संजय वर्मा-
अनुभव सिन्हा मेरे प्रिय फिल्मकार हैं । उनकी फिल्म ‘भीड़’ का मूल विषय कोरोना काल में बगैर सोचे समझे अचानक लगा दिये गये लॉक डाउन की त्रासदी है । फिल्म की मूल कथा के साथ चलती एक उपकथा है । नायक राजुमार राव दलित समाज से है और पुलिस वाला है । उसकी प्रेमिका सवर्ण समाज से है ! प्रेम के अंतरंग क्षणों में नायक फ्रीज़ हो जाता है । एक अनजाना खौफ उस पर तारी हो जाता है । नायिका का प्रेम और नायक के प्रति उसका सम्मान सच्चा है , नायक पोजिशन ऑफ पावर मैं है , फिर भी …?
क्या इस डर का संबंध हमारी सामूहिक स्मृतियों से है ! क्या भीड़ के नायक के पुरखों के मन में सवर्ण समाज का जो खौफ था , वह उन खास क्षणों में नायक की चेतना पर कब्जा कर लेता है ?
हम इंसान अपनी स्मृतियों से संचालित होते हैं लेकिन सिर्फ अपने जीवन काल की स्मृतियों से नहीं , हमारे परदादा , परनाना और सारे पुरखों के जीवन अनुभव हमारी सोच में चुपके से दाखिल हो जाते हैं , ठीक जींस की तरह जो एक पीढ़ी की बीमारियां दूसरी को चुपचाप दे देते हैं। रिचर्ड डॉकिंस ने इसे ‘मीम्स ‘ का नाम दिया है । यह जादू भाषा के जरिए होता है । भाषा हर पीढ़ी के अनुभव अपने भीतर किसी सॉफ्टवेयर के कोड की तरह समो लेती है । फिर अगली पीढ़ी जब वह भाषा बोलती है , तो वे सारे अनुभव डिकोड हो जाते हैं।
किसी खास व्यक्ति, संस्था ,या किसी खास धर्म ,नस्ल से जुड़े व्यक्ति से मुठभेड़ के समय यह सामूहिक स्मृतियां ,ये धारणाएं ड्राइविंग सीट पर आ जाती हैं और हमारा अपना ज्ञान और अनुभव बैक सीट पर चला जाता है । मेरे कुछ परिचित दूसरे धर्म या जाति के लोगों के बारे में कुछ अजीब से निष्कर्ष रखते हैं । मैं उनसे पूछता हूं आप इस जाति या धर्म से जुड़े कितने लोगों को जानते हैं ? ज्यादातर लोगों के पास कोई जवाब नहीं होता । भीड़ के नायक की जाति से जुड़े एहसास ए कमतरी की तरह , इन लोगों के किसी दीगर धर्म के प्रति मूर्खतापूर्ण निष्कर्षों को भी क्या सामूहिक स्मृतियों से जोड़ कर समझा जा सकता है ?
कई लोगों की तरह मुझे भी पुलिस से बहुत डर लगता है । जबकि पुलिस ने आज तक मेरा कोई व्यक्तिगत नुकसान नहीं किया , लेकिन तमाम दूसरे लोगों की तरह मैं भी उनसे डरता बचता हूं ! क्या यह अनजाना डर मेरे पुरखों के पुलिस के साथ हुए अनुभवों का नतीजा है ।
कुछ समय पहले मैंने सिंधी की अरबी लिपि सीखने के लिए यूनिवर्सिटी के डिप्लोमा कोर्स में दाखिला लिया । मैं जब भी क्लास अटेंड करने जाता ,स्कूल से जुड़ी स्मृतियों के डरावने साए मेरा पीछा करते । पढ़ाई में ठीक-ठाक होने के बावजूद स्कूलिंग मेरे लिए एक डरावना अनुभव रहा है । मुझे लगता था इस उम्र में आकर शायद मेरे मन से यह डर निकल गया होगा , पर मैं गलत था । मजे की बात यह है कि इस यूनिवर्सिटी का सबसे बड़ा प्रशासनिक अधिकारी मेरा सगा छोटा भाई है और क्लास में जो टीचर मुझे पढ़ाती थी , वह मेरी मित्र है और मुझे भाई जैसा मानती है । इसके बावजूद भी…! मैंने वह कोर्स आधे में ही छोड़ दिया !
मेरे एक मित्र कारोबारी हैं। वे जानबूझकर अपना कारोबार नहीं बढ़ाते । उनका कहना है जैसे ही मेरा धंधा बढ़ेगा, मुझे सरकारी इंस्पेक्टरों से डील करना होगा , मुझे उनसे डर लगता है । एक आम हिन्दुस्तानी की सामूहिक स्मृतियों में राजा के कारिंदो की डरावनी स्मृतियां हैं ।
ये किस्से हमें बताते हैं कि किसी इंसान ,समाज या देश की तरक्की और खुशहाली आखिरकार स्मृतियों और उनके दंश से सीधे जुड़ी हुई है । एक बेहतर इंसान , एक बेहतर समाज का रास्ता दिमाग के उन अंधेरे तहखानो से होकर गुजरता है ,जहां ये सामूहिक स्मृतियां दफन हैं ।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और बायो टेक्नोलॉजी में जिस तेजी से विकास हो रहा है , बहुत जल्द हमारे शरीर के सभी अंग प्रयोगशाला में बनाए और बदले जा सकेंगे । तब यदि एक इंसान के सारे अंग प्रयोगशाला में बदल दिए जाएं , तब वह इंसान वही है या नहीं , यह कैसे तय होगा ? वैज्ञानिकों का कहना है ,जब तक उसकी स्मृतियां पुरानी है तब तक वह वही इंसान माना जाएगा भले ही उसका दिल ,दिमाग ,गुर्दे फेफड़े सब कुछ नए लगा दिए जाएं ।
तो इसका मतलब हमारा अस्तित्व असल में सिर्फ हमारी स्मृतियां हैं ? तो अगर इंसान को बदलना है, तो उसकी स्मृतियों का इलाज करना होगा । उसकी खुद की भी और उसके पुरखों की भी ।
लेकिन वह ओझा कहां से लाएं जो स्मृतियों की इस प्रेत बाधा को कोई मंतर फूंक कर दूर कर दे , हमें मोक्ष दे दे । मौजूदा समय की कई समस्याओं को आप सामूहिक स्मृतियों का उपचार किए बिना नहीं सुलझा सकते ।