अश्विनी कुमार श्रीवास्तव-
मुझे तो लगता है कि फाइनल में खुद कप्तान रोहित शर्मा के साथ ‘खेल’ हो गया है। वही खेल, जिसे खेलने का आरोप 1983 में पूर्व कप्तान सुनील गावस्कर की लॉबी के खिलाड़ियों पर लगा था। तब आरोप था कि तत्कालीन कप्तान कपिल देव के नेतृत्व में भारत को वर्ल्ड कप विजेता न बनने देने के लिए गावस्कर समेत उनकी लॉबी ने अपनी तरफ से एक के बाद एक खराब परफॉर्मेंस किया था।
अब चर्चा है कि वैसा ही कुछ खेल संभवतः इस फाइनल में भी हुआ है। फाइनल में यह अंदरूनी खेल क्यों हुआ? शायद इसलिए क्योंकि एक भी मैच में हारे बिना भारत को विश्व कप विजेता बनवाने का श्रेय रोहित शर्मा को मिलता और यह कई गुटों के लिए खतरे की घंटी था।
इसलिए क्योंकि फाइनल में जीत मिलने के बाद रोहित शर्मा और क्रिकेट जगत में उन्हें आगे बढ़ा रहे गुट का कद इतना बड़ा हो जाता कि उनके सामने हर कद्दावर गुट बौना लगने लगता। टीम के बाहर और टीम के अंदर, दोनों ही जगह इस जीत के बाद रोहित शर्मा और उनके गुट के सामने सब धराशाई हो जाते।
लोग सोचेंगे कि ऐसा है तो यह खेल हुआ कैसे? दरअसल, क्रिकेट में कौन किसकी तरफ से खेल रहा है और खिलाड़ी कौन कौन हैं, यह सभी को पता होता है मगर भारत के क्रिकेट जगत में चल रहे अंदरूनी खेल में ऐसा नहीं होता। इस खेल के असली खिलाड़ी न तो मैदान में आते हैं और न ही कोई यह जान पाता है कि कौन किधर से खेल रहा है।
इसलिए दावे से यह कहना कि कौन किस गुट का है, यह तो संभव नहीं है लेकिन लोग इस पर कयासबाजी बड़ी आसानी से कर लेते हैं।
मसलन शमी और पूर्व कप्तान विराट कोहली, ऐसे दो खिलाड़ी हैं, जिनका सिक्का वर्ल्ड कप के हर मैच में चला, सिवाय फाइनल के।
बैटिंग में टॉप पर मौजूद कोहली ने फाइनल में शतक नहीं मारा तो बॉलिंग में टॉप पर मौजूद शमी ने भी विकेट की झड़ी नहीं लगाई। जबकि अपने अपने इसी हुनर से फाइनल तक आते आते दोनों खिलाड़ियों ने अपनी अपनी जगह बैटिंग या बॉलिंग में वर्ल्ड कप में टॉप पर बना ली थी।
इसलिए फाइनल में न चलने से वर्ल्ड कप में उनकी टॉप पोजिशन, टीम इंडिया में उनकी अहम जगह, आईपीएल में उनकी कीमत या विज्ञापन आदि से होने वाली कमाई पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था। जाहिर है, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था लेकिन इंडिया के फाइनल में हार जाने से रोहित का नाम इतिहास के सबसे सफलतम कप्तान के रूप में दर्ज नहीं हो पाना था।
तो क्या शमी और कोहली को कप्तान रोहित से कोई खुन्नस थी? हो भी सकता है। क्या पता शमी को वर्ल्ड कप के शुरुआती मैचों में खेलने का मौका न मिलने का मलाल हो तो कप्तान रह चुके विराट को रोहित के अधीन कप्तान बने रहने का मानसिक कष्ट हो। ऐसे मलाल इंसानी स्वभाव का हिस्सा हैं, जिनसे कोई बच नहीं पाता।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इसी मलाल के कारण उन्होंने उसी ऑस्ट्रेलिया के सामने अपने औसत से भी नीचे की परफॉर्मेंस दिखाई, जिसे वर्ल्ड कप के पहले मैच में टीम इंडिया पहले ही हरा चुकी थी?
आखिर उन्होंने फाइनल में संघर्ष और जीत का वह जज्बा क्यों नहीं दिखाया, जो उन्होंने फाइनल से पहले हर मैच में दिखाया था?
फाइनल से पहले दो मैचों में लगातार शतक मारकर तेंदुलकर के रिकॉर्ड की बराबरी और फिर उसे तोड़ने वाले कोहली आखिर फाइनल में शतक क्यों नहीं मार पाए?
जबकि सेमीफाइनल के दौरान विराट के लिए कप्तान रोहित ने पूरी टीम को उनका सहयोग करने पर लगा दिया था ताकि वह तेंदुलकर के रिकॉर्ड को तोड़ सकें। इससे भारत का रन रेट भी उस मैच में नीचे आ गया था।
कोहली ने भी तेंदुलकर से आगे निकलने के लिए ऐसा जुझारूपन दुनिया को दिखाया कि न्यूजीलैंड जैसी मजबूत टीम के सामने, सेमीफाइनल जैसे अहम मैच में भी धीमे खेल कर रन रेट गिरने और भारत की हार की चिंता किए बिना केवल अपने शतक को हर कीमत पर पूरा कर लिया।
वह तो भला हो बाकी बैट्समैन का, जिन्होंने बाद में बेहद तेज खेल कर स्कोर इतना पहुंचा दिया कि न्यूजीलैंड तीन सौ के ऊपर बनाकर भी हार गई। वरना कोहली के शतक और रिकॉर्ड के चक्कर में भारत की टीम सेमीफाइनल में ही बाहर हो जाती।
इसी तरह शमी ने हार्दिक पांड्या के टीम से हटते ही एंट्री मिलने के बाद मत चूको चौहान जैसा जज्बा लगभग हर मैच में दिखाया और सिवाय फाइनल के , हर मैच में आग मूती। ऐसे ऐसे चमत्कार किए कि देर से एंट्री के बावजूद वह वर्ल्ड कप में सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले खिलाड़ी बन गए।
ऐसी धमाकेदार परफॉर्मेंस के बावजूद फाइनल में वह सिर्फ एक विकेट ले पाए !!! क्योंकि यहां उन्हें मत चूको चौहान जैसे जज्बे की जरूरत निजी तौर पर नहीं थी ? ऑस्ट्रेलिया के प्रतिद्वंदी बॉलर ने फाइनल में विकेट लेकर जब उनसे इस रिकॉर्ड में बराबरी कर ली तो शमी ने बाद में एक ही विकेट लिया और रिकॉर्ड वापस अपने नाम कर लिया!
बहुत से लोग यह नहीं मानेंगे कि खेल में कोई राजनीति है। उनका भोलापन वाकई अद्भुत माना जायेगा, यह देखकर भी कि स्टेडियम में अगर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दल बल के साथ केवल इसलिए बैठे थे कि जीत का सेहरा अपने सर पर बांध कर वह लोकसभा चुनाव में उतरेंगे।
ऐसी राजनीति से खेल चलेंगे तो खेल में भी ऐसी ही राजनीति दिखाई दे सकती है। क्योंकि विरोधी खेमा अच्छी तरह जानता होगा कि फाइनल में जीत दिलाकर रोहित गुटबाजी और राजनीतिक कबड्डी के सबसे बड़े अड्डे यानी भारतीय क्रिकेट जगत में कितने ताकतवर हो जाते।
इस एक जीत के बाद रोहित भाजपा और उसके समर्थकों के ही नहीं, पूरे देश के भी हीरो बन जाते।
ऐसे हीरो, जिनकी चमक के आगे वर्ल्ड कप जिताने वाले कपिल देव और धोनी भी फीके पड़ जाते …. हालांकि कपिल और धोनी का रंग तो भाजपा के रंग में रंगे क्रिकेट बोर्ड ने पहले ही उड़ा दिया था, जब स्टेडियम में इन दोनों पूर्व कप्तानों को बुलाया तक नहीं गया था।
ऐसे में ये दोनों दिग्गज खिलाड़ी अपने अपने गुट से तो नाराजगी जाहिर कर ही चुके होंगे, जब मीडिया पर आकर कपिल देव ने न बुलाने पर अपना गुस्सा दिखा ही दिया.
इसी तरह एक और खेल महारथी सौरभ गांगुली भी लाइम लाइट से बाहर हैं. जबकि गांगुली ने ही शमी को फर्श से उठाकर वर्ल्ड कप के अर्श का चमकता सितारा बनाया है. ऐसे में सौरभ गांगुली से शमी का रिश्ता शायद अंदरूनी खेल के अन्य हर कद्दावर खिलाड़ी से गहरा ही होगा।
कौन जाने सौरभ गांगुली, कपिल, धोनी आदि के गुट हैं या नहीं… यह भी नहीं पता कि भाजपा की आंख के तारे बने तेंडुलकर, द्रविड, गंभीर जैसे पूर्व क्रिकेटर के भी गुट हैं या नहीं…. लेकिन इतना जरूर सुनते आए हैं कि भारतीय क्रिकेट में राजनीति और गुटबाजी ने वर्ल्ड कप से बड़े बड़े खेल किए हैं।