हम सफलता का मतलब क्या मानते हैं? किसी के लिए नौकरी, परिवार और मकान-दुकान में लगातार रमे रहना और बढ़ते जाना तरक्की है तो किसी के लिए नौकरियों को लात मार कर पहाड़, पर्यावरण, अपने जन के लिए लड़ना सफलता है. सफलता अंबानी के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना हो सकता है तो एक फकीर के लिए सब कुछ त्याग कर मस्त रहना ही सफलता है. आज के बाजारू दौर में जब माना जाने लगा है कि हर किसी का लक्ष्य पैसा है, सुख है, भौतिक लाभ है, वैसे में कुछ लोग ऐसे भी दिखते हैं जो इन सबसे अलग जीवन का मकसद वंचितों के पक्ष में खड़ा होना बना लेते हैं.
एमबीए की पढ़ाई कर समीर रतूड़ी ने दिल्ली में अच्छी खासी नौकरी छोड़कर उत्तराखंड के पहाड़ों-गांवों-पर्यावरण को बचाने के लिए जीवन समर्पित कर दिया. इस नौजवान ने मरणासन्न होने तक आमरण अनशन किया, जेल में बंद किया गया फिर भी नहीं झुका. झुकी तो उत्तराखंड सरकार जो खनन माफियाओं पर रोक लगाने के लिए मजबूर हुई. 11 सितंबर को दिल्ली में कांस्टीट्यूशन क्लब के स्पीकर हाल में समीर रतूड़ी को उनके अतुल्य नैतिक साहस और सामाजिक सरोकार के प्रति योगदान के लिए भड़ास मीडिया सरोकार सम्मान से नवाजा जाएगा.
(जेल, अनशन, आंदोलन… समीर रतूड़ी के संघर्षों का लंबा इतिहास है)
आइए, समीर रतूड़ी के जीवन के बारे में कुछ जानते हैं. 25 दिसंबर 1979 को जन्मे समीर रतूड़ी ने हाई स्कूल (1996) आल सेंट्स कान्वेंट स्कूल, टिहरी से की. इण्टर मीडिएट (1998) मार्शल स्कूल, देहरादून से किया. स्नातक BSc (2003) स्वामी राम तीर्थ कैंपस टिहरी से. स्नाकोत्तर MA (2005) अर्थशास्त्र स्वामी राम तीर्थ कैंपस, बादसाहिथौल से पूरा किया. इसके बाद MBA 2005-07 की पढ़ाई इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ प्लानिंग & मैनेजमेंट IIPM दिल्ली से पूरी की. 2006 में समीर रतूड़ी ने कॉर्पोरेट कंपनी में नौकरी शुरू की. वे एक निजी कंपनी में वाईस प्रेजिडेंट भी बने.
समीर ने 1989 में टिहरी बाँध विरोधी आंदोलन में जाने माने पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा जी के नेतृत्व में आंदोलन में कार्यकर्त्ता की भूमिका निभाई. 1992 में हिमालय बचाओ आंदोलन का सबसे कम उम्र का सदस्य बने. आंदोलनों की पुस्तकें बेच कर आंदोलन के लिए धन जुटाने का कार्य किया. 1992-2002 में हिमालय बचाओ आंदोलन के साथ जुड़े रहे और इसके अनेक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. 1995 में 16 जून को टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौरान टिहरी डैम साईट पर हुए भीषण लाठीचार्ज का शिकार लोगों में एक समीर भी थे. इनको इतना पीटा गया कि जेब में रखा 50 पैसे का सिक्का तक मुड़ गया. बाद में इसका नेशनल ह्यूमन राईट कमीशन ने संज्ञान लिया और दोषियों के खिलाफ प्रभावी कार्यवाही की.
1999 में GGIC टिहरी के जबरन नई टिहरी स्थान्तरण को ले के हुए विरोध में स्कूल की छात्राओं के साथ आंदोलन में शामिल हुए. 14 दिन का उपवास भी रखा. 2000 में टिहरी बाँध प्रभावित ग्रामीणों के विस्थापन के आंदोलन में ग्रामीणों के साथ शिरकत की. 187 ग्रामीणों के साथ 11 दिन तक कारावास में रहे. जेल में 11 दिन का उपवास रहे औरर इसी उपवास के दौरान अपने BSc फर्स्ट इयर का पेपर नई टिहरी जेल से टिहरी कैंपस में दिया. पशुलोक व पथरी में मिली जमीन इसी आंदोलन का परिणाम है.
2000-2005 तक कॉलेज की छात्र राजनीति में सक्रिय रहे. 2001 में टिहरी बाँध विस्थापितों के आंदोलन में एक बार पुनः 7 दिन के लिए कारावास हुआ. 2004 में टिहरी के पूर्ण जलमग्न होने पर नई टिहरी चले गए समीर. 2012 में हिमालय बचाओ आंदोलन का पुनर्गठन, युवाओं द्वारा संभाली गयी कार्य योजना. 2013 में “गाँव बसाओ- हिमालय बचाओ, हिमालय बचाओ- देश बचाओ” व “धार ऐंच पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा- खाला खाला” के नारों के साथ 18 दिन की शिवपुरी से मलेथा तक की पद यात्रा जो हेंवल घाटी, पौड़ीखाल, खास पट्टी होते हुए निकली. इस यात्रा ने लगभग 186 km की दूरी तय की. आपदा के बाद प्रभावित इलाको में भ्रमण कर राहत का कार्य किया. रामपुर व त्रियुगीनारायण इण्टर कॉलेज के छात्रो की मार्च 2014 तक की स्कूल फीस पी टी ए के माध्यम से दिलवाई.
(आंदोलन के दौरान पुलिस क्रूरता के शिकार समीर रतूड़ी)
2014 में “गाँव बसाओ-हिमालय बचाओ, हिमालय बचाओ- देश बचाओ” के तहत 28 दिन की पद यात्रा, मलेथा से गैरसैण जो लगभग 438 km की थी. 2014 में मलेथा में चल रहे स्टोन क्रेशर आंदोलन में सहभागिता दी. मलेथा में स्टोन क्रेशर के विरुद्ध चल रहे आंदोलन में जनवरी- फरवरी माह के दौरान 14 दिन का उपवास रखा. जून-जुलाई माह में 30 दिन का उपवास रखा. 30 दिन के उपवास के दौरान पहले 6 दिन व अंत के 4 दिन का निर्जल रह कर आंदोलन को निर्णायक भूमिका में पहुंचाने का सहयोग किया. 2015 में अक्टूबर माह में सरकार द्वारा भांग की खेती का लाइसेंस या वैधानिक स्वरुप दिए जाने के विरोध में 25 अक्टूबर से गोपेश्वर से डांडी मार्च निकाला गया जो 6 नवंबर को देहरादून पहुँचा. 8 नवंबर को 24 घंटे का उपवास रख सरकार की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह कर बदलाव की बयार का आह्वान किया. 18 फ़रवरी, 2016 को मलेथा आंदोलनकारियो के ऊपर लगे मुकदमों में जमानत लेने से इनकार के चलते जेल यात्रा की. 23 दिन की जेल यात्रा व 26 दिन की भूख हड़ताल के बाद सरकार को मलेथा आंदोलनकारियो के ऊपर से मुक़दमे वापस लेने को मजबूर होना पड़ा.
समीर रतूड़ी को यह अच्छी तरह समझ आ गया है कि वह जिन बदलावों के लिए लड़ रहे हैं, उसके लिए राजनीति में जरूरी है. इसी को देखते हुए उन्होंने आंदोलन में सहभागी गांव वालों और ग्रामीण महिलाओं को आगे करके एक राजनीतिक पार्टी का गठन किया है ताकि आगे आने वाले चुनावों में उत्तराखंड में जनता को एक नया विकल्प दिया जा सके. समीर रतूड़ी की जिद, जिजीविषा, सरोकार और जनता के प्रति समपर्ण को देखते हुए भड़ास4मीडिया ने उन्हें सम्मानित करने का फैसला लिया है.
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