किरण बेदी का पुलिसिया अंदाज़ देखकर मैं हैरान था : रवीश कुमार

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सुबह के 5 बज रहे थे तभी सुशील का फोन आया कि बैकअप प्लान किया है आपने। सुशील मेरे शो के इंचार्ज हैं। बैक अप प्लान? हो सकता है कि आधा घंटा न मिले। इंटरव्यू के लिए तैयार होकर चाय पी ही रहा था कि सुशील के इस सवाल ने डरा दिया। प्राइम टाइम एक घंटे का होता है और अगर पूरा वक्त न मिला तो बाकी के हिस्से में क्या चलाऊंगा। हल्की धुंध और सर्द भरी हवाओं के बीच मेरी कार इन आशंकाओं को लिए दफ्तर की तरफ दौड़ने लगी।

गाज़ीपुर से निज़ामुद्दीन पुल तक कांग्रेस, बीजेपी, आम आदमी पार्टी के होर्डिंग तमाम तरह के स्लोगन से भरे पड़े थे। सियासी नारों में सवालों की कोई जगह नहीं होती है। नारे जवाब नहीं होते हैं। मैं दफ्तर पहुंच गया। कैमरामैन मोहम्मद मुर्सलिन अपने साज़ों-सामान के साथ बाहर मेरा इंतज़ार कर रहे थे। जिस रास्ते से राष्ट्रपति ओबामा को सिरी फोर्ट आडिटोरियम पहुंचना था उसी से लगा है उदय पार्क जहां किरण बेदी रहती हैं। इसलिए हम सुरक्षा जांच के कारण जल्दी पहुंच जाना चाहते थे ताकि हमारी वजह से किरण बेदी को इंतज़ार न करना पड़े।

किरण बेदी समय पर ही बाहर आईं। इतनी तेज़ी से घर से निकलीं कि दुआ सलाम का भी ठीक से वक्त नहीं मिला। हम उनके साथ-साथ बल्कि पीछे-पीछे भागते चले गए। वैसे इनकी फुर्ती देखकर अच्छा लगा कि वे इस उम्र में भी फिट हैं। इसीलिए मेरा पहला सवाल ही यही था कि क्या आप राजनीति में खुद को फिट महसूस करने लगी हैं। जवाब में किरण बेदी खुद को पोलिटिकल साइंस का विद्यार्थी बताने लगीं। मुझे हैरानी हुई कि पोलिटिकल साइंस का स्टुडेंट और टीचर होने से ही क्या कोई राजनेता बनने की क्वालिटी रखता है या फिर इतनी जल्दी राजनीति में फिट हो जाता है। खैर किरण बेदी इस जवाब के बहाने अपने अतीत में चली गईं। उन्हें लग रहा था कि अतीत में जाने से कोई उन पर सवाल नहीं कर सकता। उनका अतीत ज़रूर अच्छा रहा होगा, लेकिन राजनीति तो आज के सवालों पर नेता का नज़रिया मांगती है।

दस मिनट ही इंटरव्यू के लिए मिला। मुश्किल से बारह मिनट हुआ, लेकिन मैंने बीस मिनट के लिए कहा, लेकिन वो भी नहीं मिला फिर इस भरोसे शुरू कर दिया कि नेता एक बार कहते हैं फिर इंटरव्यू जब होने लगता है कि पांच दस मिनट ज्यादा हो जाता है। मगर समय की पाबंद किरण बेदी बीच-बीच में घड़ी भी देखती रही हैं और इंटरव्यू के बीच में यह सोचने लगा कि प्राइम टाइम अब किसी और विषय पर करना होगा। सिर्फ किरण बेदी का इंटरव्यू चलाने का प्लान फेल हो चुका है। सुशील की बात सही निकली है। यह सब सोचते हुए मेरा ध्यान सवालों पर भी था। मेरे सवाल भी किरण बेदी के दिए वक्त की तरह फिसलते जा रहे थे। रात ढाई बजे तक जागकर की गई सारी तैयारी अब उस कागज में दुबकने लगी, जिसे मैं कई बार मोड़कर गोल कर चुका था।

हम दोनों भाग रहे थे। वो अपने वक्त के कारण और मैं अपने सवालों के कारण। सब पूछना था और सब जानना था। ऐसा कभी नहीं होता। आप पंद्रह मिनट में किसी नेता को नहीं जान सकते। किरण बेदी का पुलिसिया अंदाज़ देखकर हैरान था। इसलिए मैं बीच बीच में एक्सेलेंट बोल रहा था, मुलेठी का ज़िक्र किया। गला खराब होने पर मुलेठी खाई जाती है। देखने के लिए इस टोका-टाकी के बीच बेदी एक राजनेता की तरह बाहर आती हैं या अफसर की तरह। मुझे किरण बेदी में आज से भी बेहतर राजनेता का इंतज़ार रहेगा।

आपने इंदिरा गांधी की कार उठाई थीं। उनका पीछा करते-करते ये सवाल क्यों निकल आया पता नहीं। लेकिन किरण बेदी क्यों ठिठक गईं ये भी पता नहीं। नहीं, मैंने नहीं उठाई थी। बिजली की गति से मैं यह सोचने लगा कि तो फिर हमें बचपन से किसने बताया कि इंदिरा गांधी की कार किरण बेदी ने उठा ली थी। पब्लिक स्पेस में धारणा और तथ्य बहुरुपिये की तरह मौजूद होते हैं। अलग-अलग समय में इनके अलग-अलग रूप होते हैं। किरण बेदी ने कहा कि मैंने कार नहीं उठाई थी। निर्मल सिंह ने उठाई थी जो एसीपी होकर रिटायर हुए। तो फिर निर्मल सिंह हीरो क्यों नहीं बने। दुनिया निर्मल सिंह की तारीफ क्यों नहीं करती है। कोई राजनीतिक पार्टी निर्मल सिंह को टिकट क्यों नहीं देती है।

इस इंटरव्यू की कामयाबी यही रही कि एक पुराना तथ्य उन्हीं की जुबानी पब्लिक स्पेस में आ गया। किरण बेदी ने कहा कि कार निर्मल सिंह ने उठाई मगर मैंने निर्मल सिंह पर कोई कार्रवाई नहीं की। मैंने कोई दबाव स्वीकार नहीं किया, पर सवाल उठता है कि पीएमओ की कार का चालान होने के लिए कोई किरण बेदी या निर्मल सिंह पर दबाव क्यों डालेगा। किरण बेदी ने खुद कहा कि वह कार इंदिरा गांधी की नहीं थी। प्रधानमंत्री की नहीं थी। जिस वक्त निर्मल सिंह ने कार का चालान किया उसमें इंदिरा गांधी नहीं थी। जब मैंने किरण बेदी से पूछा कि क्या वो कार प्रधानमंत्री के काफिले में चलने वाली कार थी। तो जवाब मिला कि नहीं। तब वो कहती हैं कि वो कार पीएमओ की कार थी। कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि प्रधानमंत्री के दफ्तर में कितनी कारें होती होंगी।

बहुत दिनों से चला आ रहा एक मिथक टूट गया। अब हम इस सवाल के बाद फिर से भागने लगे। हम सबको समझना चाहिए कि चुनाव के वक्त नेता के पास बिल्कुल वक्त नहीं होता। किसी नेता इंटरव्यू के लिए वक्त दिया उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हर कोई करता है। तीस मिनट का समय देकर पांच मिनट कर देता है या अंत समय में इंटरव्यू देने से मना कर देता है। इस लिहाज़ से मैं उस वक्त हर बचे हुए समय में एक और सवाल कर लेना चाहता था।

आखिरी सवाल था सूचना के अधिकार से जुड़ा। जिसकी चैंपियन किरण बेदी भी रही हैं। अरुणा राय, शेखर सिंह, अरविंद केजरीवाल, जयप्रकाश नारायण इस बात को लेकर लड़ते रहे हैं कि राजनीतिक दलों को बताना चाहिए कि उन्हें चंदा कौन देता है और कितने पैसे मिलते हैं। जब ये सवाल हम प्राइम टाइम में पूछा करते थे कि ये सभी नाम जिनमें किरण बेदी भी शामिल हैं बीजेपी और कांग्रेस पर खूब हमला करते थे, लेकिन बीजेपी में आकर किरण बेदी ने तुरंत सर्टिफिकेट दे दिया कि पार्टी में फंडिंग की प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी है। मुझे यह भी पूछना चाहिए था कि क्या बीजेपी अपने नेताओं को फंडिंग की प्रक्रिया की कोई फाइल दिखाती है। क्या किरण बेदी को ऐसी कोई फाइल दिखाई गई। पर खैर। जवाब यही मिला कि सूचना के अधिकार के तहत राजनीतिक दलों से चंदे और खर्चे का हिसाब मांगने के सवाल पर किरण बेदी पलट चुकी हैं।
 
पूरा इंटरव्यू इतने कम समय और इतनी रफ्तार के साथ हुआ कि मुझे भी पता नही चला कि मैंने क्या पूछा और उन्होंने क्या जवाब दिया। हम बस मोहम्मद और सुशील के साथ यही बात करते रहे कि कितने मिनट की रिकार्डिंग हुई है। अब हमें कितना और शूट करना होगा। किरण बेदी के पीछे भागते-भागते मेरा दिमाग़ इसमें भी अटका था कि कहीं कैमरे संभाले मोहम्मद गिर न जाएं। कैमरामैन की आंख लेंस में होती है। भागते हुए शूट करना आसान नहीं होता। शुक्रिया मोहम्मद मुर्सलिन। ट्वीटर पर इस इंटरव्यू को ट्रेंड करते हुए अच्छा भी लगा और डर भी। इस इंटरव्यू को लेकर ट्वीटर की टाइम लाइन पर डब्लू डब्लू एफ का मैच शुरू हो गया है। मैं इसे लेकर थोड़ा आशंकित रहता हूं। मैं सुपर जर्निलिस्ट नहीं हूं। मुझे इस सुपर शब्द से ताकत की बू आती है। मुझे ताकत या पावर पसंद नहीं है।

जाने-माने टीवी जर्नलिस्ट, मशहूर एंकर और एनडीटीवी के संपादक रवीश कुमार के ब्लाग से साभार.

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Comments on “किरण बेदी का पुलिसिया अंदाज़ देखकर मैं हैरान था : रवीश कुमार

  • Rao Shafat ali says:

    उस इंटरविउ के लिय आपकी तयारी की बात तो अलग हे लकिन शायद किरण बेदी उस इंटरविउ से पहले भी नही सो पाई थी क्योकि उन्हें पता था की आप जेसा धरती पकड़ पत्रकार सुबह उनका दरवाजा खटखटाने वाला हे
    और शायद बेदी जी आज भी नही सो पा रही होंगी वो आज भी आपके उन सवालों के भवर में उलझी होंगी
    आदरणीय रविश कुमार जी में आपका कोई बहुत बड़ा प्रसंशक तो नही हु
    लकिन कभी कभी आपको सुन और देख लेता हु आपके प्राइम शो में पर इतना जरुर हे की उस इंटरविउ में आप का मुलेठी वाला शब्द आपके दिमाग में चल रहे सवालों का गला जरुर खराब कर रहा था
    ये सच हे की उस दिन किरण बेदी के तमाम जवाब और बोडी लैंग्वेज वाकई बेतुके नजर आ रहे थे और अखीर हो भी क्यों न पत्रकारिता का भीष्मपितामह जब सामने ज्वालामुखी से सवाल लेकर सादगी से हु हु करता हुआ सामने खड़ा हो
    पर ये भी हकीकत हे की कम समय में जियदा पूछने और दर्शको को परोसने का ख्याल आपको भी कुछ असहज महसूस करा रहा था पर कमाल आपका भी की आपने भी सवालों से डरी हई किरण बेदी जी का पीछा नही छोड़ा आप तो किरण बेदी के पुलिसिया अंदाज से भी दो कदम आगे निकले |
    एक कहावत हे की” झूटे को झूटे के घर तक छोड़कर आओ वो भी कुंडा लगाकर ”

    क्षमार्थी
    राव –

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  • rajesh bharti says:

    सच सामने लाने और मुखोटा उतारने के लिए शुक्रिया रविश जी.

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  • sandip thakur says:

    यू टर्न लेने, तेवर दिखाने में महारथ है किरण बेदी को
    हाल ही में भाजपा में शामिल हुई पूर्व महिला आईपीएस किरण बेदी को भले ही मीडिया का एक वर्ग सुपर कॉप और वंडर लेडी के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा हो मगर सच ये भी है कि भाजपा की भावी मुख्यमंत्री का अतीत विवादों से भरा पड़ा है। मौके की नज़ाकत के अनुसार यू टर्न लेने का उनका पुराना इतिहास हैं। किरण बेदी का पूरा कैरियर यू टर्न से भरा पड़ा है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले किरण बेदी ने कई बार ट्वीट करके कहा था कि कोर्ट ने भले ही मोदी को क्लीन चिट दे दी हो लेकिन एक दिन उनको गुजरात दंगों के लिए देश की जनता को जवाब देना पड़ेगा।
    खबर के मताबिक उनका दूसरा यू टर्न यह है कि दिल्ली में वकीलों पर जबरन लाठीचार्ज कराने के लिए उन्हें जांच कमेटी का भी सामना करना पड़ा था। जिसके बाद यह फैसला लिया गया था कि आगे से उन्हें दिल्ली में कोई पद नहीं दिया जाएगा। इसके अलावा उन्हें पब्लिक डीलिंग वाली संवेदनशील पद न देने का भी जांच कमेटी ने फैसला लिया था। यही कारण था की किरण बेदी को वरिष्ठ होते हुए भी उनसे दो साल जूनियर अधिकारी को दिल्ली पुलिस का उन दिनों कमिश्नर बनाया गया। यह एक नीतिगत फैसला था न कि राजनितिक। भाजपा की राजनीति सँभालने के बाद किरण बेदी अपने साथ हुए अन्याय को तो मार्मिक ढंग से पेश कर रही है लेकिन ये किसी को नहीं बता रही की अपने पद पर रहते हुए उन्होंने कैसी तानाशाही व अराजकता फैलाई थी।
    जुलाई 2007 में किरण बेदी मिजोरम की अपनी नियुक्ति से तीन महीने की लीव पर थीं और दिल्ली पुलिस कमिश्नर की प्रक्रिया भी चल रही थी उन्होंने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा था कि महिला होने के नाते उनके साथ पक्षपात किया जा रहा है। जब बेदी को उनका मनचाहा पद नहीं मिला तो उन्होंने ऎच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कर दिया जिसे सरकार ने स्वीकार कर लिया। उसके बाद लोगों ने भी यह कहना शुरू कर दिया कि बेदी के पास पूरी योग्यता थी लेकिन उन्हें मौका नहीं दिया गया।
    मिजोरम में पोस्टिंग के दौरान ही किरण बेदी एक विवाद में भी फंस गई थी । दरअसल उन्होंने अपनी बेटी को दिल्ली के लेडी हार्डिग कॉलेज में एमबीबीएस कॉलेज में एडमिशन दिलवाने के लिए मिजोरम कोटे का प्रयोग किया। जिसके बाद मिजोरम में उनके खिलाफ लोगों का गुस्सा सड़कों पर आ गया। कुछ दिन बाद उनकी बेटी ने भी एमबीबीएस की पढ़ाई छोड़ दी। इतना ही नहीं बेदी का विवादों से नाता यहीं समाप्त नहीं हुआ। अन्ना और केजरीवाल के साथ मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाली टीम अन्ना की एक महत्वपूर्ण सदस्य रही किरण बेदी का दामन भी भ्रस्ट आचरण में भी पाक साफ नहीं है। ये वाक्या आंदोलन के वक़्त का हैं। राष्ट्रपति पदक विजेता होने के कारण एयर इंडिया के विमान से यात्रा करने पर किरण बेदी को किराए में सत्तर फीसदी छूट मिलती पर वे जहां भी जाती है आयोजकों से पूरा किराया वसूल‍त‍ी है। इसी मुद्दे पर किरण बेदी के खिलाफ ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने उन दिनों एक खबर प्रकाशित की थी। खबर के मुताबिक किरण बेदी को एयर इंडिया के इकोनॉमी क्लास के किराए में 75 फीसदी की छूट हासिल है, लेकिन वह जहां भी सेमिनार में जाती हैं, उसके आयोजकों से पूरा किराया वसूलती हैं। यही नहीं इकोनॉमी क्लास में सफर करके वह आयोजकों से बिजनेस क्लास का किराया मांगती हैं।
    अखबार के मुताबिक उनके पास ऐसे 12 मामलों के सबूत हैं, जो 2006 से लेकर 29 सितंबर, 2011 के बीच के हैं। इन यात्राओं के चेक इंडिया विजन फाउंडेशन के खाते में जमा हुए, जिसकी मालकिन किरण बेदी हैं। अब इस तरह की करतूत भ्रष्ट आचरण है या देश और समाज सेवा ये आंकलन आप लोगों को करना है। इतना ही नहीं दिल्ली पुलिस के थाना स्तर के अधिकारी दबी ज़बान आज भी किरण बेदी के उन दिनों के किस्से बयान करने से नहीं चूकते जब वे दिल्ली में यातायात पुलिस की अधिकारी थी। मातहत बताते है की उन्हें बेदी किस तरह अपने एन जी ओ के लिए धन्ना सेठों से चंदे की रशीद काटने का दबाव डालती थी। आज भी दिल्ली पुलिस में किरण बेदी की छवि कांस्टेबल से ऊपर के पुलिस वालों में एक तानाशाह अफसर जैसी है जिसका असर उनके ऊपर आज भी मौजूद है।

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  • कुंवर समीर शाही says:

    अच्छा हुआ रवीश जी ..अगर आपने ये साक्षात्कार न किया होता तो इतने बड़े राज़ से पर्दा ही नही उठता ..

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  • Gaurav Raghav says:

    chaliye apke is interview ke bad varshon se hamare man me jo mithak tha wah bhi door ho gaya bachman me ham kiran Bedi ki bahaduri ka jo kissa suna karte the uska sach samne aa aya iske ke liye apka or kiran bedi ji ka shukriya

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