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सियासत

लोकसभा 2024 एक स्वप्नहीन चुनाव है!

सुशोभित-

लोकसभा चुनाव के लिए दूसरे चरण की वोटिंग हो चुकी है, लेकिन मतदाताओं में उत्साह नहीं दिखलाई देता। पहली बार मतदान करने जा रहे युवाओं ने तो लगभग मुँह ही फेर लिया है। ये एक स्वप्नहीन चुनाव हैं। एक तरह का यथास्थितिवाद लोकमानस पर हावी है। वोट बदलाव के लिए दिए जाते हैं, लेकिन बदलाव की सूरत नज़र नहीं आती। इसके बावजूद इन चुनावों में बहुत कुछ दाँव पर है!

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देश के बहुत सारे लोगों के मन में यह आ गया है- और यह बीते चंद महीनों में और उभरकर आया है- कि और पाँच साल हम ‘इसको’ झेल नहीं पाएँगे। ये ‘फ़्लोटिंग-वोटर्स’ हैं जो आखिरी समय तक अपने निर्णय को स्थगित रखते हैं और सोच-समझकर वोट देते हैं। ये बंधक मतदाता नहीं हैं कि चाहे जो हो, हम अपने नेता पर ही ठप्पा लगाकर आएँगे। और ये ‘फ़्लोटिंग-वोटर्स’ ही चुनावी नतीजों का ऊँट किस करवट बैठेगा, यह तय करते हैं। बीते कुछ समय में सत्ता और उसके ‘शाह-आलम’ ने इन हाशिये के वोटरों को मायूस किया है और विकल्पहीनता की कगार पर धकेला है। बहुत मुमकिन है, वो हताशा में विपक्ष को वोट दे आएँ। इससे कुछ हो ना हो, सत्ता के एकतरफ़ा विजय-रथ के टायर ज़रूर पंक्चर हो सकते हैं और यह विपक्ष की छोटी जीत नहीं होगी। हर लड़ाई जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती और हर चुनाव भी सरकार बनाने के लिए नहीं लड़ा जाता!​

1977 में देश के सामने जो अवस्था थी, वह तो ख़ैर अभी तक नहीं आई है, लेकिन बस आने को ही है। ज़िंदा क़ौमें और पाँच साल इंतज़ार नहीं कर पाएँगी! सतहत्तर में देश में सर्वसम्मत सम्राज्ञी थीं, और हालाँकि विपक्ष में भी बड़े चेहरे थे, पर विपक्ष की सरकार चलाने की क्षमता पर सबको संदेह था। इसके बावजूद जनता ने कहा, भले ‘खिचड़ी-सरकार’ बना देंगे, लेकिन सम्राज्ञी को और पाँच साल नहीं देंगे। लोकप्रिय नेता से ऐसा लगभग सार्वभौमिक मोहभंग (अलबत्ता दक्षिण भारत तब भी ‘इंदिराजी’ के साथ ही था) भी संसदीय-लोकतंत्र की एक और ख़ूबी है। जो नेता बहुत चहेता और दुलारा माना जाता था, उसी को किनारे करने में जनता देर नहीं लगाती। 1984 के 414-तिलकधारी युवा, स्वप्नदर्शी को 1989 आते-आते ‘बोफ़ोर्स के दलाल’ के रूप में जनता द्वारा पर्सीव करने पर कुर्सी से उतारा ही गया था। 2004 में तो सर्वप्रिय ‘अटलजी’ को ‘इंडिया शाइनिंग’ की शेख़ी और ख़ुशफ़हमी पर बाहर कर दिया था। फिर ‘यह’ किस खेत की मूली है?

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लोग यह तो शुरू से ही जानते थे कि ‘यह’ लिखा-पढ़ा नहीं है, पर उनके मन में यह धारणा अवश्य थी कि देश की सेवा में तत्पर है और ईमानदार है। अब वह मुलम्मा घिस रहा है। कहाँ तो ‘अटलजी’ का वह आदर्शवाद कि बेईमानी से मिली सत्ता को ‘चिमटे’ से भी नहीं छुऊँगा और कहाँ चुनावी बॉन्ड के ज़रिये शर्मनाक हफ़्ता-वसूली, केंद्रीय एजेंसियों का ब्लैकमेलिंग के लिए नाजायज़ इस्तेमाल, विपक्षी दलों के भ्रष्ट नेताओं को तोड़कर उन्हें अपने यहाँ ले आना और अपने निष्ठावानों को लटकाकर उनको टिकट दे देना, दलबदल, ख़रीद-फ़रोख़्त, बाज़ारवाद, झूठ, ग़ैर-पारदर्शिता, जनता के सामने आकर ज़रूरी सवालों का जवाब नहीं देना, अपने ही मन की हाँकना और चुनाव-रैलियों में राजनीति के स्तर से भी सामान्य शिष्टाचार को तार-तार कर देने ने एक निष्पक्ष मतदाता को संशय में डाल दिया है।

‘यह’ जब मंच पर जाकर बेशर्मी से सफ़ेद-झूठ बोलता है और ये बेबुनियाद आरोप लगाता है कि कांग्रेस पार्टी माताओं-बहनों के मंगलसूत्र छीनकर मुसलमानों को दे देगी तो ये मानकर चल रहा होता है कि जनता तो मूर्ख है, मैं जो बोलूँगा मान लेगी। ऐसा सोचने के पीछे उसका आधार यह है कि जब मैंने पूजा-पाठ का ढोंग करके और मंदिरों में फ़ोटो खिंचवाकर लोगों को बेवक़ूफ़ बना दिया तो चुनावी घोषणा-पत्र पर झूठ बोलना क्या चीज़ है? लेकिन क्या हो अगर जनता इतनी भी मूर्ख न हो, जितना ‘इसने’ सोचा था? या क्या हो अगर जनता मूर्ख बनाए जाने से ऊब जाये और कुछ समझदारी दिखाने पर आमादा हो जाये? कट्टर से कट्टर समर्थक भी मन में यह तो सोच ही सकता है कि ‘तू’ 2014 में भी कांग्रेस को गाली बक रहा था और 2024 में भी बक रहा है तो ‘तूने’ इन दस सालों में क्या किया? अपना रिपोर्ट कार्ड पेश कर, यहाँ-वहाँ की मत सुना। तब ‘यह’ क्या करेगा? फिर किसी सूर्य-तिलक का वीडियो देखते हुए अपना वीडियो बनवाकर फ़ेसबुक पर अपलोड करेगा?

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दूसरी तरफ़ एक युवतर नेता है, जिसे बरसों से ‘मूर्ख’ बताया जा रहा है। लेकिन भारतीय लोकमानस में ‘मूर्ख’ को ‘धूर्त’ से बेहतर समझा जाता है। वह कथित ‘मूर्ख’ भी इस ‘धूर्त’ से ज़्यादा पढ़ा-लिखा, शिक्षित, सौम्य और सुसंस्कृत है। वह लोगों के बीच जाकर सीधे बात करना भी जानता है। जनता यह तो मन ही मन जानती ही है कि वह नेक-ईमानदार है, पर क्या सरकार भी चला सकता है, इसको लेकर निश्चित नहीं है। राष्ट्रीय-सुरक्षा- अंदरूनी और बाहरी- का प्रश्न मतदाता को परेशान करता है। लेकिन कभी तो जनता यह मन बनायेगी कि जो होगा देखा जायेगा, पर हम ‘इसको’ और पाँच साल नहीं झेल सकते। क्योंकि देश के भविष्य के लिए ‘इसके’ पास कोई विज़न नहीं है- सिवाय इंफ्रास्ट्रक्चर और विदेशी निवेश के। जेन-ज़ी की भरपूर संख्या वाला नौजवान, एस्पिरेशनल, कॉस्मोपोलिटन देश ‘इससे’ बेहतर लीडर डिज़र्व करता है। यक़ीनन करता है।

पहले राउंड की सुस्त-वोटिंग के बाद बौखलाये नेता ने मंच पर जाकर अनर्गल प्रलाप किया, यह सोचकर कि मुसलमान मुझको वोट देंगे नहीं, कम से कम अपने नवजाग्रत हिन्दुओं को ही उकसाकर वोट माँग लूँ। लेकिन भारत केवल इन नवजाग्रत हिन्दुओं का ही देश नहीं है। ऐसे में यह दाँव उलटा भी पड़ सकता है। अगर इन सस्तई भरे प्रपंचों से किनारे पर खड़े असमंजस-भरे, तटस्थ वोटर बिदक गये तो ‘अबकी बार 400 पार’ तो दूर, ‘इसको’ बहुमत के भी लाले पड़ सकते हैं। और लोकतंत्र की बेहतरी के लिए ये ज़रूरी है कि ‘इसको’ बहुमत से लटका दिया जाये। चार गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर ‘अटलजी’ की तरह ‘राजा-बाबू’ बनके काम करेगा तो सब चौकड़ी भूल जायेगा और होश ठिकाने आ जाएँगे! देश के भले के लिए ‘इसकी’ नकेल कसना वैसे भी ज़रूरी है!

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