राजेंद्र जी हमारे हीरो थे। एक ऐसा हीरो जिससे बराबरी के स्तर पर बात की जा सकती थी, बक-झक किया जा सकता था। लड़ा-झगड़ा जा सकता था। 80 पार राजेंद्र जी से असहमत होकर, लड़-भिड़ कर भी उनका दोस्त बना जा सकता था। उनकी दुश्मनी भी सुहाती थी। खरी-खरी कहने-लिखने वाले राजेंद्र अपनी ही पत्रिका और मंच पर खरी-खोटी प्रहार झेल लेते थे। भयंकर निंदा और प्रहार को बर्दाश्त करने की अद्भुत तमीज थी उनमें। निंदा-आलोचना का रस लेते थे। सादर झेलते थे। विवाद को, निंदा को प्रायः आमन्त्रित करते थे। निर्मम आलोचना करते ही नहीं, सहते भी थे।
उनसे हमारा दोस्ताना १९९५-१९९६ से था। बहुत समझ न होते हुए भी, कभी-कभार पसंद न आते हुए, अतिवादी लगते हुए भी अक्सर पसंद आते थे वे। अतिवादी, आक्रामक, ‘पूर्वाग्रह’ वाले राजेंद्र बेहद लोकतान्त्रिक और दोस्ताना थे। हाँ, कोई भोले भाले लोकतान्त्रिक भी नहीं थे! मेरा परिचय कोई ऐसे-वैसे नहीं था। भौतिक परिचय, जान-पहचान ज्यादा नहीं थी। उनके शब्दों- अक्षरों से परिचय था, मार्फ़त हंस। वह नाम से मुझे भी जानते थे –इसका भी सुख बाद में मिला! हंस खरीदता था। उनके लिखे को पूरा पढ़ते और आधा-अधूरा समझते हुए, एक-दो आलेख, विमर्श पढ़-पढ़ा कर फिर हंस रख देता था। कहानियां अगले अंकों में प्रतिक्रियों को पढ़ने के बाद पढ़ता था। आज भी कहानी बहुत चाव से नहीं पढ़ता। चयन रहता है।
तो हंस के माध्यम से परिचय हुआ–राजेंद्र यादव नामक शख्स से। उनकी भाषा को लेकर गप्पें सुन रखी थीं कि वे कुछ भी लिख-लिखा देते हैं! अगड़म -बगड़म भी! नहीं, अक्सर अगड़म-बगड़म ही! ब्राह्मणवाद, सामंती मानसिकता, धार्मिक पाखंड, हिंदुत्व, ईश्वर, परंपरा, वेद-पुराण आदि पर उनके लिखे को पढ़ता तो तिलमिला जाता था। लेकिन मन ही मन लगता था कि सही तो लिखा है। यह अंदर की आवाज थी। अंतरात्मा सहमत थी स्त्रियों के प्रति ‘पूज्यन्ते ‘ की लीला और झोल-झाल को लेकर उनके किये प्रहार से। सब बराबर हैं, ईश्वर की संतान हैं। फिर भी हम बड़े हैं, पूज्य हैं के पाखण्ड को और साधनों पर कुंडली मार कर बैठे लोगो की समन्वयवादी ढोंग की पोल-पट्टी खोलते राजेन्द्रीय प्रहार से।
जिस परिवेश और तथा कथित संस्कार से निकल कर आया था -उसमे आज भी वह मानसिकता मौजूद है जिस पर राजेंद्र जी फरसा चलाते थे। यह हमारे विरुद्ध था। हालाँकि, जन्म, जाति, धर्म, राष्ट्र हमारे बस में नहीं है, सो मैं प्रमोद पाण्डेय हूँ। लेकिन मेरे पिताजी, सभी बड़े भाई.…बहन, माँ भी… ब्राह्मण बहुल गांव में जाति को लेकर, धार्मिक पाखंड को लेकर ‘सेकुलर’ थे/हैं ब्राह्मण होने के गौरव से…सिक्त होने के बावजूद प्रैक्टिकल धरातल पर मानवीय दृष्टि वाले रहे हैं। बाबा भी घोर पंडित और शक्ति साधक थे —लेकिन बिना नहाये नवरात्रि में पाठ करते थे, यदि उनका नहाने का मन नहीं करता था तो! मनुष्य को मनुष्य समझने, गाँव के सभी लोगो को चाचा, बाबा, भैया कहने का संस्कार मिला था। वह भी उस परिवेश में जब 80 साल का कोई बुजुर्ग किसी ब्राह्मण बालक के गोड़ लागते (प्रणाम करते) थे।
तो राजेन्द्रजी के लेखन का मैं धीरे -धीरे आदती होता गया। उनसे बौद्धिक दोस्ती-दुश्मनी बढ़ती गयी। कई बार क्रोध में उनको पत्र लिखता था। राजेंद्र जी का सारा आकाश, शाह और मात आदि पढ़ा, लेकिन उनके ‘आलतू-फालतू’ विमर्श और बहस में ही हमें सार्थकता नज़र आती थी। लगता था कि नहीं, वे सही कह रहे हैं। सो, नहीं भेजा। हाँ, कई प्रतिक्रियाएं छपी भी! लेकिन वह उन मुद्दों पर नहीं है, जिसको लेकर मेरा संस्कारी अहम् था। काफी बाद में काश मैं राष्ट्रद्रोही होता टाइप के उनके विलाप पर बहुत कड़ा पत्र लिखा था, संतुष्ट था अपनी आपत्तियों पर। पर नहीं भेज पाया। इतिहास, राजनीति, दर्शन, विज्ञान, साहित्य ने मेरे अर्द्ध सामंती मस्तिष्क को लगातार संशोधित और डी क्लास किया। मेरे ‘जघन्य’ मित्र हर्षवर्धन राय से राजेंद्र यादव के लिखे पर, उनके स्त्री, दलित, शोषित, अल्पसंख्यक विमर्श को लेकर बहुत बहसे होती थीं। राजेंद्र यादव को हम लोग ख़ारिज करते हुए बहस-विमर्श करते थे। लेकिन ले देकर यही होता था कि भाई क्या लिखता है राजेंद्र यादव! उनके उठाये जायज-नजायज सवालों ने हमें लिखने को उकसाया। सुन्दर-संस्कारी, पवित्र साहित्य से इतर जन सरोकार की प्रवाहमयी तार्किक भाषा राजेंद्र के लेखन से उपजे हुए चिढ से सीखने को मिला।
कई बार तो सिर्फ राजेंद्र यादव से मिलने के लिए हम लोग दिल्ली का प्लान बनाते थे, जैसे लोग लाल किला, क़ुतुब मीनार, अक्षरधाम देखने आते हैं। हाँ, वे हमारे लाल किला थे। लेकिन कभी दिल्ली आना नहीं हो पाया। अब जब बनारस से मेरठ 2005 में आ गए तो भी प्लान बनता रहा। टलता रहा। हाँ, सविता (लाइफ पार्टनर) प्रथम हंस कहानी कार्यशाला में शिरकत कर उनसे मिल चुकी थी–जब हम मेरठ में रहते थे।
अक्टूबर अंक में उसकी रिपोर्ट भी छपी। दरअसल, उनके शब्दों-अक्षरों से लगातार भेंट-मुलाकात होती रहती थी, विवाद-संवाद चलता रहता था। सो प्रत्यक्ष परिचय, मिलना यूं ही टलता रहा। एक बार बनारस में मिलना सम्भव हुआ, जब वे प्रेमचंद की १२५ वीं जयंती पर २००५ में आये थे। याद है पीले कुर्ते -पायजामे में थे वे। मैंने कहा आप हमारे हीरो हैं! बोले नहीं यार! बड़े प्यार से मिले। काशीनाथ जी ने परिचय कराया-अस्सी वाले के रूप में। संगोष्ठी में उनको देखना-सुनना अद्भुत रहा। लेकिन डिटेल मुलाकात की, परिचय की, मध्यवर्गीय, गांव के मन की आस अधूरी रही! मेरी रिपोर्ट, आलेख, प्रतिक्रिया बीच बीच में छपती रही। अभी मेरठ से तीन-चार महीने मैंने उन्हें फोन किया था हमारे पत्रकारिता के बच्चे उन्हें देखना-सुनना चाहते थे।
मैं उन्हें अपने विश्वविद्यालय सुभारती मेरठ बुलाना चाहता था। मैंने निवेदन किया कि बस दो घंटे लगते हैं दिल्ली से मेरठ। बोले, हाँ जानता हूँ, लेकिन देखो स्वास्थ्य ठीक नहीं है…. दो घंटे आने -जाने में तकलीफ होगी। फिर, मैंने जोर भी नहीं दिया। मैंने बोला आपकी स्वास्थय की चिंता हम सभी को है। आप जब एक दम फिट हो जाएंगे तो आगे देखा जायेगा! अब जब न चाहते हुए भी रोजी-रोजगार के घनचक्कर में दिल्ली/ नोएडा (अक्टूबर 2013 में) आना पड़ा तो हुआ कि चलो अब तो नजदीक आ गया, चलेंगे कभी बात करके मिल आवेंगे।
मयूर विहार फेज-3 तक बसेरा बनाकर भी फेज-1 तक जाना नहीं हो पाया। यह था, कि सविता और बच्चों समेत जायेंगे मिलने। उनके पास कुछ क्षण बैठेंगे, बिना उन्हें डिस्टर्ब किये! पर, उनकी अस्वस्थता को लेकर संकोच होता था कि न जाने कितने लोग आते जाते होंगे रोज—उन्हें क्या डिस्टर्ब करना। जब यहाँ रही रहे हैं तो मिल लेंगे! और वह औचक चल दिए। खटिया पकड़ निष्क्रिय नहीं हुए! हंस नवम्बर 2013 अंक की सम्पादकीय लिख कर, गोष्ठियों में शिरकत करते हुए…उनके चले जाने से काठ मर गया। लगता था कि कभी के उनके हीरो रहे अज्ञेय की तरह वह कभी जायेंगे नहीं! वह मरने के लिए नहीं हैं! हाँ, वे मरेंगे भी नहीं। सरोकार की पत्रकारिता और जीवंत-ज्वलंत हस्तक्षेप में वह बने रहेंगे–युगों युगो तक।
हाँ, मैं शायद भावुक हो रहा हूँ। दिल भारी हो रहा है। नहीं…भावुकता उनकी परम्परा नहीं है। भक्ति, पूजा, वाह-वाह राजेन्द्रीय परंपरा नहीं है। असहमति, वाद-विवाद, विमर्श, खरी -खोटी और सवाल उठाने की उनकी जिरह-बख्तर परम्परा हर तरह के पाखण्ड के विरुद्ध रही है। चाहे उसके जद में वे खुद ही क्यों न रहे हों। हंस नवम्बर अंक 31 अक्टूबर को हाथ में है। मेरे रिक्शा चालक दोस्त छोटेलाल जी से बोलकर मंगाया था। हंस की सम्पादकीय पढ़ रहा हूँ। अगले अंक में वह नहीं रहेंगे…. बहुत तकलीफदेह है स्वीकारना।
हाँ, अपने किये धरे और हमारी, हम सब की स्मृतियों में वे हंसते-खिलखिलाते रहेंगे! काश! यह जिंदगी रफ ड्राफ्ट होती के अफ़सोस से भरे हुए…मन्नू जी और रचना के प्रति किये ‘अन्यायों’ को उनके जैसा सतसाहसी ही स्वीकार सकता था!
अपने हीरो को, अपने लाल किले को प्रणाम!
*एक सांस्कृतिक संवाददाता की डायरी*
प्रमोद पाण्डे
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