डॉ. रुक्म त्रिपाठी
मेरे पूज्य भैया, मेरे गुरु मेरे अभिभावक डॉ. रुक्म त्रिपाठी नहीं रहे। आठ दशक का एक व्यक्तित्व पलक झपकते इतिहास बन गया। उत्तरप्रदेश के बांदा जिले के बिलबई गांव में 12 जुलाई 1925 को शुरू हुआ उनकी जिंदगी का सफर 2 नवंबर की शाम कोलकाता में थम गया। यों तो डेढ़ साल पहले भाभी निरुपमा त्रिपाठी के गुजरने के बाद ही वे टूट चुके थे। मन और धीरज से भी। उस वक्त रोते हुए बोले थे -मुझे अनाथ कर के चली गयी।
मैंने उनको ढांढस बंधाया कि आप अनाथ कैसे हो गये हम तो हैं। उनके शब्द थे- तुम लोग हो तो सहारा मिल गया वरना मैं भी नहीं बचता। उसके बाद से हमने कभी उन्हें अकेला या बेसहारा नहीं छोड़ा। जितना बन पड़ा इलाज भी कराया लेकिन एक तो मन की टूटन दूसरे बार्धक्यजनित कफ आदि रोग। वे निरंतर थोड़ा-बहुत बीमार रहने लगे थे। पिछले छह महीनों में दो बार नर्सिंग होम में भर्ती कराना पड़ा। घर में भी आक्सीजन वगैरह का प्रबंध था लेकिन यह प्राणवायु भी 2 नवंबर को काम न आयी। सांस लेने में उनकी तकलीफ इतनी बढ़ गयी कि उन्हें तत्काल नर्सिंग होम ले जाया गया लेकिन रास्ते में ही उनका निधन हो गया।
पराधीन भारत में उनका जन्म हुआ था। जितना बन पड़ा उन्होंने स्वाधीनत संग्राम में योगदान दिया। लाठियां खायीं, प्रताड़नाएं सहीं। लेकिन जब स्वाधीनता सेनानियों के लिए ताम्रपत्र दिया जा रहा था पेंशन दी जा रही थी, उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि हमने संघर्ष देश को स्वाधीन बनाने के लिए किया था, किसी सम्मान या धन प्राप्ति के लिए नहीं। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद उन्होंने गीत लिखा था जिसमें स्वाधीनता प्राप्ति के वार, दिन, नक्षत्र का वर्णन था। उसकी आखिरी पंक्ति थी-हिंद की गुलामी का रुक्म आज बेड़ा पार है। कवि सम्मेलनों में जब वे यह गीत गाते वहां उपस्थित जनसमूह आखिरी पंक्ति दोहरा देता था। वे जब तक बांदा में थे ” व्यथित” उपनाम से कविताएं लिखते थे। उन दिनों बालकृष्ण राव बांदा के कलेक्टर थे और स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। वे अपने यहां कवि गोष्ठियां करवाया करते थे जिनमें भैया भी भाग लेते थे। उनकी कविताएं सुन कर राव साहब बोले-क्या व्य़थित उपनाम रखा है तुम तो रुक्म (स्वर्ण) हो तुम यही उपनाम रखो।तब उन्होंने उनका सम्मान करते हुए यह नाम दिया। यह है रामखिलावन त्रिपाठी के रुक्म बनने की दास्तान।
कालांतर में वे कोलकाता चले आये और कई पड़ावों, कार्यों से गुजरते हुए आखिरकार पत्रकारिता और साहित्य सृजन को अपनी रोजी-रोटी का जरिया बनाया। कलकत्ता के पत्रकारिता और साहित्य जगत में कोई रामखिलावन त्रिपाठी ( भैया का वास्तविक नाम) नहीं जानता था लेकिन रुक्म जी के नाम से हिंदी पत्रकारिता जगत से जुड़ा हर व्यक्ति परिचित था। पूर्वी भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय दैनिक सन्मार्ग में उन्होंने आधी शताब्दी गुजारी जिस दौरान पत्र के साहित्य परिशिष्ट के संपादन के दौरान उन्होंने अक्सर नये रचनाकारों को प्रोत्साहित किया। पूछने पर कहते-प्रतिष्ठ जमे- जमाये लेखक तो हर जगह छप जाते हैं, नये लोगों को भी मौका दिया जाना चाहिए। वे ऐसा करते समय कई बार नये लेखकों की कहानी का पुनर्लेखन तक करते थे। इतनी उम्र में भी उनकी स्मृति शक्ति दुरुस्त थी और पलक झपकते कविता, कहानी लिख लेते थे। सन्मार्ग के “चकल्लस” स्तंभ में नियमित व्यंग्य कविता लिखते थे जो उन्होंने 2 नवंबर को भी लिखी जो पत्र के 3 नवंबर अंक में छपी। उनके स्तंभों में लिखने वाले बाल लेखक आज बड़े पत्रकार और पत्रों के संपादक हैं। वे उन्हें इतना आदर करते थे कि सम्मान से “गुरु जी” ही कहा करते थे।
उन्होंने असंख्य कविताएं, कहानियां और उपन्यास लिखे। उनके उपन्यास रोशनी और रोशनी, अंगूरी, बर्फ की आग,अनचाही प्यास, मेरे दुश्मन मेरे मीत, नीली रोशनी (जासूसी) बहुत लोकप्रिय रहे। उनके काले मन उजले लोग, बहकी राहें, नरोत्तम नारायणी धारावाहिक प्रकाशित हुए। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। मासिक-रूपवाणी, पागल, राजश्री, गल्प भारती, घरोवा, साप्ताहिक-स्क्रीन (हिंदी) स्वप्नलोक का संपादन किया। सन्मार्ग हिंदी दैनिक में साहित्य संपादन किया व महानगर सांध्य दैनिक के संपादक रहे। उन्हें कई सम्मान भी प्राप्त हुए। लायंस क्लब कोलकाता द्वारा पत्रकारिता के 50 साल पूरे होने पर सम्मान, विक्रमशिला विद्यापीठ भागलपुर की ओर से विद्यावाचस्पति की मानद उपाधि। पीयूष साहित्य परिषद पटना की ओर से पत्रकारिता सम्राट, राजश्री स्मृति न्यास से सम्मान, मनीषिका कोलकाता सारस्वत रचनाकार सम्मान।
मेरे लिए भैया का जाना सिर से उस वटवृक्ष के अचानक हट जाने के समान है जिसके रहते मैंने कभी खुद को असुरक्षित नहीं महसूस किया, उनके आशीष सदा जैसे मेरे साथ रहे। वे थे तो घर में किसी बड़े के होने का एहसास था। कुछ भी लिखता उनसे जंचा लेता था अब मैं नितांत अकेला रह गया हूं। आफिस से लौटने में देर होती तो फोन करने लगते, मेरे पहुंचने से पहले खाना तक नहीं खाते थे। अब वह प्यार, फिक्र करने का उनका वह अपनत्व कभी नहीं मिलेगा, यह सोच कर ही मन भर जाता है। जिस तरह कोई किसी को हाथ पकड़ कर सिखाता है उस तरह उन्होंने मुझे गीत, गजल कहानियां लिखना सिखाया। आज अगर मैं दो अक्षर लिख पाता हूं तो उनकी खातिर। सौभाग्यशाली रहा कि भाई के रूप में गुरु मुझे घर में ही मिल गये। भैया की कमी मुझे हमेशा सालती रहेगी। शायद उनके लिए उन लोगों की आंखें भी नम होंगी जो उनकी व्यंग्य कविता चकल्लस में पढ़ कर उनसे कहते थे कि-हमें लगता है कि जैसे कोई बुजुर्ग, कोई गुरु कविता की एक-एक पंक्ति से जमाने के ऊंच-नीच, अच्छे-बुरे से हमें आगाह कर रहा हो। उनकी और उन लोगों की भी स्मृति में वे रहेंगे जिनके वे जो हैं उस होने में उनका थोड़ा भी योगदान रहा हो।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 09433728973 के जरिए किया जा सकता है.
navin kumar rai
November 3, 2014 at 1:29 am
wakai mey sir ek badhiya margdarsak aur milansar insaan they unke sahayog ko har koi yaaad karega jo ek baar unsey mil chukka hoga