श्याम मीरा सिंह-
रवीश की डाक्यूमेंट्री जब देखी थी तब दो दिन लगातार रोया था। रवीश के आसपास हो रही चीजें एकदम वैसे थीं जैसे हमारे इधर उधर घट रही हैं। रवीश जो जी रहे हैं वही समानांतर हम सब जी रहे हैं। किसी फ़िल्म से इतना अटेचमेंट सरल नहीं है। ये दुर्लभ है कि कोई सिनेमा इतना अफ़ेक्ट करने लगे।
बीते दिनों गलती से चमकीला देख ली। फ़िल्म के अंत में असल चमकीला और फ़िल्म के चमकीला का सीन रीक्रियेशन होता है। सिनेमाई दृष्टि से फ़िल्मकार ने इन सींस को जीवंत कर दिया। बाद में चमकीला को और सुना, और जाना, और पढ़ा। मैं ये नहीं कहता कि वो मुझे कोई अद्वितीय या असामान्य लगे, मगर चमकीला की पत्नी और चमकीला से अजीब सा अटेचमेंट हो गया। किसी से अटेचमेंट फील करने के लिए उसका महान होना कोई शर्त नहीं है, सामान्य व्यक्ति, आम जीवन के संघर्ष भी उतने ही खूबसूरत, सम्मानित हो और आत्मीय हो सकते हैं। इसलिए चमकीला के संगीत और उत्साह में अपना उत्साह लगा। उस उत्साह में एक खनक़ है, एक धमक है। जिसका अंत, दिल के अंदर कुछ टूटने जैसा लगा।
चमकीला और उसकी पत्नी के गीत, उसकी कहानी जानने के बाद जीवन के उत्साह को बनाने की ज़िद में लड़े जाने वाले घोषणा गीत महसूस पड़े। जैसे सिद्धू मूसेवाला के जाने के बाद उनके गीत भी भावनात्मक तौर पर झंकारने वाले लगने लगे। वैसे ही चमकीला की आवाज़ अब दिल पर अधिक वजन से गिरती है। शायद किसी के न होने की ख़बर उससे और अधिक निकटता लाती है। पिछले चार-पाँच दिन से चमकीला और उसकी पत्नी को अपने आसपास ही कहीं गाते हुए महसूस कर रहा हूँ।
ऐसा कालजयी सिनेमा बनाने के लिए इम्तियाज़ अली को बधाइयाँ और सलाम। चमकीला और अमरजीत के लिए खूब स्नेह, खूब प्यार, उनके माथे पर हज़ारों चुंबन…