजा नहीं मिली और पीड़ित को मुआवजा नहीं मिला तो नियमों में नया क्या है और पुराने नियमों का पालन होना चाहिये – के आदेश में कौन सी बड़ी बात है। यह तो होना ही चाहिये पर हो नहीं रहा है (या था) और सुप्रीम कोर्ट ने उसके लिए कुछ नहीं किया है और यह दीवाली पर प्रतिबंध के बावजूद पटाखे चलाये जाने के मामले में है ही।
मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में कुछ खास नहीं है और इसे इतना प्रचार या महत्व मौजूदा सरकार और व्यवस्था में आम आदमी का भरोसा बनाये रखने की कोशिश है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मैं टिप्पणी नहीं कर सकता लेकिन अखबारों में इसकी प्रस्तुति जैसी है वैसे में यह सभी अखबारों में लीड लायक खबर नहीं है। वैसे भी, इस मामले में देर-सबेर यही फैसला होना था। पहले ही मामले के बाद हो गया होता तो पीड़ित एक ही (परिवार) होता, देर से आया तो कई पीड़ित हैं और उन्हें शायद राहत मिले। पर खबर ऐसी नहीं है कि उन्हें राहत मिलेगी बल्कि इस खबर से उन जैसे दूसरे लोगों को राहत मिल सकती क्योंकि जिन का घर गिरा दिया गया उनके लिए फैसले या आदेश में कुछ नहीं है। मैंने आदेश को पढ़ा नहीं है पर होता तो खबरों में होना चाहिये था किसी में तो होता। पर खबरों में जब ऐसा कुछ नहीं है तो सभी अखबारों में लीड क्यों? इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर को लीड बनाया है लेकिन साथ में एक खबर छापकर बताया है, जिनके घर गिराये गये उनके लिए अदालत का आदेश उम्मीद जगाता है लेकिन बमुश्किल कुछ और। इस खबर मे बताया गया है सरकारी आतंक कितना ज्यादा है और समर्थक पत्रकार बता रहे हैं कि इससे कुछ होना नहीं है या बुलडोजर वैसे ही चलता रहेगा। भले यह अलग मामला है।
मैं यही मानकर चल रहा हूं कि आदेश में कुछ खास या नया नहीं है और अगर है पर अखबारों ने उसे शीर्षक नहीं बनाया, हाईलाइट नहीं किया तो जो छपा है वह फैसला ऐसा नहीं है कि सभी अखबारों में लीड बन जाये। खासकर इसलिये कि आज इससे ज्यादा महत्वपूर्ण खबरें हैं जो लीड बन सकती थी, बननी चाहिये थी पर नहीं बनी है। शायद इसलिये नहीं बनी हो कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जब उधर कुछ हो ही नहीं रहा है तो क्यों व्यवस्था को कमजोर या जनहित में असफल दिखाया जाये। नवोदय टाइम्स में खबर है, शेयर बाजार में हाहाकार। इसके अनुसार यह सेनसेक्स के चार महीने के निचले स्तर पर बंद होने के कारण है और इससे निवेशक निराश हैं। खबर के अनुसार दो दिन में निवेशकों को 13 लाख करोड़ रुपये का चूना लगा है। अखबार ने शेयर मार्केट में गिरावट के पांच कारण बताये हैं। ये हैं – 1) प्रमुख कंपनियों के दूसरी तिमाही के कमजोर नतीजे 2) विदेशी निवेशकों का चीन की ओर रुख 3) अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर अनिश्चितता 4) अमेरिकी फेड रिजर्व द्वारा ब्याज दल में कम कटौती की संभावना और 5) दुनिया भर में बढ़ता भू राजनीतिक संकट। द टेलीग्राफ में यह खबर बिजनेस पेज पर लीड है और यहां शेयरों की कीमत घटने का कारण मुद्रास्फीति को बताया गया है। स्पष्ट है कि हर ओर स्थिति खराब है और उम्मीद की किरण नहीं दिख रही है।
ऐसे में आज सुप्रीम कोर्ट की खबर छोड़कर हिन्दुस्तान टाइम्स की सेकेंड लीड भी लीड हो सकती थी है। दिल्ली की हवा अब बेहद गंभीर हो गई है। यह कोई आज की बात नहीं है। कई साल से इन दिनों ऐसा होता है और सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। इसके नाम पर जो नियम लागू किये गये हैं वे जनता को नुकसान पहुंचाने वाले हैं पर उसका लाभ नहीं मिला है। पटाखों पर प्रतिबंध लागू नहीं हुआ और सरकार तथा सरकार समर्थकों ने भी पटाखे चलाये उसे धर्म से जोड़ दिया गया और किसी के खिलाफ कार्रवाई की कोई खबर नहीं है और जो पीड़ित है, बीमार है उसकी कोई पूछ नहीं है।
टाइम्स ऑफ इंडिया में भी आज लीड, सेकेंड लीड दोनों खबरें यही हैं। लेकिन यहां सेकेंड लीड में कल के कोहरे को भी शामिल कर लिया गया है और दिल्ली गुड़गांव एक्सप्रेसवे की सुबह साढ़े सात बजे की तस्वीर छापी है जो रात के अंधेरे की लग रही है। यही नहीं, शीर्षक भी बढ़िया है और “मौसम के पहले कोहरे को दिल्ली वालों के लिए ‘गंभीर’ सजा” कहा गया है। यह हवा की गुणवत्ता के स्तर के लिए भी है। खबर के साथ बताया गया है कि राजधानी की हवा देश भर में सबसे गंदी है। कोहरे के कारण पालम हवाई अड्डे पर सुबह आठ से साढ़े नौ बजे के बीच विजिबिलिटी (दृश्यता) शून्य थी। आप समझ सकते हैं कि यह खबर सामान्य नहीं है। वैसे भी, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नया नहीं किया है और आज अखबारों में जो छपा है वह तो पहले से तय था। डबल इंजन वाली सरकार जो बुलडोजर न्याय कर रही थी वह गलत था और बच्चा-बच्चा समझ रहा है। किसी भी व्यवस्था में इसे सही नहीं कहा जा सकता है और वह मनमानी के सिवा कुछ हो ही नहीं सकता है। उसे सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है तो कुछ नया नहीं किया है। वही किया है जो उसका काम है, जो उसे पहले ही कर देना चाहिये था।
आज की तीसरी संभावित लीड, द टेलीग्राफ की सेकेंड लीड है। आप जानते हैं कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव हैं। भिन्न कारणों से इस बार खास है और इनमें एक यह भी है कि इसबार देर से कराये जा रहे हैं। पिछली बार के नतीजों का असर यह हुआ कि शिवसेना ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव जीतने के बावजूद उसके साथ मिलकर सरकार बनाने से इनकार कर दिया। इस कारण भाजपा ने पहले तो एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। इसके बाद गैर भाजपाई सरकार बनी जो शिवसेना में मतभेद या बगावत के कारण गिर गई। उसके बाद विधानसभा अध्यक्ष का जो रुख रहा, सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला जब आया उसमें भाजपा की सरकार चलती रही और पांच साल में एनसीपी ही नहीं शिवसेना भी टूट गई। जो सरकार चली उसके शासन में शाहरुख खान के बेटे की गिरफ्तारी हुई, आश्चर्यजनक रूप से उसे कई दिनों तक जमानत नहीं मिली और बाद में पता चला कि मामले में दम ही नहीं था, अपहरण वसूली की कोशिश में हुआ था। ऐसी सरकार की परीक्षा जनता की अदालत में हो रही है और वह भाजपा है तो जीतने के लिए हर संभव उपाय कर रही है। द टेलीग्राफ लगातार पहले पन्ने पर महाराष्ट्र चुनाव की खबर रख रहा है। आज बारामती की खबर है जो शरद पवार का चुनाव क्षेत्र रहा है और जहां सात बार के विधायक उनके भतीजे इस बार उनसे अलग होकर भाग्य आजमा रहे हैं।
आज की एक और लीड अमर उजाला की खबर हो सकती थी जो यहां टॉप पर दो कॉलम में छपी है। वैसे तो यह मालगाड़ी के पटरी से उतरने की ‘साधारण’ खबर है लेकिन इसकी वजह से 39 ट्रेनें निरस्त हुईं और 61 के मार्ग बदलने पड़े। यह भी बड़ी खबर है खासकर इसलिए कि अमर उजाला ने दिल्ली में कोहरे की खबर को उत्तर भारत के कोहर की खबर के रूप में पांच कॉलम का बॉटम बनाया है। शीर्षक में कोहरे के कारण 50 ट्रेन लेट होने की खबर भी है। इसे अगर रेलों की खबर के साथ रखा जाता तो कल का दिन रेल यात्रियों के लिए मुश्किल भरा रहा और इसका असर देश भर में रहा होगा। सबको मिलाकर लीड बनाया गया होता तो रेलवे पर व्यवस्था सुधारने के लिए दबाव पड़ता। इस लिहाज से यह भी लीड हो सकती थी। खासकर तब जब रेल दुर्घटनाओं को साजिश माना जाता है और रेल मंत्री को रील मंत्री कहा जाता है। रेलों के परिचालन का आम तौर पर बुरा हाल हो गया है। इन सबके साथ कल मतदान हुआ तो उससे संबंधित खबर भी लीड हो सकती थी। आज द हिन्दू में यह खबर लीड है। इसके अनुसार झारखंड में मतदान का प्रतिशत वायनाड के 64.24 प्रतिशत से ज्यादा 66 प्रतिशत रहा। आज ही यह संख्या अलग है और झारखंड के एक अखबार के अनुसार कुल मतदान 66.48 प्रतिशत रहा और खबर है कि राजधानी रांची में मतदान सिर्फ 52.27 प्रतिशत रहा।
वैसे, आंकड़ों की यह खबर भी भिन्न अखबारों में अलग है। आप जानते हैं कि केंद्र की भाजपा सरकार ने इस बार झारखंड में कथित घुसपैठ को मुद्दा बनाया था। उसपर आने से पहले याद दिला दूं कि मतगणना के समय वोट का प्रतिशत पूर्व घोषित से बदल जाने की चर्चा रही है। ऐसे में मतदान और मतगणना के साथ अन्य आंकड़ों की पवित्रता बनाये रखने के लिए अखबारों को भी चाहिये था कि वे चुनाव आयोग से एक निश्चित समय पर वोटों की सही संख्या (या प्रतिशत) बताने के लिए कहते और सभी उसी को छापते जिसका मिलान मतगणना के दिन गिने गये वोटों की संख्या से किया जाता। पर वह सब अखबारों ने नहीं किया है। कल के मतदान का प्रतिशत भिन्न अखबारों में इस तरह बताया गया है। अमर उजाला के अनुसार, झारखंड में 66.48 प्रतिशत वोट पड़ा, वायनाड में यह 65 फीसदी था। दि एशियन एज ने 66.5 प्रतिशत लिखा है जो ठीक है। इसी तरह, एशियन एज के अनुसार वायनाड में 64.72 वोट पड़े जो अमर उजाला के 65 प्रतिशत के मुकाबले ठीक है। द हिन्दू ने झारखंड में 66 प्रतिशत तो ठीक लिखा है पर वायनाड में 64.72 को 64.24 प्रतिशत लिखा है। कहने का मतलब यह है कि गणित के नियमों के अनुसार दशमलव के बाद के अंक कम करने या खत्म करने के नियम का तो ठीक से पालन किया है लेकिन लाखों वोटों के मामले में इस तरह प्रतिशत लिखने से गणना गड़बड़ होती है और ईवीएम की साख खराब होती है। हर कोई हमारे तरीके से हिसाब नहीं कर सकता है। अलग अंक डाटा की शुद्धता पर यकीन खराब करते हैं। अखबारों ने अगर इस दिशा में कुछ किया होता तो संबंधित खबर भी आज की एक लीड हो सकती थी।
अखबारों ने सबसे आसान खबर को लीड बना दिया। मुझे लगता है कि कथित बुलडोजर न्याय के पहले मौके पर ही सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर मामले को रोकने के आदेश देना चाहिये था। उचित होता तो पुनर्निमाण या हर्जाना या राहत का भी आदेश हो सकता था। मनमानी करने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी की जानी चाहिये थी और अदालत को सरकार की ऐसी मनमानी के मामलों में पीड़ित के आने का इंतजार नहीं करना चाहिये। अगर अदालत ने ऐसा किया होता तो निश्चित रूप से यह सभी अखबारों में लीड बनती और यह सामान्य होता। बुलडोजर न्याय के कई मामलों और सुप्रीम कोर्ट के स्वतंः संज्ञान नहीं लेने से आम लोगों में यह निराशा थी कि सरकार मनमानी पर उतर आई है और अगर सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश नहीं आता और इसे अच्छा प्रचार नहीं मिलता तो जनता यह मान लेती कि इस सरकार या व्यवस्था से बचना है तो इसे सत्ता से हटाना होगा। अब इस फैसले और इसकी जोरदार रिपोर्टिंग से लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट है और उसके रहते सरकार मनमानी नहीं कर सकती है लेकिन सरकार की मनमानी की कहानियां अनंत हैं और उनमें जज लोया की संदिग्ध मौत की जांच नहीं होना शामिल है।
ऐसे में अगर जनता की नाराजगी सरकार के खिलाफ थी तो वह आज इस खबर से कम होगी जबकि खबर में ना तो मनमानी करने वाले के खिलाफ किसी कार्रवाई की सूचना है और ना ही पीड़ित को किसी तरह की राहत देने की बात की गई है। यह सही है कि अदालत के फैसले उससे की गई अपील के अनुसार होते हैं और मुझे पता नहीं है कि अपील क्या थी लेकिन मुद्दा यह है कि डबल इंजन वाली सरकार मनमानी करती है तो करती रहती है और उसे पर्याप्त समय मिल जाता है चाहे वह सुप्रीम कोर्ट से मिले या चुनाव आयोग से। ताजा उदाहरण बंटेंगे तो कटेंगे और एक हैं तो सेफ हैं का है। यह चुनावी आचार संहिता के अनुसार नहीं है, चुनाव आयोग को इसपर रोक लगानी चाहिये थी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं है और इसका चुनाव लाभ मिलने के बाद कार्रवाई हो या नहीं – कोई मतलब नहीं रह जायेगा। यह सब तब हो रहा है जब संविधान की रक्षा और इसे बदल देना भी चुनावी मुद्दा है। संविधान की जो व्यवस्था आमतौर पर ज्ञात है उसके अनुसार चुनाव के समय सरकारी मनमानी पर नियंत्रण का काम चुनाव आयोग का है और जब आयोग के सदस्यों का चयन ही प्रधानमंत्री ने अपनी पसंद के अनुसार किया है और यह संविधान की व्यवस्था के अनुकूल नहीं है तो चुनाव लड़ने और लड़ाने वालों पर नियंत्रण का काम सुप्रीम कोर्ट का था। मुझे नहीं पता, बंटेंगे तो कटेंगे और एक हैं तो सेफ हैं जैसे नारों के खिलाफ कोई अदालत गया है कि नहीं पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वतः संज्ञान लेने की भी कोई खबर नहीं है। होती तो वह भी लीड हो सकती थी।
सरकारी मनमानी, झूठ और उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होने का आलम यह है कि प्रधानमंत्री निराधार आरोप लगा रहे हैं जो हास्यास्पद भी है। आज खबर छपी है, सोरेन सरकार झारखंड में घुसपैठियों की सहायता कर रही है। घुसपैठ रोकना प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार का काम है। झारखंड अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगने वाला राज्य नहीं है। झारखंड सरकार चाहकर भी घुसपैठ नहीं करा सकती है अगर करायगी भी तो घुसपैठिये सीमा सुरक्षा बल के प्रभाव वाले पश्चिम बंगाल के विस्तारित क्षेत्र के बाद पश्चिम बंगाल की सीमा पार करके ही झारखंड पहुंचेंगे और यह पश्चिम बंगाल सरकार और सीमा सुरक्षा बल के सहयोग के बिना नहीं हो सकता है और फिर भी हो रहा है तो रोकना केंद्र सरकार का काम है। एक भी उदाहरण या सबूत के बिना प्रधानमंत्री न सिर्फ आरोप लगा रहे हैं ईडी ने मतदान से एक दिन पहले छापामारी भी की और ये नहीं बताया कि क्या मिला या क्यों मतदान से एक दिन पहले छापा मारना जरूरी था। जाहिर है यह सब चुनावी लाभ के लिए था और यह कोई नया या पहला मामला नहीं है। कल मैंने बताया था कि पश्चिम बंगाल में चुनाव था तो सरकारी पार्टी ने प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर देने का झूठा विज्ञापन छपवा लिया था और बुलडोर न्याय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का जो आदेश हो इस मामले में केंद्र सरकार के खिलाफ चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट के किसी आदेश की खबर नहीं हैं।
झारखंड सरकार पर घुसपैठ कराने का आरोप तब लगया जा रहा है जब सीमा पार कर जाने के बाद कोई नहीं कहेगा कि वह अवैध रूप से विदेश से आया है। इसमें सरकार अगर नागरिक की सेवा करे तो उसे हमेशा घुसपैठियों की सेवा कहा जा सकता है। दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने विदेशियों को नागरिकता देने का नया नियम बनाया है। और वही घुसपैठ का आरोप लगा रही है जबकि ऐसे उदाहर नियम के रहते किसी को घुसपैठ करने की जरूरत क्यों है और अगर है तो उसे भी केंद्र सरकार देख सकती है। भेदभाव अगर है को वही कर रही है जो भी हो। केंद्र सरकार कहती है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ अत्याचार हो रहा है। अगर यह सही है तो घुसपैठ कौन करेगा? उसके समर्थक, संरक्षक और उसकी चिन्ता तो केंद्र सरकार करती है और संभव है इसीलिए सीमा पर सख्ती नहीं हो। फिर आरोप झारखंड सरकार पर क्यों? बांग्लादेश और भारत की स्थितियों के बारे में केंद्र सरकार जो कहती बताती रही है उसी से साफ है कि वहां का मुसलमान भारत क्यों आयेगा? आप जानते हैं कि यहां तीन तलाक और चार शादियों की आजादी नहीं है। ऐसे में कोई मुसलमान बांग्लादेश से भारत क्यों आयेगा? भारत में आर्थिक स्थितियां बांग्लादेश से बहुत अच्छी नहीं है कि कोई वहां से यहां नौकरी-रोजगार के लिए आयेगा। यह तो हुई भाजपा सरकार, उसके समर्थक चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की खबर से सरकार की सहायता करने की अखबारी कोशिश का आशंका। आज इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार केंद्र की भाजपा सरकार का समर्थन करने वाले चंद्रबाबू नायडू की सरकार ने सोशल मीडिया पोस्ट के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है और अभी तक 680 नोटिस जारी किये गये हैं, 147 केस हुए हैं और 49 गिरफ्तारियां हुई हैं।