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सुख-दुख

औरतें जीवन पार्टनर हो सकती हैं मगर सहचर या साथी नहीं!

सिद्धार्थ ताबिश-

औरतें, मर्दों की जीवन पार्टनर हो सकती हैं मगर “सहचर या साथी (companion)” नहीं… औरत और मर्द का रिश्ता प्रेम करने, परिवार बढ़ने, बच्चे पालने तक ही “प्राकृतिक” होता है.. इसके बाद जो भी रिश्ता बनता है वो प्राकृतिक रूप से “मज़बूत” नहीं होता है.. और न ही उसे प्रकृति का कोई “सपोर्ट” मिलता है.

मर्द को अगर कुछ भी नया रचना होता है तो उसे अपने ही श्रेणी के “मर्दों” का साथ चाहिए होता है.. चाहे गूगल बना हो, माइक्रोसॉफ्ट बना हो, फेसबुक बना हो या दुनिया की ज्यादातर शानदार रचना या कंपनियां, ज्यादातर सब मर्दों के सहचर मर्दों के साथ रची गई हैं.. किसी भी क्षेत्र में आप देख लें.. आध्यात्म से लेकर विज्ञान, सब जगह मर्दों के साथी मर्द ही मिलेंगे.. रूमी के साथी तबरेज, सरमद के साथी अभय, निजामुद्दीन के साथी अमीर खुसरो, बिल गेट्स के साथी पॉल, लैरी के साथी सर्गेई.. इत्यादि इत्यादि.. इन्फोसिस के चेयरमैन नारायणमूर्ति ने जो किया उसमे उनकी पत्नी ने अडंगा नहीं लगाया बस, और मुकेश अंबानी ने जब खुल्लम खुल्ला ये कहा कि मेरी पहली “पत्नी” मेरी कंपनी है तो नीता रूठ के मायके नहीं गईं.. इसे ही आप सपोर्ट कहिए या कुछ भी मगर इनमे से कोई भी कंपनी रचने में प्राइमरी माइंड नहीं थीं कभी.. सहचर नहीं थीं.

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दुनिया के बेहतरीन संगीतज्ञ जोड़ियों से लेकर, नाटककार, कथाकार, गीतकार इत्यादि वगैरह जो भी हैं, सब मर्दों के साथ ही जोड़ी में हैं.. कुछ एक अपवाद को छोड़कर, और वो इतने कम प्रतिशत हैं कि उन्हें नगण्य ही कहा जाएगा.

बुद्ध ने भी सन्यास में मर्दों का साथ चुना, आनंद को अपना सहचर बनाया.. औरतों के लिए उन्होंने अपने संघ से दरवाज़े बंद रखे थे क्योंकि ये बात वो अच्छी तरह समझते थे.. ओशो ने इसे नहीं समझा और एक औरत को अपने सबसे करीब आने दिया और उस औरत ने ओशो की मिट्टी पलीत कर दी.. आज भी वो जर्मनी में बैठी ओशो के खिलाफ़ अपनी भड़ास निकालती है.. ओशो इस मामले में चूक गए.

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मेरे हिसाब से प्राकृतिक रूप से औरतें किसी की भी नहीं, मर्दों की भी नहीं और स्वयं औरतों की भी सहचर या साथी नहीं होती हैं.. औरत अगर किसी की सच्ची सहचर होती है तो बस अपने “बच्चों” की.. अपने बच्चों के लिए औरत अपने पति से लेकर किसी को भी इस्तेमाल कर सकती है.. ये उसकी प्रकृति है और यही सही भी है प्राकृतिक रूप से.

मेरे हिसाब से ये बिलकुल झूठी कहावत है कि हर कामयाब मर्द के पीछे एक औरत का हाथ होता है.. ये बात उसके पति के लिए नहीं, हां बच्चों के लिए लागू हो सकती है.

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औरत बिल्कुल अलग तरह से सोचती है और जो मर्द औरत को अपना सहचर बनाने के लिए सारी उम्र अपना जी जान लगा देते हैं, वो दरअसल सिर्फ़ अपना समय बर्बाद करते हैं.. उनकी सारी उम्र एक एडजस्टमेंट और इसी तरह की बेवकूफियों में बीत जाती है.. औरत को उसका अपना जीवन जीने के लिए मर्दों को उसे स्वतंत्र करना होता है और स्वयं भी अलग जीवन चुनना होता है, तभी दोनो सच में जी पाते हैं अन्यथा सारी उम्र एक दूसरे का बस खून चूसते हैं.. मर्द और औरत सहचर बनने के लिए नहीं पैदा होते हैं.. वो परिवार बढ़ाने और प्रेम के लिए ही बस साथ आते हैं प्राकृतिक रूप से.

इसलिए अपनी रचनात्मकता, कोई नई खोज या आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए मर्दों को अपने मर्द दोस्त को अपना सहयोगी या सहचर बनाना होता है या फिर अकेले ही अपनी यात्रा पर निकलना होता है.

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ये मेरी अपनी निजी राय है जिसे मैंने अपने इस जीवन में सीखा है.. आपकी राय इस से भिन्न हो सकती है.. मगर मेरा अपनी इस राय पर दृढ़ विश्वास है.


पति अपनी पत्नी में दोस्त, सहचर, क्रिएटिव जीनियस, बिजनेस पार्टनर, ट्रैवलर, एडवेंचर पार्टनर से लेकर जाने क्या क्या ढूंढा करता है और पत्नी भी यही सब ढूंढती है.. जबकि ये दोनो एक दूसरे में नहीं होता है.

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ये दोनो ये भूल जाते हैं कि ये दोनो साथ किस “वजह” से आए थे.. पति के भी अपने जीवन में कई दोस्त लड़कियां थीं और पत्नी के भी कई दोस्त लड़के थे.. मगर दोनो ने एक दूसरे को चुना था “परिवार” बनाने के लिए.. शादी करने के लिए.. अगर उनकी अरेंज मैरिज हुई थी तो वो भी इसी लिए ही हुई थी.. परिवार बनाने के लिए.. अगर दोस्त या सहचर बनना होता तो शादी क्यों करते दोनो?

तो वजह क्या थी साथ आने की और अब उस वजह और मक़सद के “रिश्ते” को भूलकर “असंभव” को खोजा जा रहा है एक दूसरे में.. शादी के बाद भी पत्नी के कई लड़के दोस्त हो सकते हैं और पति के भी दोस्त लड़कियां.. मगर क्या उन सब से दोनो ने शादी का सोचा था कभी? नहीं.. ये “जीन” का खेल था जिसे दोनो ने सहमति से चुना अपनी “जीन” या नस्ल को आगे बढ़ाने के लिए.. आपने “पत्नी” और “पति” बनना चुना था.. कोई क्रिएटिव जीनियस, दोस्त, सहचर, बिजनेस पार्टनर नहीं.. वो इस वक्त भी नहीं था और थी और आज भी नहीं है.

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मैं हर उम्र की महिलाओं और मर्दों को देखता हूं अपने लाइफ पार्टनर के बारे में शिकायत करते हुवे.. और अच्छी खासी उम्र में पहुंचकर उनकी क्या शिकायत होती है, ख़ासकर पतियों की अपने पति से? मुझे पिज़्ज़ा पसंद है मगर ये मुंह बिचकाते हैं, मुझे शायरी पसंद है मगर ये बिलकुल रोमांटिक नहीं हैं, मुझे मैकडोनाल्ड्स की फ्राइज़ पसंद है मगर ये बर्गर पर जान देते हैं, कहीं घुमाने नहीं ले जाते हैं, बड़े बोरिंग हैं.. मेरा मन है कि मैं अपना बुटीक खोलूं मगर ये बिलकुल साथ ही नहीं देते हैं.. फलाना धिमाका.. अब ये पत्नी अपने पति में सब कुछ ढूंढ रही है.. एक दोस्त, एक क्रिएटिव जीनियस, एक बिज़नेस पार्टनर वगैरह वगैरह.. ये भूल जाती है कि ये दोनो साथ इस सब के लिए आए ही नहीं थे..इनका जो रिश्ता हुआ था वो प्रेम का था.. प्रेम की वजह कुछ और थी, शादी इन्होंने किसी और वजह से की थी.. इन्होंने परिवार “बनाने” का सोचा था.

क्या आप कभी अपनी “माँ” में दोस्त, सहचर, बिजनेस पार्टनर, क्रिएटिव जीनियस ढूंढते हैं?

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आपको पता है वो माँ है, उस से एक अलग रिश्ता है और ख़ास संबंध है.. दोस्त आपको बाहर मिलेंगे, पत्नी भी बाहर मिलेगी, ट्रैवल पार्टनर, बिजनेस पार्टनर भी बाहर मिलेगा. माँ में ये सब नहीं मिलेगा.. आप कभी गुस्सा होते हैं कि मुझे कविता पसंद है और मेरी माँ को नहीं, ऐसे कैसे हम माँ बेटे की जोड़ी चलेगी भला? आप ऐसा नहीं सोचते हैं न.. फिर पत्नी और पति को लेकर आप ऐसा क्यों सोचते हैं?

ये समझ अगर हमारे समाज में बढ़ जाए और जो में कह रहा हूं उसे लोग, ख़ासकर शादी शुदा लोग अगर समझ जाएं, तो उनकी ज़िंदगी बिल्कुल बदल जाएगी और दोनो सच में जीवन “जीना” शुरू कर देंगे.

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विजय सिंह ठकुराय-

मित्र ताबिश सिद्दीकी भाई ने महिलाओं पर एक पोस्ट लिखी है। इनका कहना है कि – महिलाएं अच्छी बीवी या अच्छी माँ हो सकती हैं पर अच्छी सहचरी नहीं हो सकतीं, पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर कंपेटेटिव फ़ील्ड्स जैसे कि विज्ञान, कॉरपोरेट, दर्शन इत्यादि में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकतीं, अपवाद की बात अलग है। बहुतों को यह बात ठीक भी लगेगी। मैं ताबिश भाई के इस स्टेटमेंट के सही/गलत होने से इतर इस विचार के मूल पर कुछ कहना चाहता हूँ।

हम लोग अक्सर मजाक उड़ाते हैं कि लड़कियां कंपेटेटिव नहीं होती, ओवरटाइम नहीं करतीं, लड़कों की तरह जॉब कल्चर में फ्लैक्सिबल या हमेशा उपलब्ध नहीं होतीं। विज्ञान-दर्शन-कॉरपोरेट में उतना आउटपुट नहीं दे सकतीं। गाड़ियां नहीं चला सकतीं। लड़कियों के ड्राइविंग या नेविगेशन स्किल्स का मजाक उड़ाती न जाने कितनी वीडियो रोज हम देखते हैं।

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क्या लड़कियाँ ओवरटाइम नहीं कर सकतीं? कर सकतीं हैं पर लड़की लेट हो जाए, वक़्त-बेवक़्त काम पर जाए तो उनके परिजनों-बॉयफ्रेंड को दिक्कत हो जाती है। समाज उन्हें चरित्र प्रमाणपत्र बांटने लगता है। वजहें सिक्योरिटी की दी जाती हैं पर बाउंडेशन तो है ही न। पुरुषों के लिए ये कंडीशन नहीं है। वे जब चाहें, जहां चाहें, आ जा सकते हैं। आप अपने दिल पर हाथ रख कर बताइए कि आज से एक पीढ़ी पूर्व तक आपके घर की औरतें बिना किसी काम के घर से कितना निकल पाती थीं? अपवादों को छोड़ ज्यादातर मिडिल क्लास फैमिलीज में यह भी संभव था कि औरत सिर्फ हवा खाने के लिए बाहर चली जाए?

आज से कुछ दशक पूर्व तक लड़की का काम करना तक वर्जित होता था। आज भी ज्यादातर सभ्रांत परिवार के लोग नौकरी के नाम पर लड़कियों को “टीचिंग या बैंकिंग” जैसी सहूलियत वाली नौकरी तक सीमित कर देते हैं। जब मेजोरिटी में औरतों को कंपेटेटिव फ़ील्ड्स में काम करने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं किया जाएगा तो वे पुरुषों के समान आउटपुट कैसे देंगी?

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आज से कुछ दशक या शताब्दी पूर्व तक तो विश्व के लगभग सभी हिस्सों में औरतें वोट के लिये, समान अधिकार के लिए, मर्जी के कपड़े पहनने के लिए, कम आयु में ब्याहे न जाने के लिए, पति के गुजर जाने पर दोबारा जीवन शुरू करने के लिए, बल्कि गाड़ी चलाने तक के अधिकार के लिए संघर्ष कर रही थीं, जिनके डीएनए में एक्सप्लोरेशन है ही नहीं, उनका किस मुंह से मजाक उड़ाया जाए कि उनके कंपेटेटिव या नेविगेशन स्किल्स अच्छे नहीं हैं?

अपनी रोजाना की तकरीरों में समानता के पक्षधर होने के बावजूद, विचारधारा से बुद्धिस्ट ताबिश कहते हैं कि बुद्ध भी स्त्रियों की अयोग्यता से परिचित थे, इसलिए उन्होने आनंद को अपना साथी चुना। अरे, उस बेचारी को साल दो साल साथ लेकर चलते, बाद में लगता कि योग्य नहीं है तो छोड़ देते। पर जब यशोधरा को सत्य की खोज में सहचरी बनने का एक अवसर ही न दिया, उस अभागी को सोता छोड़ चुपचाप निकल गए तो यह कहने का क्या ही मुंह है कि वो अयोग्य थी?

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चलो, अपनी वाली अयोग्य थी पर संसार की सभी औरतों को अयोग्य घोषित कर देने का क्या औचित्य हुआ? और जब अंततः स्त्रियों के मठप्रवेश की इजाजत दे ही दी तो 100 वर्ष भिक्षुणी रही स्त्री का मान एक दिन के पुरूष भिक्षु के बराबर तौलने का क्या औचित्य हुआ?

इतिहास उठा कर देखिए। पुरुष अक्सर कहेगा कि स्त्री देवी है, सम्मान के योग्य है। फिर साथ मे जोड़ेगा कि स्त्री अयोग्य है, कमजोर है, पुरुषों को कर्तव्यविमुख कर देगी, आधे दिमाग वाली है, सक्षम नहीं है इसलिए उसकी इज्ज़त सुरक्षित नहीं है – यह कह कर उसे बेड़ियां पहनाने के लिए तो पुरूष अनेक प्रवंचनाएँ ढूंढ लेगा, पर कमजोर को बराबर का अवसर उपलब्ध करा पाने का न्यायपूर्ण संकल्प धारण करने में उसके फेफड़ें कांप जाते है।

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बात कुछ ऐसी है कि एक पक्षी को सदियों तक पिंजरे में कैद रखो, उसके पर कुतर दो, उसे शिकारियों का भय दिखा कर उड़ने न दो, फिर एक दिन कहो कि – यह तो उड़ता ही नहीं? लायक ही नहीं है?

अरे, जिसके हजारों साल बेड़ियों में कटे, उसे कुछ सौ साल उड़ने तो दो। उसके डीएनए में उड़ने का हौसला पनपने तो दो। फिर तय करना कि योग्य है या नहीं। तब तक स्त्रियों की अयोग्यता संबंधी ऐसे सभी आकलन सिर्फ सतही बातें हैं।

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उससे भी सतही बात यह है कि मर्द औरत को कागजों पर तो देवी बनाता है, पर असल जीवन में इंसान भर भी नहीं रहने देता।


कनुप्रिया- अच्छी सहचरी मतलब क्या, क्या सेंट्रल पॉइंट पुरुष ही है. अरे भई हमने क्या ठेका लिया है सहचरी बनने का, क्या हमारा जन्म इसी लिये हुआ है कि किसी पुरुष की सहचरी बनें. क्या हमारा अपना जीवन, अपने उद्देश्य, अपनी आकांक्षाएँ नही है. साहचर्य एक परस्पर भाव है, किसी एक वर्ग का अकेले का हक़ नही. अगर आप कहते हैं कि स्त्रियाँ अच्छी सहचरी नही है तो अपने भीतर झाँक कर देखिये कि क्या आप अच्छे सहचर होना सीखे? बाक़ी मैं देखती हूँ नई पीढ़ी हमसे बेहतर है, वो लोग जानते हैं कंधे से कंधे मिलाकर कैसे चला जाता है.

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