फेसबुक के फ्रॉड 5 : जो वाकई में फ्री बेसि‍क्‍स है, वो फेसबुक के फ्री बेसि‍क्‍स में शामि‍ल नहीं है

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Rahul Pandey : मैं सोच रहा हूं उस वक्‍त और उस वक्‍त के रि‍जल्‍ट्स के बारे में, जब भारत के आम चुनाव कब होने चाहि‍ए, कैसे होने चाहि‍ए और क्‍यों होने चाहि‍ए और उसका रि‍जल्‍ट क्‍या होना चाहि‍ए, फेसबुक इस बारे में हमारे यहां के हर मॉल, नुक्‍कड़ और सड़कों पर बड़ी बड़ी होर्डिंग्‍स लगाएगा। यकीन मानि‍ए, तब भी उसका यही कहना होगा कि वो जो कुछ कह रहा है, सही कह रहा है क्‍योंकि उसके पास भारत में पौने एक अरब यूजर्स हैं। मेरी मांग है कि मुझे कान के नीचे खींचकर एक जोरदार रहपटा लगाया जाए ताकि मैं इस तरह की वीभत्‍स और डरा देने वाली सोच से बाहर आ सकूं। मेरे देश के लोगों के अंग वि‍शेष पर उगे बाल बराबर भी नहीं है ये कंपनी और कि‍सी देश के बारे में ऐसा सोच रही है…एक्‍चुअली हम ही ढक्‍कन हैं और सिर्फ घंटा बजाने लायक हैं, अक्‍सर थामने लायक भी।

ये पौने एक से एक अरब लोग भी उसी धोखेबाजी का शि‍कार होंगे, जि‍स धोखेबाजी को यूज करके फेसबुक ने ट्राइ को 32 लाख लोगों से मैसेज भेजवा दि‍ए और जि‍नने ये मैसेज भेजे, उन्‍हें ये पता ही नहीं कि ये मैसेब भेजवाकर फेसबुक आखि‍र करना क्‍या चाहता है। इतना ही नहीं, लोगों से धोखे से ट्राइ को मैसेज भेजवाकर बाकायदा प्रचार भी कि‍या जा रहा है कि इतने लोगों ने मैसेज भेजे। ये तो वही बात हुई कि आपके फेसबुक पर कहीं कि‍सी कोने से नि‍कलकर एक बक्‍सा (पॉपअप) सामने आए जि‍समें ये लि‍खा हो कि आप वि‍कास चाहते हैं या वि‍नाश।

ठीक उसी तरह से जैसे अभी की धोखाधड़ी फेसबुक ने 32 लाख लोगों से की कि आप फ्री में नेट चाहते हैं या पैसे देकर? जाहि‍र है कि आप वि‍कास को ही वोट देंगे और जहां आपने वि‍कास को वोट दि‍या, वो वोट सीधे मोदी से कनेक्‍ट हो जाएगा कि भैया, वि‍कास तो पप्‍पा ही पैदा कर सकते हैं। या फि‍र उस पार्टी से, जो कम्‍युनि‍केशन के इस गड़बड़घोटाले का समर्थन करता हो। इंडि‍यल आइडि‍यल की तरह इंडि‍यन प्राइम मिनि‍स्‍टर के लि‍ए कुछ तय समय के लि‍ए लाइन खुलेंगी और इसी से हमारे इस महान लोकतंत्र की *** मारने के बाद नया प्रधानमंत्री पैदा होगा। (शब्‍दों के लि‍ए माफी, पर कभी तो गुस्‍सा नि‍कालने दीजि‍ए)

मि‍स्र की घटना के बाद फेसबुक की इस हवाई आकांक्षा को और बल मि‍ला है कि वो परि‍वर्तन ला सकता है लेकि‍न ईमानदारी से दि‍ल पर हाथ रखकर कोई मुझसे कनफेस करे कि मि‍स्र में क्‍या सच में फेसबुक की वजह से बदलाव आया? और इतना ही बदलाव पर यकीन था तो जि‍तना पि‍छड़ा अफ्रीका और भारत है, मि‍स्र उससे भी कहीं ज्‍यादा पि‍छड़ा और बदलाव का इंतजार कर रहा है, वहां क्‍यों नहीं पहले इस योजना को लॉन्‍च कि‍या गया। जाहि‍र है, पूंजी अपनी अंर्तव्‍यवस्‍थात्‍मक समाज में कहीं भी कोई बदलाव अगर देखना चाहती है तो वो चेतना तो कतई नहीं हो सकती है, अर्धचेतनात्‍मक नशा जरूर हो सकता है… फेसबुक और क्‍या है भाई लोग?

खुद को दलि‍तों का नया मसीहा, पि‍छड़ों का तार्किक भगवान और वंचि‍तों का वि‍ष्‍णु समझने वाले कह रहे हैं कि फेसबुकि‍या फ्रॉड फ्री बेसि‍क्‍स पर उन्‍हें फि‍र फि‍र सोचना पड़ेगा क्‍योंकि उन्‍हें लगता है कि ये एक बड़ी आबादी की आवाज बुलंद करने का माध्‍यम हो सकता है। अबे अंबेडकर के आठवें झूठे अवतार, एक बेसि‍क बात तुम्‍हरी समझ में आती है या नहीं कि फेसबुक की फ्री सौ साइट बनाम दूसरी फ्री करोड़ों साइट्स का मामला है। या फि‍र जो नासमझी तुमने जबरदस्‍ती जाति के नाम पर ओढ़ रखी है, कोई कहेगा भी तो हटाओगे नहीं कि तुमको जाति वि‍शेष का कुछ वि‍शेष फायदा मि‍लता है।

अबे इतनी भी बेसि‍क बात समझ में तुम्‍हारी नहीं आ रही है कि फ्री बेसि‍क्‍स के नाम पर कुछ भी फ्री नहीं है, अगर कुछ फ्री है तो वो तुम्‍हारा वक्‍त है जि‍से तुम समाज में कहीं कि‍तने कार्यक्रमों में लगा सकते थे, कि‍तनी बातें कर सकते थे, लेकि‍न वो सबकुछ करने का तुम्‍हारा सपना फेसबुक एक फ्री के अनफ्री मायाजाल में लपेटकर खत्‍म कर रहा है। अबे फैशनेबल दलि‍त बुद्धजीवी के बाल, कब समझोगे कि पूंजीवाद कतई नहीं चाहता कि तुम एकदूसरे के आमने सामने आकर बात करो।

इंटरनेट पर वायरल होने के लि‍ए गूगल के कीवर्ड से भ्रष्‍टाचार का सपना संजोने वाले, अबे शर्म तो तुमको पहले भी नहीं आती थी कि दलि‍त होने के नाते जो चाहो उल्‍टा सीधा बोल लो जो अत्‍याचार के बहाने बेशर्मी से जायज ठहराओ, लेकि‍न तकनीकी समझ तुममें तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है। खासकर जब तुम ये बोलते हो कि तुम देखेगो। अबे घंटापरसाद, मोटा मोटा भी तुम्‍हारी समझ में नहीं आता कि एक का समर्थन करने पर तुम्‍हरे हाथ से दूसरे करोड़ों प्‍लेटफॉर्म छीने जा रहे हैं? उनको यूज करने का अभी का समान रेट डि‍सबैलेंस कि‍या जाने की तैयारी है? ससुर तुम्‍हरी बुद्धी का भगवान बुद्ध भी ठीक ना कर पाएंगे।

अपने यहां ब्‍लाक स्‍तर तक इंटरनेट की कनेक्‍टि‍वि‍टी, उससे मि‍लने वाली लगभग सारी जरूरी सुवि‍धाएं जैसे लेखपाल का हाल, कंपटीशन रि‍जल्‍ट्स, वोटर सर्विस, बीएलओ, ईआरओ, वि‍धायक नि‍धि का हाल चाल, मनरेगा, ग्रामीण आवास योजनाएं, उद्योग बंधु, नि‍वेश मि‍त्र, ब्‍लड डोनर लि‍स्‍ट, टेंडर वगैरह का हाल चाल एनआइसी पहले ही मुहैया करा रही है। क्‍या वजह है कि इसमें से एक भी प्‍वाइंट फेसबुक की फ्री बेसि‍क योजना में नहीं है। एम्‍स और देश के वि‍भि‍न्‍न मेडि‍कल कॉलेज पि‍छले पांच साल से आपस में कनेक्‍ट होने की सफल टेस्‍टिंग कर रहे हैं, इसमें भी फेसबुक अपने फ्री बेसि‍क्‍स से कोई डेवलपमेंट नहीं करना चाहता। बुजुर्गों की पेंशन और छात्रों को जो स्‍कॉलरशि‍प मि‍लनी होती है, एनआइसी पहले से ही सारी जानकारी दे रहा है, लेकि‍न ये भी इस फ्रॉडि‍ए फेसबुक के फ्री बेसि‍क्‍स में नहीं है।

फेसबुक को समझना होगा कि ये साउथ एशि‍या है। चीन जापान से लेकर थाईलैंड, म्‍यामांर और भारत तक में गति में सुगति कछुए की मानी गई है जो गंत्‍व्‍य तक पहुंचाने की गारंटी है। और हमारी जि‍तनी औकात है, हम उतना कर रहे हैं। कम से कम पि‍छले पांच सालों में गावों से आने वाली सैकड़ों हजारों खबरों में लगातार आती एक खबर है कि सरकार गांव गांव में इंटरनेट की बेसि‍क सुवि‍धा मुहैया कराने के लि‍ए ट्रि‍पल पी योजना चला रही है और ये कैफे खुल भी रहे हैं। न सिर्फ खुले हैं बल्‍कि लोगों को इंटरनेट की बेसि‍क सुवि‍धा, जो हमारी खेती कि‍सानी, बैंकिंग से जुड़ी है, मुहैया करा रहे हैं। देश बड़ा है, काम करने वाले तनि‍क स्‍लो हैं, लेकि‍न ऐसा तो बि‍लकुल नहीं है कि काम नहीं हुआ है। कि‍सी भी जि‍ले के डीएम से बात कर लीजि‍ए, वो चुटकि‍यों में बता देगा कि अपने जि‍ले में उसने कि‍तने गावों में कंप्‍यूटर वि‍द इंटरनेट वि‍द ट्रेंड परसन फि‍ट कर दि‍ए हैं। फि‍टनेस के इस जमीनी काम का फेसबुक कहीं जि‍क्र भी जरूरी नहीं समझता।

सवाल उठता है कि क्‍यों? फ्री बेसिक्‍स में फेसबुक का कहना है कि वो सारी कमाई वि‍ज्ञापन के जरि‍ए करेगा। वि‍ज्ञापन बाजार का सीधा सा ट्रेंड है कि उनने वहीं पहुंचना है जहां उनका ग्राहक है। इसके अलावा उन्‍हें उनसे बाल बराबर भी मतलब नहीं, जो उनका ग्राहक नहीं है। ये ऊपर इंटरनेट से जुड़ी जि‍तनी चीजें बताई हैं, इन्‍हें प्रयोग करने वाले आज के बाजार के ग्राहक नहीं है। इन सारी योजनाओं से जि‍नका काम पड़ता है, उनका काम टोयेटा से लेकर नौकरी डॉट कॉम या फ्लि‍पकार्ट, डव शैंपू, जि‍लेट रेजर जैसी चीजों से आलमोस्‍ट नहीं ही पड़ता है। वो ईंट पर बैठकर दाढ़ी बनवाने वाले लोग हैं और बनाने वाले भी। यहां वि‍ज्ञापन का मार्केट नहीं है इसलि‍ए जो वाकई में फ्री बेसि‍क्‍स है, वो फ्रॉड फेसबुक के फ्री बेसि‍क्‍स में शामि‍ल नहीं है।

(जारी…)

Recently Facebook attempted to rebrand the evil its internet.org under the cover of support for the Digital India campaign and now it is doing the same in name of Free Basics. To know why free basics is an old wine in a new bottle have a look at AIB’s latest video. Save the internet and respond to TRAI now.

लेखक राहुल पांडेय प्रखर युवा पत्रकार और वेब एक्सपर्ट हैं. वे नेट न्यूट्रलिटी मुद्दे पर अपने फेसबुक वॉल पर सिरीज लिख रहे हैं. उनसे एफबी पर संपर्क https://www.facebook.com/bhoya के जरिए किया जा सकता है.

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