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उत्तर प्रदेश

मुलायम ने तो शिवपाल की सियासत पर ग्रहण लगा दिया!

अजय कुमार, लखनऊ


सियासत भी अबूझ पहेली जैसी है। यहां रिश्तों की अहमियत नहीं होती है ओर दोस्ती-दुश्मनी की परिभाषा बदलती रहती है। सियासत के बाजार जो दिखता है वह बिकता नहीं है और जो बिकता है वह दिखता नहीं है। इसी लिये समाजवादी पार्टी में बाप-बेटे के बीच के  झगड़ों को कोई गंभीरता से ले रहा है। तमाम लोंगो को तो लगता है कि दिग्गज मुलायम अपने बेटे अखिलेश के सियासी सफर को आसान बनाने के लिये एक तय स्क्रिप्ट पर काम कर रहे है, जिसमें भाई शिवपाल यादव की ‘सियासी आहूति’ दी जा रही है।

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अजय कुमार, लखनऊ

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सियासत भी अबूझ पहेली जैसी है। यहां रिश्तों की अहमियत नहीं होती है ओर दोस्ती-दुश्मनी की परिभाषा बदलती रहती है। सियासत के बाजार जो दिखता है वह बिकता नहीं है और जो बिकता है वह दिखता नहीं है। इसी लिये समाजवादी पार्टी में बाप-बेटे के बीच के  झगड़ों को कोई गंभीरता से ले रहा है। तमाम लोंगो को तो लगता है कि दिग्गज मुलायम अपने बेटे अखिलेश के सियासी सफर को आसान बनाने के लिये एक तय स्क्रिप्ट पर काम कर रहे है, जिसमें भाई शिवपाल यादव की ‘सियासी आहूति’ दी जा रही है।

चचा शिवपाल की स्थिति पिटे प्यादे जैसी हो गई है। उन्हें अखिलेश की सपा से अलग-थलग कर दिया गया है तो मुलायम भी भाई शिवपाल के मामले में एक कदम साथ चलकर दो कदम पीछे चले जाने वाला ढर्रा अपना रहे हैं। इसको लेकर शिवपाल खेमें मे नाराजगी है,तो अब शिवपाल का भी भाई मुलायम से विश्वास उठने लगा है। मुलायम, बेटे के प्रति सख्त होने का दिखावा करते हुए उसके प्रति ‘मुलायम’ भी बने हुए हैं। यह बात अब शिवपाल के साथ-साथ सियासी गलियारों में भी जगजाहिर हो चुकी है। मुलायम की सियासी समझदारी की दाद भी दी जा रही है।

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आज की तारीख में सपा की सियासत से शिवपाल यादव की पूरी तरह से विदाई हो चुकी हैं। 15 महीने से चल रहे यादव परिवार के विवाद गत दिनों एक नया मोड़ तब आया था जब मुलायम सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस करके नई पार्टी बनाने की संभावनाएं तो खारिज कर ही दीं, पुत्र अखिलेश को कुछ प्रश्न खड़े करने के साथ आशीर्वाद भी दे दिया। शिवपाल के प्रति मुलायम ने प्यार का इजहार तो किया, लेकिन ऐसा लग रहा था कि मुलायम अपने छोटे भाई की सियासी महत्वाकांक्षा को लेकर सोच में पड़े हुए थे। यह बात साबित करने के लिये अतीत के कुछ पन्नों को पलटना जरूरी है। जहां शिवपाल विद्रोही नेता के रूप में नजर आते थे।

बहरहाल, रिश्तों में खटास की शुरुआत उसी समय हो गई थी, जब 2012 में सपा सत्ता में आई थी। चुनाव नतीजे आने के बाद मुलायम ने मुख्यमंत्री बनने से इंकार किया, तो शिवपाल अपने को मुलायम का उत्तराधिकारी समझने लगे, इस लिहाज से उनका सीएम बनने का सपना देखना लाजिमी भी था। उधर, अखिलेश यादव पार्टी के भीतर युवा नेता के रूप में उभर चुके थे। उन्हें सपा की शानदार जीत के लिये नायक की तरह पेश किया जा रहा था। चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश द्वारा किये गये वायदों को जनता ने गंभीरता से लिया था। यह सब पचाना चचा शिवपाल के लिये आसान नहीं था। इसी लिये नेताजी की इच्छा जानते हुए भी शिवपाल, सीएम के लिये अखिलेश के नाम पर कभी सहमत नहीं हुए। कई दिनों तक शिवपाल की नाराजगी चर्चा का विषय बनी रही, लेकिन मुलायम ने भाई पर बेटे को तरजीह दी। तब से लेकर आज तक समाजवादी पार्टी में यही स्थिति बरकरार है। पूरे घटनाक्रम में पिता मुलायम अपने बेटे अखिलेश के हाथों सियासी शिकस्त खाने के बाद भी जीत का अहसास कर रहे हैं तो यह बाप का बड़प्पन ही है।

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हां, बाप जैसा दिल चचा का हो, ऐसा कम देखने को मिलता है। अखिलेश की ताजपोशी से चचा शिवपालं कि पार्टी में मुलायम के बाद नंबर दो की हैसियत बनने की हसरत अधूरी रह गई थी। यह और बात थी कि अखिलेश के सीएम बनने के बाद भी शिवपाल अपनी हैसियत को लेकर मुगालता पाले रहे। उन्हें यही लगता रहा कि भतीजा-भतीजा ही रहेगा फिर, चाहें वह सीएम ही क्यों नहीं बन जाये। ऐसा हुआ भी अखिलेश ने चचा के सामने करीब तीन साल तक मुंह नहीं खोला, लेकिन जब चचा शिवपाल की दखलंदाजी से अखिलेश की स्वयं की और उनकी सरकार की छवि खराब  होने लगी तो अखिलेश ने रिश्ते निभाने की बजाये सियासी जमीन बचाने को अहमियत दी। इससे चचा-भतीजे के बीच खाई और गहरा गई।

दरअसल, भतीजे से विवाद के बीच चचा शिवपाल ने भाई मुलायम से कई ऐसे फैसले करवाए जिससे विवाद बढ़ता ही चला गया। चुनाव से कुछ माह पूर्व जनवरी महीने में समाजवादी पार्टी के अधिवेशन में भी अखिलेश यादव ने शिवपाल का नाम लिये बिना इशारा किया था कि कुछ लोग नेताजी का फायदा उठा रहे हैं। शिवपाल यह सब अपने बल पर नहीं कर रहे थे, जानकार कहते हैं, उन्हें अमर सिंह का भी साथ मिला हुआ था, जिन्हें एक बार फिर मुलायम के करीब लाने में शिवपाल ने अहम भूमिका निभाई थी। एक समय तो नेताजी, अमर सिंह और शिवपाल की तिकड़ी काफी मजबूत नजर आ रही थी,लेकिन सत्ता की चाभी अखिलेश के पास थी, इसलिये वह इस तिकड़ी पर हमेशा भारी पडत़े रहे।

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इसके अलावा मुलायम के ढुलमुल रवैये ने भी अखिलेश की राह आसान करने का काम किया। इस दौरान राजनैतिक पंडित समझ रहे थे कि शिवपाल भले ही मुलायम के भाई और खास रहे हों, लेकिन वह भूल गए कि उनका भाई एक पिता भी हैं। उन्हें लगा कि वह अखिलेश के खिलाफ हो जाएंगे। इतिहास गवाह है कि ऐसा कभी नहीं हुआ। यह बात जब अमर सिंह को समझ में आई तो उन्होंने तुरंत मुलायम से दूरी बना ली और अब शिवपाल को भी यह बात समझ में आ गई है। 25 सितंबर को जब सब तरफ यह उम्मीद जताई जा रही थी कि मुलायम अपने भाई शिवापाल के साथ मिलकर नई पार्टी का एलान कर सकते हैं,तब ऐन मौके पर मुलायम ने न केवल पलटी मार दी बल्कि अखिलेश को आशीर्वाद वचन भी दे दिये।

बात अखिलेश की कि जाये तो, पूरे घटनाक्रम में जहां अखिलेश ने अपना रूख कड़ा रखा तो वहीं शिवपाल भी झुकने को तैयार नहीं दिखे। कई बार ऐसा लगा कि पार्टी बिखर जायेगी। तो कई मौके ऐसे भी आए जब सुलह की गुंजाइश बनती दिखी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। शिवपाल लगातार धोखा खाने के बाद भी भाई पर विश्वास किये जा रहे थे। उन्हें लगता था कि मुलायम अलग पार्टी बनाने को तैयार हो जायेंगे। इसके लिये उनकी तरफ से पूरी रूप रेखा भी तैयार कर ली गई थी। 25 सितम्बर 2017 को शिवपाल के कहने पर मुलायम ने प्रेस कांफ्रेस बुलाई, चर्चा थी कि मुलायम अलग पार्टी बनाने की घोषणा कर सकते हैं। इसके लिये शिवपाल ने एक प्रेस नोट भी नेताजी की तरफ से तैयार करा लिया था, जिसमें एक अलग सेक्युलर मोर्चा बनाने की बात थी, लेकिन मुलायम ने शिवपाल का प्रेस नोट पढ़ा ही नहीं। इससे शिवपाल तिलमिला गये।

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चचा-भतीजे की जंग में परिवार की कुछ महिलाओं का भी नाम उछाला, जिनके बारे में कहा जा रहा था कि वह अखिलेश के खिलाफ शिवपाल का साथ दे रही हैं। तात्पर्य यह है कि मुलायम के परिवार में जब तलवारें खिंची तो इसको धार घर के भीतर से ही मिल रही थी। जो विवाद मिलकर बैठकर सुलझाया सकता था वह सड़क पर आ गया। मंव पर चचा-भतीजे बच्चों की तरह लड़ते दिखाई देने लगे। इसका प्रभाव विधान सभा चुनाव पर भी पड़ा। बीजेपी ने इस मुद्दे को खूब हवा दी, परिणाम स्वरूप सपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। परंतु न तो रिश्तों की रार खत्म हुई और न मुलायम का ढुलमुल रवैया बदला। इसका नजारा हाल ही में एक बार फिर तबं देखने को मिला था, जब मुलायम ने लोहिया ट्रस्ट से प्रो. रामगोपाल की छुट्टी करके शिवपाल को ट्रस्ट का सचिव बना दिया, जिसके अध्यक्ष मुलायम सिंह स्वयं थे।

मुलायम के इस फैसले से शिवपाल को थोड़े समय के लिये नई उर्जा जरूर मिली, जो ‘सेक्युलर मोर्चा’ का गुब्बारा ऐन वक्त पर फूट जाने के बाद खत्म हो गई। यह सब अचानक नहीं हुआ था। सेक्यूलर मोर्चा बनाने और बनने न देने का खेल दोंनो खेमों के बीच लम्बे समय से चल रहा था। शिवपाल इस मोर्चे को लेकर उत्साहित था, तो अखिलेश को मानो हकीकत पता थी, सब कुछ लिखी स्क्रिप्ट की तरह हुआ। बेटे के द्वारा पार्टी का संरक्षक बनाये गये पिता मुलायम सिंह ने ऐन वक्त पर जो दांव चला, उसने न सिर्फ शिवपाल को और हाशिये पर डाल दिया, बल्कि अखिलेश की पार्टी पर पकड़ पूरी तरह से मजबूत हो गई।

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इस बीच एक खेल और देखने को मिला लखनऊ में समाजवादी पार्टी के राज्य सम्मेलन में अपने संबोधन के दौरान अखिलेश ने अपने पिता मुलायम के आशीर्वाद का जिक्र कर शिवपाल खेमे को करारा जवाब दिया तो पिता को अपने पक्ष में करने की कोशिश में वह कामयाब होते दिखे। राज्य सम्मेलन में मुलायम के करीबी नेता बेनी प्रसाद की मंच पर मौजूदगी और आजम खां का अखिलेश के प्रति उमड़ा प्यार और मंच से ही शिवपाल पर करारा हमला यह जताने के लिये काफी था कि शिवपाल का समाजवादी पार्टी में सियासी सफर खत्म हो चुका है। भले ही शिवपाल ने सपा को इस मुकाम तक पहुंचाने में अहम किरदार निभाया था। मुलायम ने एक ही झटके में अखिलेश की राह आसान कर दी। इससे सबक लेते हुए शिवपाल और उनके समर्थक अलग मोर्चे के गठन की पैरोकारी करने लगे रहे, लेकिन शिवपाल के लिये ऐसा करना आसान नहीं लगता है। मुलायम के इस फैसले के साथ ही तय हो गया है कि अब सपा में अखिलेश के लिए कोई चुनौती नहीं रह गई है। अब तक शायद शिवपाल को भी यह समझ में आ गया होगा कि बाप-बाप रहता है।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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