Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

…और इस तरह नींद में चले गये अशोक अज्ञात

गोरखपुर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार अशोक अज्ञात नहीं रहे। इस सत्य को स्वीकार करने के अलावा हमारे पास अब कोई चारा नहीं है। करीब छह-सात साल पहले की बात है। अशोक अज्ञात प्रेस क्लब का चुनाव जीते। उनकी पत्रकार-मंडली का शपथ-ग्रहण समारोह होना था। अज्ञात एक दिन मुझसे टकरा गये। बोले– शपथग्रहण समारोह के लिए मुख्य अतिथि के रूप में किसे बुलाऊँ?

<p>गोरखपुर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार अशोक अज्ञात नहीं रहे। इस सत्य को स्वीकार करने के अलावा हमारे पास अब कोई चारा नहीं है। करीब छह-सात साल पहले की बात है। अशोक अज्ञात प्रेस क्लब का चुनाव जीते। उनकी पत्रकार-मंडली का शपथ-ग्रहण समारोह होना था। अज्ञात एक दिन मुझसे टकरा गये। बोले-- शपथग्रहण समारोह के लिए मुख्य अतिथि के रूप में किसे बुलाऊँ?</p>

गोरखपुर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार अशोक अज्ञात नहीं रहे। इस सत्य को स्वीकार करने के अलावा हमारे पास अब कोई चारा नहीं है। करीब छह-सात साल पहले की बात है। अशोक अज्ञात प्रेस क्लब का चुनाव जीते। उनकी पत्रकार-मंडली का शपथ-ग्रहण समारोह होना था। अज्ञात एक दिन मुझसे टकरा गये। बोले– शपथग्रहण समारोह के लिए मुख्य अतिथि के रूप में किसे बुलाऊँ?

मैंने कहा– सोचने का मौका दीजिए। दिमाग और नजर दौड़ाने लगा। अन्त में एक नाम सूझा। मैंने कहा– इस शोभा के लिए किसी ऐसे आदमी को बुलाया जाना चाहिए जो शब्द और वाणी का जादूगर हो। अज्ञात ने चयन का काम मुझ पर छोड़ दिया। मैंने कृष्ण कल्पित का चयन किया। गोरखपुर की पत्रकार बिरादरी अब भी कृष्ण कल्पित को याद करती है। मुझे याद आता है कि अशोक अज्ञात ने उस आयोजन में छोटा-सा भाषण देने के बाद कल्पित की चर्चित काव्यकृति ‘एक शराबी की सूक्तियां’ से कुछ कविताओं का पाठ भी किया था। अज्ञात मेरे ऐसे मित्र थे, जिनकी सादगी और सरलता मुझे किसी अन्य मित्र में नहीं दीखती। निष्कपट, निष्कलुष और निश्छल व्यक्तित्व के धनी अज्ञात सदैव मुस्कुराते हुए ही मिलते थे। कभी उन्हें उदास मुद्रा में नहीं पाया। दुख और पीड़ा भले उनके भीतर पल रही हो। बाहर से यही लगता था कि वह सुखी जीवन जी रहे हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अज्ञात से व्यक्तिगत तौर पर मेरा परिचय 1977 के आसपास हुआ था। गोरखपुर के राजकीय जुबली कॉलेज के सामने एक फर्नीचर की दुकान है, जो मेरे एक मित्र दयाराम साहनी की है। वहीं अज्ञात का बैठना-उठना होता था। कई बार वहां अज्ञात को देखा, लेकिन सीधे उनसे परिचय न होने के कारण बातचीत नहीं हुई। एक दिन जब मैं उस अड्डे पर पहुँचा तो अज्ञात एक कविता सुना रहे थे। वह कविता इतनी दमदार थी कि मैंने उनसे उसे दोबारा सुनाने का इसरार किया। उन्होंने सुनाई। कविता गीतनुमा थी। मैंने उनसे कहा— यह कविता तो शायद बाबा नागार्जुन की है। वह कुछ-कुछ झेंपते-शरमाते हुए बोले— नहीं-नहीं यह मेरी लिखी है। मैंने उनकी बात मान तो ली, पर विश्वास नहीं हुआ। एक बार शाम के वक्त उनके डेरे पर जाना हुआ। उन दिनों अज्ञात शायद दैनिक जागरण में सब-एडिटर थे। उन्होंने रात में मेरे वहीं रुकने का कार्यक्रम बना दिया। मीट-चावल पकाया और मदिरा की व्यवस्था की। उनकी फरमाइश पर मैंने एक कविता सुनायी। और तब क्या था] उनका कवि जाग गया।

उन्होंने अलमारी से अपनी डायरी निकाली और दस-बारह गीत एवं कुछ अतुकांत कविताएं सुना डालीं। सच कहता हूँ, वैसी कविताएं मैंने न तो आज तक पढ़ी और न सुनीं। मजे की बात यह कि अज्ञात की इनमें से शायद ही कोई कविता अखबार या पत्रिका में छपी हो। तब मैं लघु पत्रिकाओं में खूब छप रहा था। अज्ञात की तुलना में मेरी कविताएं कहीं नहीं ठहरती थीं। उस समय गोरखपुर का बुद्धिजीवी समाज अज्ञात को बेहद अच्छा आदमी तो मानता था, लेकिन वह एक आला दर्जे के कवि हैं यह मान्यता नदारद थी। अज्ञात के व्यक्तित्व में गजब का वैराट्य और औदार्य था, लेकिन न जाने उनमें कौन-सी ऐसी ग्रंथि थी जो उनको ख्यात होने की कोशिश से रोकती थी। साल-डेढ़ साल पहले की बात है। मैं उनके घर पर रात में रुका था। उनकी बहुत सारी कविताएं सुनीं। उनसे कहा कि इनकी पाण्डुलिपि तैयार कर मुझे दे दीजिए। संग्रह छपवाने की जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। वह टाल गये। अब वह डायरी कहॉं और किस हालत में होगी, नहीं कह सकता। गोरखपुर गया तो खोजबीन कराने का प्रयास करूँगा। सातवें-आठवें दशक में गोरखपुर और आसपास के जिलों के गांव-कस्बों के स्कूल-कालेज विभिन्न अवसरों पर कवि सम्मेलन आयोजित किया करते थे, जिनमें स्थानीय कवि-शायर आमंत्रित किये जाते थे। अशोक अज्ञात भी इन आयोजनों में काव्यपाठ किया करते थे। वाहवाही मिलती थी, खुश हो लेते थे।

Advertisement. Scroll to continue reading.

उन दिनों गोरखपुर में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अच्छा जनाधार हुआ करता था। मेरा नाता माकपा से था। अशोक अज्ञात भाकपा के कार्ड होल्डर थे। पार्टी के धरना-प्रदर्शन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। मैं था तो माकपा में, लेकिन लाल झंडा वाली सभी पार्टियों की गतिविधियों में रुचि लेता था और सभी के नेताओं-कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में रहता था। 1978 के आरम्भ में मुझे लखनऊ में सरकारी नौकरी मिल गयी और मैं गोरखपुर से चला गया। अशोक अज्ञात से इस बीच कोई सम्पर्क नहीं रख सका। अगस्त 1979 में रामेश्वर पाण्डेय के प्रयास से मुझे दैनिक जागरण में पत्रकार की नौकरी मिल गयी। मैं दोबारा गोरखपुर में। अप्रैल 1981 में दैनिक जागरण से निकाले जाने और उसके कुछ महीने बाद तक मैं गोरखपुर में रहा, लेकिन इस दौरान कभी अज्ञात से मिलना न हो पाया। हो सकता है, कभी कहीं दो-चार मिनट के लिए मिलना हुआ हो। याद में नहीं है।

1984 में मैंने कुछ महीने ‘आज’ अखबार में काम किया। तब अज्ञात भी ‘आज’ में आ चुके थे। आये दिन उनके घर आना-जाना होता था। मैं उनके परिवार का सदस्य जैसा था। मौका मिलने पर हम शाम की बैठकें भी कर लेते थे। इस अखबार में रहने के दौरान अज्ञात से मेरी प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। ‘आज’ मैं ज्यादा दिन न रहा। इसके बाद कई घाटों का पानी पीता रहा। आखिरकार, 1986 में ग्वालियर में पहुँच गया। वहां दैनिक भास्कर से मुझे तत्कालीन स्थानीय सम्पादक श्याम कश्यप ने निकलवा दिया। मजे की बात यह कि श्याम कश्यम ने ही मुझे नौकरी दिलवायी भी थी। कुछ महीने ‘चम्बलवाणी’ नाम के छोटे से अखबार में बिताये। और तभी मुझे राम विद्रोही जी ने, जो ‘दैनिक आचरण’ अखबार के सम्पादक हुआ करते थे, पार्ट टाइम नौकरी दिला दी। वे मेरे अत्यधिक आर्थिक कष्ट के दिन थे। एक रोज मेरे मित्र और जाने-माने पत्रकार अनिल पाण्डेय ग्वालियर आ धमके। तब वह ‘आज’ गोरखपुर में थे। ‘आज’ ज्वाइन करने का ऑफर लेकर गये थे। मैं कानपुर लग गया। उस दौरान लगभग हर महीने गोरखपुर एक-दो दिन के लिए जाता था, क्योंकि मेरा परिवार वहीं था। किसी से मिलूँ न मिलूँ, अशोक अज्ञात से अवश्य मिलता था। मेरे पास अज्ञात से जुड़ी अनगिनत यादें हैं। सभी यादें बॉंट पाना सम्भव नहीं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अशोक अज्ञात ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद आजीविका के साधन के रूप में ट्यूशन करना शुरू किया। कई साल तक इसी से वह गुजारा करते रहे। इसके बाद उन्होंने आजमगढ़ के अखबार दैनिक देवल, गोरखपुर के ‘हिन्दी दैनिक’ और दैनिक जागरण में काम करते हुए ‘आज’ में जगह पायी। आज अखबार से ही वह रिटायर हुए। आज से ग्रेच्युइटी और पीएफ का पैसा निकलवाने में उन्हें नाको चने चबाने पड़े। पता नहीं, मरने से पहले पूरा पैसा प्राप्त कर सके या नहीं। 2014-15 में मैं गोरखपुर में रहने लगा था। उस समय अज्ञात घोर आर्थिक तंगी में जी रहे थे। उनका परिवार भी बिखर रहा था। लेकिन कभी उनके माथे पर शिकन नहीं देखता था।

पत्नी सीजोफ्रेनिया की शिकार हो गयी थीं। और बाद में चल बसीं। बड़ा बेटा अतुल मानसिक रूप से बीमार हो चला था। छोटा वाला किसी प्रकार सातवीं पास कर सका और पढ़ना बन्द कर दिया। दोनों के बीच की एक बेटी है— नेहा। वह पढ़ने में ठीक थी। नेहा शायद एम कॉम कर चुकी है। अज्ञात कहते थे कि नेहा जब तक पढ़ना चाहेगी, तब तक इसकी शादी करूँगा। मैं आये दिन उनके डेरे पर पहुँच जाता था और में वहीं रुक जाता था। वह अपनी कोई परेशानी शेयर नहीं करना चाहते थे। मैं ही उनको खोद-खोद कर पारिवारिक दिक्कतों की जानकारी लेता था। उनकी गम्भीर बीमारी की शुरुआत अनवरत हिचकी आने से हुई। करीब एक साल तक उन्हें हिचकी आती रही। इलाज चलता रहा। कोई फायदा नहीं होता था। इसी बीच, उन्‍हें मसूढ़े में दर्द की शिकायत हुई। कुछ दिन टालते रहे। जब शुभचिन्तकों के दबाव में जांच करायी तो कैंसर निकला। कीमोथेरैपी ने कुछ महीने उन्हें जिन्दगी बख्शी। जिस रोज उनकी मौत की खबर पायी, उससे दस दिन पहले ही फोन पर बात हुई थी। फोन नेहा ने उठाया था। बोली— पापा बात कर पाने की हालत में नहीं हैं। वह लाइन पर आये, दो-चार वाक्य बोल सके। और अन्त में कहा— विनय जी, नींद आ रही है। अब सोने दीजिए!

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक Vinay Shrikar से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement