अविनाश दास की ‘अनारकली ऑफ आरा’ : पहले दिन गिनती के दर्शक पहुंचे

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ये है भोपाल से पत्रकार अमित पाठे का रिव्यू….

रिलीज़ के पहले दिन स्क्रीन ऑडिटोरियम में दर्शक कोई 15-20 ही थे

Amit Pathe : “ये रंडी की ‘ना’ है भिसी (वीसी) साब.” ये वो महत्वपूर्ण डायलॉग है जिसपे फिल्म अनारकली ऑफ आरा पूरी होती है। ये वो ‘ना’ है जो हमने ‘पिंक’ मूवी में मेट्रो सिटी की वर्किंग गर्ल्स का ‘ना’ देखा था। अस्मिता और इज्जत बचाने के लिए नारी का मर्द को कहा जाने ‘ना’। आरा की अनारकली का ‘ना’ भी वैसा ही है। लेकिन बस वो बिहार के आरा की है, ऑर्केस्ट्रा में नाचती-गाती है।

फिल्म के डायरेक्टर-राइटर अविनाश दास का ये डेब्यू है। लेकिन उन्होंने मंझा हुआ काम किया है। फिल्म कसी हुई है और परत दर परत सलीके से खुलती जाती है। कहीं आपको बोरियत नहीं होती। न आप फिल्म के अंजाम का अंदाज़ा लगा लेते हैं। फिल्म की लोकेशन्स इत्ते रियलिस्टिक हैं कि स्वरा को उन गलियों से भी निकलते दिखाया गया है जहां गंदी नालियां हैं। डायरेक्टर खुद बिहार से हैं तो बिहार को और वहां की बोली, टोन, अंदाज़ को बारीकी से दिखा पाए हैं। रामकुमार सिंह के लिखे गानों के देसज व बिहारी बोल, फिल्म को और ज्यादा बिहारी बनाते हैं। पत्रकारिता से फिल्म लेखन में आकर तेजी से उभरते रामकुमार ने इस फिल्म से एक्टिंग में भी हाथ आजमाया है। उन्होंने ऑनस्क्रीन पत्रकार का छोटा सा रोल निभाया है।

वहीं, स्वरा भास्कर ने ‘डर्टी पिक्चर’ की विद्या बालन सा बोल्ड करैक्टर प्ले किया है। स्वरा ने ‘रांझणा’ में साइड रोल कर अपनी एक्टिंग टैलेंट का देसज पहलू दिखाया था। ‘अनारकली ऑफ आरा’ में उन्होंने अपनी इस तरह के एक्टिंग टैलेंट का एक्सटेंड और अपग्रटेड वर्ज़न दिखाया है। कॉस्ट्यूम और बैकग्राउंड स्कोर फिल्म में बड़ा संतुलित है, कहीं अतिरेक कर अटपटा नहीं लगता। म्यूजिक के साथ भी ठीक ऐसा ही है। लिरिसिस्ट रामकुमार और डायरेक्टर अविनाश खुद भी पत्रकारिता से सिनेमा में आये हैं। इन्होंने इंडस्ट्री से बाहर के और नए होने के बावजूद अपनी मजबूत मजबूत एंट्री मारी है। इस फिल्म को ‘A’ ग्रेड जाने क्यों दिया गया है। जबकि फिल्म में न सेक्स है न मारपीट। बस बोल्ड संवाद है वो बिहार की भाषा-बोली से ही ली गई है। ‘A’ ग्रेड जैसा कुछ नहीं लगा, मैंने अपने से 10 साल छोटी बहन के साथ ये फिल्म देखने गया था।

हालांकि, रिलीज़ के पहले दिन स्क्रीन ऑडिटोरियम में दर्शक कोई 15-20 ही थे। उनमें ज़्यादातर भोजपुरी बैकग्राउंड के ही लग रहे थे। जो फिल्म के टाइटल और प्रोमो से जुड़ाव के कारण पहले दिन ही फिल्म देखने आये होंगे। हालांकि भोपाल में बिहार क्षेत्र के लोग भी कम हैं। और इस तरह की ऑफ बीट और देसी फिल्मों को ओपनिंग रेस्पॉन्स फीका ही मिलता है। जैसे-जैसे दर्शक और क्रिटीक उन्हें सराहते हैं, अच्छे और मीनिंगफुल सिनेमा के चाहने वाले फिल्म देखने जाते है। इस तरफ की अच्छी फिल्म अपने डेब्यू-डायरेक्शन, छोटे बैनर, लो-बजट, लो-प्रमोशन और लो-स्टारडम के बावजूद अच्छा बिज़नेस कर जाती है। उससे कहीं जरूरी… सराही जाती है।

अनारकली, बिहार में डबल मीनिंग भोजपुरी गानों पर होने वाले नचनिया डांस फॉर्मेट के स्टेज शो करती है। उसके इस पेशे, गाने-नाचने और पहनावे को उसके ढीले कैरेक्टर का सबूत माना जाता है। वहां की यूनिवर्सिटी का ठरकी वीसी उनमें सबसे ऊपर है, जो स्टेज पे ही अनारकली से छेड़छाड़ और जबरदस्ती करने लगता है। अस्मिता की पक्की अनारकली वीसी को स्टेज पे ही तमाचा जड़ देती है। ठरकी वीसी अपनी हवस और बेइज्जती का बदला लेने के लिए कई बार उसे घेरता व दबाव बनाता है। लेकिन अनारकली टूटती, झुकती नहीं है। हर बार उसे मजबूती से ‘ना’ कह देती है।

खिसियाये वीसी और पुलिस के तमाम दबावों के बाद भी अनारकली अपनी इज्जत बचाये रहती है और घुटने नहीं टेकती। फिल्म के आखिर में वो वीसी को सरेआम स्टेज पे ही बेनकाब कर अपना बदला लेती है। और स्टेज से उतरकर अनारकली कहती है- “ये रंडी की ‘ना’ है भिसी साब।”

ये हैं वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा…

आरा में अनारकली को देखने के लिए सिनेमा हाल में बमुश्किल बीस लोग थे…

Gunjan Sinha : सन्दर्भ आरा की अनारकली. देखा मैं किसी विशाल प्राचीन मंदिर में हूँ. उसमे तमाम पुजारी नंगे हैं उनके यौनांग स्थाई रूप से उत्तेजित हैं. ऐसे ढेर सारे गोरे चिट्टे विशालकाय, सर घुटाए पुजारी जहाँ तहाँ बैठे गपिया रहे हैं. किसी को कोई एहसास नही कि वे नंगे हैं. उनमे से एक मुझे बाहर निकलने से रोक रहा है. मैं किसी तरह भाग आता हूँ तो देखता हूँ, मंदिर के बाहर बहती नदी के किनारे सड़क पर एक लड़की हांफती हुई बेतहाशा भागी जा रही है. नंग धड़ंग पुजारियों की भीड़ उसे पकड़ने के लिए दौड़ रही है. मेरी नींद खुल गई. पसीने से तर, और कंठ सूखा हुआ.. घडी में दो बज रहे थे.

आखिर ऐसा दुःस्वप्न मैंने क्यों देखा. माजरा तुरंत समझ में आ गया यह असर था ‘अनारकली ऑफ़ आरा’ का. मैंने कल शाम अविनाश दास की यह कृति देखी थी. मुक्त नही हो सका हूँ और शायद जीवन भर मुक्त नही हो सकूँगा – फिल्म से, अनारकली से, अनगिनत अनाम नर्तकियों के अस्मिता विहीन अस्तित्व के एहसास से, अस्मिता के लिए अनारकली के संघर्ष से, दीमक खाये खम्भों वाले प्राचीन परम्पराओं के मंदिर से, इस मंदिर के तमाम नंगे पुजारियों से, मुझे गिरफ्त में लेने की उनकी साजिशों से, बदहवास भागती लड़कियों के बेचैन कर देने वाले बिम्ब से – मैं मुक्त नहीं हो सका हूँ और जीवन भर मुक्त नही हो सकूँगा.

इस फिल्म के लिए अविनाश दास को और उनकी पूरी टीम को सलाम. फिल्म में सभी कलाकारों ने गजब का अभिनय किया है आखिरी दृष्यों में विद्रोही आक्रोश से भरा स्वरा का नृत्य, उसमे अभिरंजित अनारकली का दर्प अविस्मरणीय है. गीत के बोल और नृत्य-संगीत की गति में अनारकली की विद्रोही अस्मिता, उसकी भावनाओं का विस्फोट पूरी तरह व्यंजित हुआ है. मैं फिल्मों का शौकीन रहा हूँ. सोचता था कि अविनाश दास बक बक ज्यादा करते हैं, पता नहीं कैसी फिल्म बनाई है. लेकिन अब कह सकता हूँ, इतनी अच्छी फ़िल्में मैंने बहुत कम देखी हैं.

अक्सर ऐसा होता है, जिन्हें हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं उनकी क्षमता-प्रतिभा को महत्त्व तब तक नही देते जब तक उसे अमेरिका इंग्लैण्ड से सर्टिफेकट न मिले. मैं मानता हूँ, अविनाश के बारे में मैं ऐसी ही गलत फहमी का शिकार रहा हूँ. ये भी आशंका थी कि आरा में आरा की अनारकली का टिकट शायद पहले दिन ना मिले. लेकिन दुर्भाग्य ! ऐसी जिन्दा फिल्म देखने के लिए सिनेमा हाल में बमुश्किल बीस लोग थे. फिल्म को जितना प्रचार मिलना चाहिए, नही मिला है. हर लिहाज से बेहद मनोरंजक होने के साथ फिल्म में व्यंग्य है, असरदार सन्देश है. एक आग है, लेकिन अभागी जनता को न तो आग की जरुरत है, न सन्देश की. उसे जरूरत है उन नंगे पुजारियों की जिन्हें मैंने अपने दुःस्वप्न में देखा है.

फिल्म निर्देशक अविनाश दास से ‘भड़ास’ की बातचीत पढ़िए…

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