बिचित्र मणि राठौर-
पुतिन को फिर से सोवियत संघ बनाना है और अपनी सत्ता कायम रखनी है, इसीलिए वो युक्रेन की संप्रभुता पर चोट कर रहे हैं। बाइडन को वर्ल्ड पावर के अपने तमगे को बरकरार रखना है, इसलिए वो नाटो की सैनिक शक्ति के जरिए रूस को नियंत्रित करना चाहते हैं।
और इन दोनों के बीच चीन वाले जिनपिंग खामोशी से अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। अमेरिका, चीन और रूस की अतृप्त महत्वांकाक्षा की कीमत दुनिया को चुकानी पड़ रही है। सावधान! आगे महाविनाश खड़ा है।
सुशांत झा-
मुझे आज वे अपने दोस्त मासूम लग रहे हैं जो कहते थे कि दुनिया में अब युद्ध नहीं होगा, क्योंकि देशों के व्यापारिक हित हैं और लोग समझदार हो गए हैं।
भाई, समझदार तो बहुत सारे महाभारत काल में भी थे या प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भी चतुर-सुजानों की कमी नहीं थी। लेकिन लोग लड़े और मरे।
युद्ध, मानव सभ्यता के लिए बुखार जैसा है। जैसे बुखार शरीर की गड़बड़ी बताता है, वैसे ही युद्ध सभ्यता की।
प्रथम महायुद्ध और दूसरे महायुद्ध का मूल कारण औपनिवेशक साम्राज्य में इंग्लैंड और फ्रांस का वर्चस्व था जिसमें जर्मनी ने देर से हिस्सा मांगा था। हिस्सा नहीं दिया गया और युद्ध ज़रूरी हो गया। युद्ध यूरोप से शुरू हुआ और एशिया के कई देशों को घसीट लिया गया। भारत,गुलाम था और उसे अपने मालिक के लिए मुफ्त में लड़ना और मरना पड़ा।
सौभाग्य से हम अभी स्वतंत्र हैं और इस यूरोपीय युद्ध में फंसने की ऐसी कोई मजबूरी हमारी नहीं है। रूस हमारा पुराना दोस्त रहा है और पश्चिम नया मित्रवत है। हाँ, एक ही परिस्थिति में भारत के लिए इस युद्ध में शामिल होना जरूरी होगा अगर यह फैल जाता है और चीन, रूस के साथ उसमें शामिल हो जाता है।
यूक्रेन युद्ध, दरअसल पिछले दो सौ सालों के यूरोप की अंदुरूनी उथल-पुथल की परिणीति है।
यूक्रेन पर रूसी हमला हालाँकि वैसा नहीं है जैसा जर्मनी का पोलैंड पर था। लेकिन कुछ-कुछ साम्य यहाँ भी है। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जर्मनी ने ब्रिटिश-फ्रांसीसी वर्चस्व पर सवाल उठाया था, रूस उसी तरह नाटो के विस्तारवाद पर सवाल उठा रहा है। हालाँकि रूस भी एक तरह से विस्तारवादी है जिसने सोवियत जमाने में पहले तो दर्जन भर देशों पर हमला कर कथित साम्यवाद के ‘पवित्र आवरण’ में कब्जा कर लिया और फिर जब सोवियत विघटन हुआ तो उसे एक मजबूत यूक्रेन बर्दाश्त नहीं है, साथ ही उसने वहाँ रूसी मूल के लोगों को भड़का कर नया देश भी बनवा दिया है।
लेकिन, नाटो की कहानी जो सोवियत वर्चस्व की वजह से शुरू हुई थी, उसे सोवियत विघटन के बाद भी जारी रखना और उसका फैलाव करना असली पश्चिमी चरित्र को दर्शाता है, जो अपने मूल में वैसा ही औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी है जैसा वह दो सौ साल पहले था।
दरअसल, यूरोपीय उपनिवेशवाद का प्रत्यक्ष राजनीतिक स्वरूप भले ही दुनिया से खत्म हो गया हो, उस लूट के माल में हिस्सेदारी की लड़ाई जारी है। उस उपनिवेशवाद का आर्थिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक स्वरूप बरकरार है। यूक्रेन संकट उसी का एक स्वरूप है। हम ये कामना तो कर सकते हैं कि कथित तीसरी दुनिया के देश में इसमें शामिल न हों, या घसीटें न जाएँ लेकिन दुनिया इतनी जुड़ी हुई है कि कौन इसमें कब घसीट लिया जाएगा, ये कहा नहीं जा सकता।
हम उम्मीद करें कि रूस और पश्चिमी नेतृत्व किसी समझौता पर पहुँचेंगे और दुनिया में शांति कायम होगी।