सत्येंद्र पीएस-
भारत की अर्थव्यवस्था इस समय अर्थशास्त्रियों को भी पता नहीं कितनी समझ में आ रही है। सरकार के दो आर्थिक सलाहकार, दो गवर्नर पद छोड़कर भाग चुके हैं। सिर्फ आईएएस अधिकारी ही ऐसे हैं जो बेचारे बंधुआ मजदूर होते हैं। अंग्रेजों के दौर से ही उन्हें सिखाया गया है कि सरकार अगर इमली को आम कहे तो वही कहना उनका दायित्व है और वो बेचारे रिजर्व बैंक से लेकर सरकार तक को लस्टम पस्टम चलाए जा रहे हैं।
पहले अगर 1 दिन की हड़ताल हो जाए तो अर्थशास्त्री लोग बताते थे कि देश को कितने हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो गया। वह भी केवल एक सेक्टर के बन्द होने पर। भारत मे कई महीने तक हर सेक्टर बन्द रहा, कोई गणना ही नहीं आती कि कितने लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
सरकार ने पब्लिक का पैसा खींचकर उद्योगपतियों को दे दिया। अब हालात है कि बच्चों के स्कूल खुले हैं तो स्कूल बस का किराया 2000 रुपये महीने से बढ़कर 4000 रुपये महीने हो गए हैं। एक करोड़ रुपये के फ्लैट में रहने वाले लोग सुबह सबेरे स्कूटर से बच्चों को स्कूल छोड़ने जा रहे हैं और वापसी में बच्चे पैदल घर आ रहे हैं। जो बच्चे स्कूल से बहुत दूर हैं उनके गार्जियन झेल रहे हैं या आसपास का स्कूल ढूंढ रहे हैं। पेट्रोल 120 रुपये लीटर पार कर गया है।
उद्योगपति भी बेचारे पैसा लेकर चबाएंगे क्या? उनका माल खरीदने के लिए पब्लिक के पास पैसे होने चाहिए। कच्चे माल का दाम बहुत ज्यादा बढ़ जाने से उनका मुनाफा सिकुड़ गया है। मारुति का प्रॉफिट 65% सिकुड़ गया। सभी बड़ी कंपनियां बाप बाप चिल्ला रही हैं। पवन ऊर्जा क्षेत्र अलग रो रहा है। दवाई के दाम भी बढ़ने वाले हैं क्योंकि बल्क ड्रग की कीमत 25 से 40 प्रतिशत बढ़ गई है और 70% माल चीन से आता है।
उद्योगपतियों का हाल ऐसा हो गया है जैसे गांव का जमींदार सभी गांव वालों को ऐसा लूट ले कि लोग भूखों मर रहे हों और जमींदार को समझ में ही न रहा हो कि अब लाश गिनने के अलावा करें क्या? भूखी नंगी कुपोषण जनता उसकी सेवा योग्य भी नहीं बची, वह सिर्फ मर सकती है और कुछ नहीं कर सकती। जमींदार को शुरू में तो बहुत मजा आया कि वह अमीर हो रहा है, अब उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा है।