Alok Paradkar-
वनराज भाटिया के आखिरी वर्षों की गुमनामी, उनका अकेलापन और आर्थिक संकट देखकर हैरत होती है कि एक ऐसे संगीतकार ने जिसने इतना काम किया, इतने क्षेत्रों में काम किया, इतने लंबे समय तक काम किया, उसे लोगों ने इस तरह छोड़ दिया, फिल्मी दुनिया ने उसकी खोज-खबर न ली, उसके कोई खास दोस्त-शुभचिंतक नहीं रहे।
… वरना समाज आपको आपके हाल पर छोड़ देता है… प्रतिदिन जब कोरोना से बड़ी संख्या में लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं और इनमें लेखक, कलाकार, पत्रकार सभी शामिल हैं, पिछले दिनों इनके बीच एक खबर वनराज भाटिया के मृत्यु की भी थी। उनकी मृत्यु कोरोना से नहीं हुई, वे जीवित होते तो इस महीने की 31 तारीख को 94 वर्ष के हो जाते। काफी समय से वे वृद्धावस्था की विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे थे। ये जरूर हुआ कि वे कोरोना के डर से अस्पताल नहीं गए। उनके निधन की खबर आई तो बहुत सारे लोगों को आश्चर्य हुआ कि वे अभी तक जीवित थे। यह भी संभव है कि काफी लोग उन्हें अब जानते भी न हों।
हमारा समाज आपको तभी तक याद रखता है जब तक आप किन्हीं वजहों से चर्चा में रहते हैं, वरना वह आपको आपके हाल पर, हाशिए पर छोड़ देता है। वनराज भाटिया को लेकर भी थोड़े समय पहले कुछ चर्चाएं हुई थीं। यह चर्चा उनके आर्थिक संकट की थीं। बताया गया कि उन्हें घर के सामान बेंच कर गुजारा करना पड़ रहा है। मुंबई में वे किराए के मकान में रहते थे और ऐसा समय आ गया था कि उनके पास किराया देने के पैसे नहीं थे। यह भी बताते हैं कि जब कुछ पत्रकार उनका हाल जानने उनके घर गए तो वे नाराज हो गए थे। उन्होंने गुस्से में कहा था कि आप लोग क्यों आए हो, अब कोई मुझसे मिलने नहीं आता, मेरा हाल जानने नहीं आता।अपनी कविता उद्धृत करने में मुझे संकोच होता है लेकिन बाजार की इस प्रवृत्ति पर उसकी पंक्तियों से टिप्पणी करना जरूर चाहूंगा- ‘अब सिरहाने नहीं होती घड़ी/ जिसकी एक सुरीली धुन/ रोज सुबह हमें जगाती थी/कलाइयों पर भी इनके निशान कम होते हैं/ फोन नंबरों वाली डायरियां भी अब किसी बक्से में बंद हो गई हैं/ और गिनती-पहाड़ों से कभी हमें बचाने वाले/ कलकुलेटर भी बीते दिनों की चीज बन गए हैं/ मोबाइल फोन ने कर दिया है इन्हें हमारे बीच से बेदखल/ वैसे इनसे भी पहले जब आए थे कम्प्यूटर/हमारी आसपास की बहुत सारी चीजों ने/ उनके भीतर ही बना लिए थे अपने घर/ डाकघर के आसपास सुबह से होने वाली/ टाइपराइटरों की खट खट भी अब नहीं है/ बताते हैं कि जब आए थे सिंथेसाइजर/ फिल्म संगीत ने की थी क्रांति/ संगीतकारों ने धीरे धीरे/ अलविदा कर दिए थे अपने/ सितार, शहनाई या सरोद के साजिंदे/ कहीं पढ़ा था कि/ हाथ काट लिया था/ कई फिल्मों के पार्श्व संगीत में शामिल ऐसे ही एक/ वायलिन के प्रसिद्ध संगतकार ने/ और एक बासुंरी वाले की बेटी ने कर ली थी/ बार में नौकरी/ हर क्षण बना रहता है खतरा/ चलन से बेदखल हो जाने का/ अपने सारे गुणों के बावजूद/ बाजार में कबाड़ हो जाने का’।
फिल्मी दुनिया ऐसी ही क्रूर है। एक समय चमक-दमक से घिरे रहने वाले लोग कई बार गुमनामी और गरीबी में चले जाते हैं। जिनके कभी सैकड़ों मित्र हुआ करते थे, उसका हाल ऐसा हो जाता है कि महीनों लोग खोज-खबर नहीं लेते। अपनी सारी प्रतिभा, सारी कला के बावजूद वे फिल्मी दुनिया के बाजार में कबाड़ हो जाते हैं, हाशिए पर कर दिए जाते हैं। हमने कई बार देखा-सुना है कि किसी समय फिल्मों का सुपरस्टार रहा कोई अभिनेता इतना तंगहाल हो जाता है कि उसके पास इलाज के पैसे नहीं होते या भीख मांगने जैसी नौबत आ जाती है, कोई अभिनेत्री अपने घर में अकेले रहते हुए मृत पाई जाती है और इसका पता कई दिनों बाद चलता है, मशहूर अभिनेत्री की अंतिम यात्रा ठेले पर होती है। कई कलाकारों की मानसिक स्थिति खराब होने की भी खबरें मिलती हैं।
वनराज भाटिया के आखिरी वर्षों की गुमनामी, उनका अकेलापन और आर्थिक संकट देखकर हैरत होती है कि एक ऐसे संगीतकार ने जिसने इतना काम किया, इतने क्षेत्रों में काम किया, इतने लंबे समय तक काम किया, उसे लोगों ने इस तरह छोड़ दिया, फिल्मी दुनिया ने उसकी खोज-खबर न ली, उसके कोई खास दोस्त-शुभचिंतक नहीं रहे। ढेरों फिल्मों, धारावाहिकों, संगीत अलबम, विज्ञापन, नाटक सहित संगीत के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले और कितने ही गायक-गायिकाओं को अवसर देने वाले भाटिया इस तरह अकेले पड़ गए कि यदा-कदा कोई मिलने या उनके बारे में खबर करने आता तो उस पर झल्ला उठते।
यह सच है कि लंबी संगीत यात्रा के बावजूद भाटिया के ऐसे गीत बहुत अधिक नहीं हुए जिन्हें लोकप्रियता के मुहावरे में बहुत सफल माना जाय। उनके कई समकालीन संगीतकारों की तरह उनके गीत आज उस तरह नहीं गाए-बजाए जाते हैं लेकिन उनका काम कई अर्थों में अद्वितीय और अनूठा था। वे एक ऐसे संगीतकार थे जिसमें अगर हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ थी और जिसका असर बार-बार उनके संगीत में दिखता रहा तो वे पाश्चात्य संगीत का एक गहरा प्रभाव हिन्दी फिल्मों में लेकर आए। लंबे समय तक विदेश में रहने और पाश्चात्य संगीत की शिक्षा ग्रहण करने के कारण उनके पास इसकी अद्भुत समझ थी।
भारतीय और विदेशी संगीत वाद्यों की भी उन्हें खूब जानकारी थी। उनका संगीत एक अलग किस्म का वह संगीत था जिसकी जरूरत उस दौर में नए सिनेमा को थी। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, कुमार साहनी, कुंदन शाह, सईद मिर्जा, विजया मेहता की उन कई फिल्मों में, जिन्हें हिन्दी फिल्मों मुख्य धारा से अलग समानान्तर सिनेमा कहा गया, भाटिया का ही संगीत सुनने को मिलता रहा। बेनेगल के तो वे चहेते संगीतकार रहे। बेनेगल के धारावाहिक ‘भारत एक खोज’ और निहलानी के ‘तमस’ का बेहतरीन संगीत भी भाटिया ने ही रचा। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कितने ही बड़े नाम उनके इस संगीत में शामिल थे।
आइवर यूशिएल
May 20, 2021 at 5:19 pm
इस त्रासदी से गुज़रने वाले वनराज भाटिया कोई एक अकेला नाम नहीं है और न ही फ़िल्मी दुनिया कोई एक अकेला ऐसा क्षेत्र है जिस पर लांछन लगाया जाए l यह तो अपने पूरे समाज की ही फ़ितरत है जहां हमेशा चढ़ते सूरज को नवाज़ा जाता है और यह केवल वर्तमान की ही बात नहीं है, ज़रा अतीत में झाँककर देखिये तो आपको विभिन्न क्षेत्रों की न जाने कितनी ऐसी प्रतिभाओं का स्मरण हो आएगा जिनकी ज़िन्दगी की शाम बेहद उपेक्षित, एकाकी और बेसहारा कटी l अभाव के इस दौर में न समाज ने उनकी फिक्र की, न सरकार ने और ऊपर से तुर्रा यह कि इनकी सिसकती ज़िन्दगी का अंत हो जाने के बाद बड़ी बेहयाई के साथ इनके हुनर के कसीदे पढ़कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गई l
किसी प्रतिभा की इसतरह उपेक्षा और अनादर से समाज कितना कुछ पाने से वंचित रह जाता है, इसका अंदाज़ा लगा पाना आसान है क्या और यही भूल हम बार बार दोहराते आये हैं l
समाज के हित में ऐसी प्रतिभाओं के प्रति अपने कर्तव्य का ध्यान रखते हुए इनकी जिंदगी के अंतिम दौर को यदि हम बेहतर बना सकें तो इससे न केवल हम इनकी प्रतिभा का अधिक से अधिक उपयोग कर सकेंगे वरन अंततः हमारा देश भी इससे लाभान्वित ही होगा इसमें कोई संशय नहीं l