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सुख-दुख

मेरी थ्योरी ये है कि सहारा में बड़ा पैसा नेताओं का पार्क किया हुआ था!

मनीष सिंह-

कहानी बताने के कई तरीके हो सकते है। पैसे जुटाने के भी। आप कोई धंधा करना चाहें, तो पब्लिक से पैसा उठाने के लिए कुछ नियमो का पालन करना पड़ता है। पहला ये ये कि बैंक के पास जाइये। पब्लिक ने वहां पैसा भरके रखा है, लोन ले लें।

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दूसरा ये की कम्पनी शेयर बाजार में लिस्ट कराइये, फिर जनता से पैसा इकट्ठा कीजिए। पर ये इतना आसान नही। फिर बैंक और सेबी से बचना हो, तो तीसरा तरीका, पोंजी स्कीम है।

सीधे धन लीजिए, किसी धन्धे में लगाइये, मुनाफा कमाइये, लौटा दीजिए। ये अब इल्लीगल है। क्योकि ज्यादातर लोग लौटाते नही, गायब हो जाते थे।

सहारा ने उसी मॉडल से शुरू किया। लोगो से घूम घूम कर पैसे लिए। अच्छा ब्याज देते, समय पर देते।

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परिश्रम और ईमानदारी के बूते दायरा बढाया। कभी खुद लम्ब्रेटा स्कूटर में दौड़ दौड़ कर थोड़ी थोड़ी बचत जमा करने वाले सुब्रत ने लाखो एजेंट बनाये, करोड़ो इन्वेस्टर का अरबों रुपया इकट्ठा किया।

अपने तमाम धंधों को फाइनांस किया। वित्त होटल, रियल एस्टेट, एयरलाइंस – सुब्रत रॉय बड़े आदमी बन गए।

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तमाल बंदोपाध्याय की किताब पढ़ी जानी चाहिए। फाइनांस नियमो में बदलाव और उससे प्रभावित हुई कंपनियों के दो उदाहरण दिए है।

पहले कुछ पन्नो में कलकत्ता के “पियरलेस” की कथा है, जो सक्सेस स्टोरी है। सहारा की कहानी आगे आती है। जो कानूनी बदलावों के साथ बदलने में प्रतिरोध करती है।

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कानूनी बदलाव ये, कि जब रिज़र्व बैंक ने वित्तीय व्यवसाय कम्पनियों को रेगुलेट करना शुरू किया, तो कुछ कैटेगरीज में बांटा।

बैंक, नॉन बैंकिंग फाइनांस कम्पनीज की कैटगरी बनाई। हर कैटगरी में नियम लाइसेंस सिस्टम बनाये। पर जिनका व्यावसायिक मॉडल किसी मे फिट न था, वे छूट गयी।

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तो चौथी कैटगरी थी- छूटी हुई नॉन बैंकिंग फाइनांस कम्पनी -Residual Non Banking finance company

सहारा, पियरलेस यही RNBC थी। कुछ दशक तक ये चला। फिर रिजर्व बैंक ने तय किया RNBC को अन्य कैटगरी में मर्ज किया जाए।

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पर इसका मतलब बिजनेस मॉडल को भी आमूलचूल बदलना था। पियरलेस बदल गया, सहारा ने इसमे कठिनाई महसूस की।

रो धोकर बदलाव किया, कम्पनी बनाई, तो उन्हें ये झमेला लगा। सिर पे सेबी बैठी रहती। पहले जैसी स्वतंत्रता न थी।

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वे कोआपरेटिव एक्ट में चले गए जहां सेबी का दखल नही होता। पर दिखाया कि हमने सब पैसा पब्लिक को लौटा दिया।

(जिन्होंने दोबारा हमारे कोऑपरेटिव में लगा दिया।)यह बात सेबी ने मानने से इनकार कर दिया। कहा पैसे हमे दो, लोगो के नाम दो, हम लौटाएंगे।

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सहारा कोर्ट गये। कोर्ट ने सेबी का साथ दिया। तो सहारा कोर्ट की हुक्म उदूली पर अड़ गए। फिर कंटेम्प्ट में जेल झेली।

मेरी थ्योरी ये है कि सहारा में बड़ा पैसा, नेताओ का पार्क किया हुआ था।

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पूँजी का एक बड़ा हिस्सा जेनुइन था, पर हजारों करोड़, एक्रॉस द पार्टी लाइन, नेताओ का भी पैसा था। जिससे हर पार्टी, हर प्रदेश में फेवर मिलते थे।

समस्या शुरू हुई- किसी एक पार्टी के पक्ष में ज्यादा झुकाव से।तो उनकी खुदाई शुरू हुई।

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जो विशाल धनराशि, उन्होंने फेक नामो से, छोटे छोटे एकाउंट बनाकर जमा दिखाये थे, जब सेबी ने नाम मांगे तो दें कहां से??

इस चक्कर मे जेनुइन इन्वेस्टर फंस गए। सहारा के खाते फ्रीज हो गए, उनका पैसा अटक गया। दशकों तक सुब्रत रॉय ने कभी इन्वेस्टर का पैसा डिफाल्ट न किया।

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मगर जब सारे खाते ही फ्रीज हो गए, तो बन्दा क्या करे।

सुब्रत रॉय सहारा, मेरी नजर में सम्मानित व्यक्ति है। वे जिस देश, जिस व्यवस्था में रहे, उस गेम के रूल से खेला। लाखो की जिंदगी में कुछ पॉजिटिव किया, अपने लिए वेल्थ बनाई।

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पर जब गेम के रूल बदल दिए गए। डिस्टर्ब किया गया, क्योकि उनको दी गयी चोट किसी और को भी लगनी थी।

अब कहानी बताने के कई तरीके हो सकते है। आप करप्शन के विरुद्ध जिहाद वाले एंगल से बता सकते हैं।

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मगर नोटबन्दी हो, या सहारा- इस युद्ध मे मरता गरीब हैं। करप्शन तो हमारी तासीर है। तो सोचिये कि ये पैसे सहारा में रहें, तो इंडियन इकॉनमी में ही घूमते, यहां के गरीबो को फायदा देते। कभी VDIS जैसी स्कीम से व्हाइट भी हो जाते।

पर अब तो स्विस बैंक और लन्दन ही नेताओ का सहारा है। पैसे मॉरीशस और केमैन के रस्ते व्हाइट होकर आते है, शेयर मार्किट में लगते है। चंद लोगो को लाभ होता है।

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पर असली सीख उन व्यवसायियों को है, जो बड़ा बनने के लिए राजनीतिक कनेक्शन का इस्तेमाल करते हैं।

नेताओ का टूलकिट बनते हैं।

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पर जब सत्ता की भृकुटि टेढ़ी हुई, तो छापों का दौर भी आता है। आपका आकार बड़ा हो, तो नियम कानून बदलकर आपको जमीन सुंघाई जा सकती है।

व्यवसायी के लिए, नेता की न अगाड़ी अच्छी, न पिछाड़ी अच्छी।

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लाखो जिंदगियां बदलने वाले सुब्रत राय सहारा को मेरा सलाम है।

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