Yashwant Singh : गजब है प्रेस क्लब आफ इंडिया. दूर के ढोल सुहावने वाला मामला इस पर पूरी तरह फिट बैठता है. दिल्ली के रायसीना रोड पर स्थित प्रेस क्लब आफ इंडिया का नाम सुनने पर वैसे तो दिमाग में एक अच्छी-खासी छवि बनती-उभरती है लेकिन अगर आप इसके मेंबर बन गए और साल भर आना-जाना यहां कर दिया तो आपको यह किसी मछली बाजार से कम न लगेगा. हर साल चुनाव होते हैं. प्रेस क्लब को अच्छे से संचालित करने के वास्ते पदाधिकारी चुने जाते हैं लेकिन लगता ही नहीं कि यहां कोई संचालक मंडल भी है या कोई पदाधिकारी भी हैं. दो उदाहरण देते हैं. प्रेस क्लब आफ इंडिया का चुनाव डिक्लेयर हो गया है. इस बाबत कुछ रोज पहले प्रेस क्लब के सूचना पट पर नोटिस चिपका दिया गया. लेकिन यह सूचना मेल पर नहीं भेजी गई. मुझे तो नहीं मिली. अब तक नहीं मिली है.
हर रविवार खाने में नया क्या है, इसकी जानकारी तो भाई लोग भेज देते हैं लेकिन साल भर में एक बार होने वाले चुनाव और इसकी प्रक्रिया को लेकर कोई मेल नहीं जारी किया. क्यों भाई? क्या सारे मेंबर जान जाएंगे तो चुनाव लड़ने वाले ज्यादा हो जाएंगे?
दूसरा प्रकरण आप लोगों को पता ही होगा. प्रेस क्लब आफ इंडिया के मेन गेट पर मुझ पर हमला हुआ. यह जगह गेट पर लगे सीसीटीवी कैमरे के दायरे में आता है. लेकिन फुटेज गायब है. क्या तो उस दिन सीसीटीवी कैमरा खराब था. क्यों खराब था भाई? और, खराब होने की जानकारी मुझे दसियों दिन बाद तब मौखिक रूप से दी जाती है जब मैं प्रेस क्लब के कार्यालय सचिव जितेंद्र से पूछता हूं. मैंने घटना के फौरन बाद लिखित शिकायत कार्यालय सचिव जितेंद्र को दिया था. उन्होंने तब कहा था कि फुटेज मिल जाएगा. कल देख लेंगे. पर बाद में पता चला कि फुटेज ही गायब है. मैंने जो लिखित कंप्लेन दी, उस पर क्या फैसला हुआ, इसकी कोई जानकारी अब तक नहीं दी गई. बताया गया कि पदाधिकारी लोग बहुत व्यस्त हैं. किसी के पास टाइम नहीं है इस अप्लीकेशन पर विचार करने के लिए. मुझे लगता है कि प्रेस क्लब के गेट पर दिल्ली पुलिस के दो जवान हमेशा तैनात रखे जाने चाहिए और सीसीटीवी कैमरे हर हाल में आन होने चाहिए. ऐसे ही कई और बड़े कदम उठाने की जरूरत है ताकि यह क्लब अराजकता का अड्डा न बनकर एक वाकई देश भर के प्रेस क्लबों का मॉडल प्रेस क्लब बन सके.
प्रेस क्लब के टेबल्स पर काक्रोच चलते हैं. इससे संबंधित एक वीडियो भी मैंने एक बार पोस्ट किया था. उसका लिंक फिर से नीचे कमेंट बाक्स में डाल रहा हूं. खाने की क्वालिटी दिन ब दिन खराब होती जा रही है. वेटर आधे-आधे घंटे तक अटेंड नहीं करेंगे. वह शक्ल देखते हैं मेंबर की. नया हुआ और अपरिचित सा लगा तो उसे टेकेन एज ग्रांटेड लेते हैं.
मतलब सब कुछ भगवान भरोसे. फिर फायदा क्या है चुनाव कराने का और नए पदाधिकारी बनाए जाने का.
ऐसा लगता है कि यह संस्था भी देश के दूसरे भ्रष्ट संस्थाओं की तरह होने की राह पर है. जो जीत गया, वह गदगद होकर सो गया.. चाहें आग लगे या बिजली गिरे. उनकी तो बल्ले-बल्ले है. अब जो कुछ बात बहस होगी, वह अगले चुनाव के दौरान होगी. चुनाव आ गया है. फिर से लेफ्ट राइट वाली दुंदुभी बजेगी. ध्रुवीकरण होगा. पैनल बनेंगे. क्रांतिकारी और अति-क्रांतिकारी बातें होंगी. मुख्य मुद्दे हवा हो जाएंगे. फर्जी और पाखंडी वैचारिक लबादों को ओढ़े नक्काल फिर चुन लिए जाएंग. इस तरह एक और नाकारा प्रबंध तंत्र को झेलने के लिए प्रेस क्लब के सदस्य अभिशप्त होंगे.
प्रेस क्लब आफ इंडिया की हालत देख और इसके नाकारा प्रबंधन से खुद पीड़ित होने के कारण सोच रहा हूं इस बार मैं भी चुनाव लड़ जाऊं. जीत गया तो इतना हल्ला मचेगा कि चीजें ठीक होंगी या फिर मुझे ही ठीक कर दिया जाएगा, क्लब से निष्कासित कर के. और, अगर हार गया तो सबसे अच्छा. तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे जो मेरा है… टाइप सोचते हुए अपना रास्ता धर लूंगा और गुनगुनाउंगा- ”गुन तो न था कोई भी, अवगुन मेरे भुला देना…” वैसे, ये डायलाग भी बीच वाला मार सकता हूं, कि कौन कहता है साला मैं जीतने के लिए लड़ा था. मैं तो बहरों नक्कालों के बीच अपनी बात धमाके से कहने के वास्ता परचा दाखिल किया था, आंय….
वैसे आप लोगों की क्या राय है? अंधों की दुनिया में हरियाली के बारे में बतियाने का कोई लाभ है या नहीं? चुनाव लड़ जाएं या रहने दें…?
भड़ास एडिटर यशवंत की एफबी वॉल से. संपर्क : yashwant@bhadas4media.com
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