अनिल भास्कर-
जाना सबको है। सच तो यह है कि हम सब आए ही हैं जाने के लिए। फिर भी सहाराश्री का जाना घंटों अविश्वसनीय लगता रहा। धीरे-धीरे इस सच को स्वीकार करने की तरफ बढ़ा तो सोशल मीडिया पर दो तरह की प्रतिक्रिया देखी। सहारा इंडिया परिवार के अभिभावक के तौर पर सकारात्मक, किंतु उनके व्यावसायिक पक्ष को लेकर नकारात्मक। जनता हूं यह नकारात्मक प्रतिक्रिया दरअसल कम्पनी के लड़खड़ाने और फिर आहिस्ता आहिस्ता गर्त में जाने से जमाकर्ताओं को हो रहे वित्तीय नुकसान की उपज है।
फिलहाल मैं सहाराश्री की कारोबारी कार्यकुशलता, दूरदृष्टि, तौर-तरीके या उपलब्धियों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि मात्र दो हजार की पूंजी से सिर्फ दो दशक में एक लाख करोड़ की परिसम्पत्ति और 12 लाख कर्मयोगियों वाले विशाल कम्पनी का निर्माण व्यावसायिक अजूबे से कम नहीं था।
अंततः वह नाकाम साबित हुए, लेकिन मालिक के तौर पर कम्पनी और कर्मचारियों के लिए वे जिस तरह समर्पित रहे, वह उनके कद को विराट बनाता है। इतनी विशाल कम्पनी को कम्पनी के बजाय उन्होंने परिवार कहा। सिर्फ कहा ही नहीं, परिवारवाद की अवधारणा को साकार भी किया। बेहद संवेदनशील अभिभावक की तरह छोटे से लेकर बड़े सदस्यों का खयाल रखा। उनके हित और उसकी रक्षा के लिए किसी भी हद तक गए।
उनके मीडिया हाउस की प्रमुख शाखा ‘राष्ट्रीय सहारा’ को मैंने पूरे 14 साल दिए। इन बरसों में ऐसे अनेक मामलों का खुद साक्षात्कार किया जो अपने आप में शानदार किस्से के तौर पर कहे-सुने जा सकते हैं। इस पोस्ट में सिर्फ दो खास बातों का उल्लेख करना चाहूंगा। पहला, जिस दौर में प्राइवेट सेक्टर में कर्मचारियों को वेतन अगले महीने के पहले और कभी कभी दूसरे हफ्ते मिला करता था, उन्होंने कानून से भी सख्त नियम बनाया कि वेतन हर हाल में उसी माह की आखिरी तारीख से पहले कर्मचारियों के खाते में पहुंच जाए।
दूसरे, जब आर्थिक मंदी के दौर में हर तरफ छंटनी की तलवारबाजी चल रही थी, उन्होंने एक-एक कर्मचारी की रक्षा का संकल्प जिया। यह जानते हुए भी कि यह कम्पनी के वित्तीय हितों के प्रतिकूल है, उन्होंने परिवारवाद को सर्वोपरि रखा। ये फैसले एक कम्पनी के मालिक नहीं, किसी परिवार के मुखिया ही ले सकते थे। अपने कर्मचारियों को उन्होंने हमेशा अपने समकक्ष खड़ा किया। या फिर खुद को उनके समकक्ष। इसलिए सभी कार्यकर्ता कहलाए, यूनिफार्म पहने और अभिवादन के लिए एक ही शब्दयुग्म दोहराए-सहारा प्रणाम।
सहाराश्री ने आलीशान ऑफिस बनवाए और हर ऑफिस में कर्मचारियों के लिए कैंटीन की व्यवस्था अनिवार्य रूप से की, जहां कम्पनी अनुदान की मदद से बेहद सस्ती दरों पर चाय से लेकर लज़ीज़ भोजन उपलब्ध रहता था। जब 1991 में नोएडा से राष्ट्रीय सहारा अखबार के प्रकाशन की शुरुआत हुई तो सेक्टर 11 में भव्य कार्यालय परिसर तैयार किया गया।
अपनी भव्यता के लिए यह देशभर के मीडिया जगत में बरसों चर्चा का विषय बना रहा। कालांतर में यह बाकी मीडिया हाउस के लिए भी प्रेरणास्रोत बना और उन्होंने अपने पारंपरिक दफ्तरों को नया स्वरूप देना शुरू किया। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि सहाराश्री ने तमाम उद्योगपतियों को कम्फर्टेबल-एंजोएबल ऑफिस के कॉन्सेप्ट से अवगत कराया। यह अपनी तरह की एक नई कार्यसंस्कृति की शुरुआत थी।
क्रमशः