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सेना को राजनीति में खींचने के ख़तरे… सर्जिकल स्ट्राइक्स को पब्लिक करने के खतरे…

Mahendra Mishra : सेना को लेकर मोदी सरकार बहुत खतरनाक खेल खेल रही है। यह कितना खतरनाक हो सकता है। शायद उसके नेताओं को भी इसका अहसास नहीं है। सेना सरहद के लिए बनी है। और उसका वहीं रहना उचित है। सेना एक पवित्र गाय है उसको उसी रूप में रखना ठीक होगा। घर के आंगन में लाकर बांधने से उसके उल्टे नतीजे निकल सकते हैं। क्योंकि आप अगर सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं। तो इसके जरिये वह भी राजनीति के करीब आती है। और इस कड़ी में कल उसको भी राजनीतिक चस्का लग सकता है। और एकबारगी अगर राजनीति का खून उसके मुंह में लग गया। तो फिर देश की राजनीति को उसके चंगुल में जाने से बचा पाना मुश्किल होगा।

<p>Mahendra Mishra : सेना को लेकर मोदी सरकार बहुत खतरनाक खेल खेल रही है। यह कितना खतरनाक हो सकता है। शायद उसके नेताओं को भी इसका अहसास नहीं है। सेना सरहद के लिए बनी है। और उसका वहीं रहना उचित है। सेना एक पवित्र गाय है उसको उसी रूप में रखना ठीक होगा। घर के आंगन में लाकर बांधने से उसके उल्टे नतीजे निकल सकते हैं। क्योंकि आप अगर सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं। तो इसके जरिये वह भी राजनीति के करीब आती है। और इस कड़ी में कल उसको भी राजनीतिक चस्का लग सकता है। और एकबारगी अगर राजनीति का खून उसके मुंह में लग गया। तो फिर देश की राजनीति को उसके चंगुल में जाने से बचा पाना मुश्किल होगा।</p>

Mahendra Mishra : सेना को लेकर मोदी सरकार बहुत खतरनाक खेल खेल रही है। यह कितना खतरनाक हो सकता है। शायद उसके नेताओं को भी इसका अहसास नहीं है। सेना सरहद के लिए बनी है। और उसका वहीं रहना उचित है। सेना एक पवित्र गाय है उसको उसी रूप में रखना ठीक होगा। घर के आंगन में लाकर बांधने से उसके उल्टे नतीजे निकल सकते हैं। क्योंकि आप अगर सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं। तो इसके जरिये वह भी राजनीति के करीब आती है। और इस कड़ी में कल उसको भी राजनीतिक चस्का लग सकता है। और एकबारगी अगर राजनीति का खून उसके मुंह में लग गया। तो फिर देश की राजनीति को उसके चंगुल में जाने से बचा पाना मुश्किल होगा।

पाकिस्तान की नजीर आप के सामने है। अयूब खान के सत्ता पर कब्जे के बाद लोकतंत्र जो पटरी से उतरा। तो फिर कभी ठीक से उस पर नहीं चढ़ सका। और उसका नतीजा यह रहा कि सेना और राजनीति के बीच सत्ता पर बर्चस्व का खेल वहां चलता रहता है। कभी सेना भारी पड़ती है। तो कभी राजनीति। लेकिन आखिरी सच यही है कि खाकी ने वहां सत्ता पर अपनी स्थाई पकड़ बना ली है। जिसके चंगुल से राजनीति को निकालना अब मुश्किल हो रहा है। भारत में भी राजनीति का जो हाल है। वह आश्वस्त करने वाला नहीं है। गोते में अपनी साख तलाशती इस राजनीति को जनता कभी भी लात मार सकती है। बशर्ते उसे एक विकल्प मिल जाए। हालांकि 67 सालों के लोकतंत्र में यह बहुत मुश्लिक है। और एक हद तक नामुमकिन भी। लेकिन एक पल के लिए ही सही अगर आप कल्पना करें। सेना कोई विकल्प लेकर सामने आ जाए। तो एक बड़ी जमात जो इन लुटेरे नेताओं और उनकी गिरफ्त से राजनीति को मुक्त कराने की पक्षधर है। क्या उसके साथ खड़ी नहीं हो सकती है? अगर ऐसा हो जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।

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अनायास नहीं कारगिल के बाद जब बीजेपी की कुछ इकाइयां या उसके एक हिस्से ने पोस्टरों में तीनों सेना अध्यक्षों की तस्वीर छापी। तो उस समय के सेनाध्यक्ष जरनल वीपी मलिक ने उस पर कड़ा एतराज जाहिर किया। इस मसले पर बाकायदा उन्होंने तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात की थी। जिसमें उन्होंने कहा था कि सेना अराजनीतिक है और उसे वैसा ही बनाए रखना उचित होगा। अटल ने उनसे इत्तफाक जाहिर करते हुए उन हरकतों पर रोक लगाने की बात कही थी। वीपी मलिक ने यह बात अपनी किताब ‘कारगिल फ्राम सरप्राइज टू विक्ट्री’ में दर्ज्ञ की है। उसके साथ ही इस किताब में उन्होंने एक और वाकये का जिक्र किया है। जिसमें उन्होंने बताया कि उसी दौरान वीएचपी यानी विश्व हिंदू परिषद का एक प्रतिनिधमंडल उन्हें राखी बांधने सेना के हेडक्वार्टर पहुंच गया। लेकिन उन्होंने उससे मिलने से इनकार कर दिया। फिर निराश होकर वो लोग पीआरओ के कमरे अपनी राखियां छोड़कर चले गए। इस घटना के बाद से ही सेना के मुख्यालय में लोगों के प्रवेश में सख्ती बरती जाने लगी।

मौजूदा समय आलम यह है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह खुलेआम इस मामले को जनता के बीच ले जाने की बात कर रहे हैं। न कोई उनको रोकने वाला है। और न ही कहीं से एतराज जताया जा रहा है। सेना के आला अधिकारियों की चुप्पी भी इस मसले पर बेहद रहस्यमय है। कहीं से किसी तरह के प्रतिरोध की खबर नहीं आ रही है। यहां तक कि सेना से जुड़े पूर्व अधिकारी भी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। यह बात बीजेपी के लिए तो मुफीद है। लेकिन सेना का इसमें क्या हित हो सकता है। यह समझना मुश्किल है। या फिर यह कहीं बीजेपी-संघ की बड़ी साजिश का हिस्सा तो नहीं? दरअसल बीजेपी जनता के सैन्यीकरण की हिमायती रही है। और इस तरह के किसी भी मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहती। यह अकेली ऐसी पार्टी है जिसने एक पूर्व सेनाध्यक्ष को सीधे राजनीति में प्रवेश दिलाने का काम किया है। यह एक तरह से सेना के सीधे राजनीतिकरण की शुरुआत है। लेकिन वर्दी जब खादी में बदलती है। तो उसके नतीजे बेहद खतरनाक होते हैं। दुनिया के इतिहास ने इस बात को कई बार साबित किया है। लिहाजा इस तरह के किसी प्रयोग में जाने का कोई तुक नहीं बनता। और जाने से पहले एक हजार बार सोचना चाहिए।

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इसमें अभी तक किसी तरह का शक रहा हो। तो सेना संबंधी मनमोहन सिंह से जुड़ा हिंदू का खुलासा मौजूदा सरकार के लिए काफी है। बावजदू इसके सरकार अभी भी इससे कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं हो। तो यह देश के लिए किसी दुर्भाग्य से कम नहीं होगा। इसका मतलब है कि सरकार अपने स्वार्थ में अंधी हो गई है। और उसे न तो देश का ख्याल है न ही उसके हितों का। एकबारगी सोचिए मनमोहन सिंह 2011 में मौजूदा कार्रवाई से भी बड़ी कार्रवाई करके चुप बैठे थे। जबकि विपक्ष से लेकर पूरा देश उनके ऊपर हमले कर रहा था। यहां तक कि कुछ एक लोग उन्हें कायर सरीखे घिनौने शब्द से भी नवाजने से बाज नहीं आए।

लेकिन मनमोहन सिंह मौन रहे। क्योंकि उन्हें अपने से ज्यादा अपने देश की इज्जत और उसके हित की चिंता थी। चाहते तो खुद कुछ कहना भी नहीं पड़ता और किसी एक रिपोर्टर के हवाले से पूरी कहानी सामने आ जाती। लेकिन सिर्फ राजनीतिक तंत्र ही नहीं बल्कि सेना से लेकर पूरा सत्ता प्रतिष्ठान इस पर चुप्पी साधे रहा। यह होता है एक शासक उसका धैर्य और उसकी संजीदगी। वह सब कुछ जानते हुए भी उसको जज्ब कर लेता है। वह खुद विष पीता है लेकिन देश और उसके लोगों पर आंच नहीं आने देता। मौजूदा दौर में भी जब सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों ने पूर्व सरकारों पर हमला शुरू किया। और इतिहास में इस तरह की किसी स्ट्राइक की बात को खारिज किया। तब भी मनमोहन सिंह शांत रहे। चाहते तो बोलते और बहुत कुछ बोलते। और अब सीधे सत्ता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं थी। लेकिन अपनी गोपनीयता की शपथ कहिए या फिर नैतिक संस्कार या कहिए देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी ने उनके हाथ बांध रखे थे।

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लेकिन दूसरी तरफ मौजूदा सरकार और उसका पूरा निजाम नंगे तरीके से तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के लिए हर वह काम करने के लिए तैयार है। जिसकी देश और उसके हित इजाजत नहीं देते। एक ऐसी स्ट्राइक जो सवालों के घेरे में है। उसका घूम-घूम कर डंका पीटा जा रहा है। और लाभ लेने के लिए उसके नेता अब सड़कों पर निकल पड़े हैं। इतना ही नहीं उसके प्रवक्ता और पिछलग्गू तमाम कुतर्कों के साथ इन हरकतों को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। और आखिर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार में रहते कोई कैसे झूठ बोल सकता है। और वह भी अपनी पिछली सरकारों के बारे में?

पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट महेंद्र मिश्र की एफबी वॉल से.

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