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सुख-दुख

तय हुआ था वो अपने हाथों मेरी श्रद्धांजलि लिखेंगे पर क़रार से ठीक उलट मैं उनकी श्रद्धांजलि लिख रहा हूँ!

अनिल शुक्ला-

श्रद्धांजलि : योगेंद्र दुबे की विदाई के मायने… ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है जब चुन्नू (योगेंद्र दुबे) ने गोली न दी हो। हम सभी को आवाक और छटपटाता छोड़ कर वह झटपट निकल गया। शराब की पुरानी बैठकें जब जवान होती और हम दोनों सुरूर में गोते लगाते डूबते-उतराते थे तो मैं उससे क़रार करवाता कि वह अपने हाथों मेरी श्रद्धांजलि लिखेगा। उम्मीद नहीं थी कि वह एक बार (और आख़िरी बार) अपने वायदे से फिर मुकर जाएगा।

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स्कूली शिक्षा, रंगकर्म और पत्रकारिता की हमारी चढ़ाई कुछ कुछ साथ-साथ और कुछ कुछ आगे पीछे की थी। स्कूली जीवन में चुन्नू ने मुझसे कुछ पहले नाटकों में भाग लेना शुरू किया और युवावस्था में पत्रकारिता की शुरुआत मैंने उनसे कुछ पहले की। छात्र अवस्था में आगरा के मंचों पर जिन 2 लोगों को नाटक में अभिनय करता देख मैं सोचा करता था कि आगे चलकर मैं भी एक्टर बनूँगा, उनमें एक योगेंद्र भी थे। बृजमोहन श्रीवास्तव और श्रुतिकान्त शर्मा के साथ वह ‘बॉयज़ हॉस्टल रूम नम्बर…. ” नाम से कोई छोटी सी स्क्रिप्ट स्कूलों में किया करते थे।

यह छात्रों के हॉस्टल जीवन की गुपचुप लीलाओं और अराजकताओं से भरपूर एक हंसोड़ प्रहसन था जो विद्यार्थियों को बड़ा पसंद आता था। कई साल बाद जब मैंने बंसी कौल की वर्कशॉप में आधुनिक थियेटर का बाक़ायदा प्रशिक्षण लिया और बंसी कौल ने जब वर्कशॉप के हम प्रतिभागियों के साथ तैयार की गयी अपनी अनोखी और अनूठी नाट्य प्रस्तुति ‘संस्कार ध्वज’ को आगरा में पेश किया तो उसे देखकर दांतो तले अंगुली दबाने वाले आगरा के रंगकर्मियों में योगेंद्र भी शामिल थे जिन्हें वर्कशॉप’ जॉइन न करने का मलाल था। उन्होंने महसूस किया कि बिना वैज्ञानिक प्रशिक्षण के वे लोग नाटक के नाम पर वह अब तक सिर्फ ‘मेलो ड्रामा’ करते रहे हैं।

बहरहाल वर्कशॉप से निकल कर सन 76 में हम लोगों ने ‘रंगकर्म’ के नाम से एक नाट्य संस्था का गठन किया। योगेंद्र को मैंने उसमें शामिल होने का न्यौता दिया। मैंने अन्य लोगों से उनका परिचय कराया। वह आये और हम लोगों ने उन्हें संस्था का उप सचिव बनाया गया। पता नहीं किसकी किस बात पर नाराज़ होकर वह संस्था छोड़ चले गए। बाद में जब ‘रंगकर्म’ अपनी प्रस्तुतियों को लेकर ख़ासी चर्चित हुई और उसे ‘उप्र संगीत नाटक अकादमी’ के 5 पुरस्कार एक साथ मिले, योगेंद्र दुबे को फिर ऐसी संस्था को छोड़ने का मलाल हुआ। मुझसे बातचीत करके वह फिर लौटे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ‘बकरी’ और ज्ञानदेव अग्निहोत्री रचित ‘शुतुरमुर्ग’ में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिकाएं की। वह फिर किसी बात पर मुझसे रूठकर चले गए।

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सन 80 में नुक्कड़ नाटकों के ‘करें या न करें’ के सवाल पर विवाद हुआ और संस्था विभाजित हो गयी। मैं निर्देशक था। अभिनेताओं का बड़ा हिस्सा मेरे साथ नुक्कड़ नाटक करने के पक्ष में था। तभी योगेंद्र एक बार तब फिर वापस लौटे। मुझसे मिलकर उन्होंने कहा कि वह मेरी नुक्कड़ टीम में शामिल होना चाहेंगे। हम लोगों ने बादल सरकार की अप्रतिम रचना ‘जुलूस’ को आगरा की सड़कों, नुक्कड़, पार्कों, स्कूलों, मोहल्लों में पेश किया। 55 मिनट के इस नाटक की 100 से अधिक प्रस्तुतियों ने जैसे आगरा के सांस्कृतिक जगत में भूचाल सा ला दिया।

‘रंगकर्म’ के साथ-साथ कुछ कमाई करने के उद्देश्य से हम दोनों का पत्रकारिता का सफर भी शुरू हो गया था। मैं बाहर की पत्रिकाओं में लिख रहा था, वह स्थानीय अख़बारों की नौकरियों में थे। इसके कई साल बाद हम दोनों का आगरा छूटा। सं 84 में मैं जयपुर आनंदबाजार पत्रिका समूह (एबीपी न्यूज़ वाला) का राजस्थान संवाददाता बन कर चला गया, वह सन 86 में ‘अमर उजाला’ के मेरठ संस्करण की स्थापना के साथ उसमें शामिल हुए। मैं नौकरी के चलते कई राज्यों में भटकता रहा लेकिन हमारे बीच ख़तोखिदावत और टेलीफोनों का सिलसिला गाहे बगाहे चलता रहा।

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जब कभी ऐसा भी होता कि हम दोनों अपने शहर आगरा में इकठ्ठा होते और हमारी मुलाक़ातें दिन में राजामंडी चाय ढाबों पर और शाम को ‘अशोका’ या ‘ईस्टलाइट’ ‘बार’ में होतीं। गरमागरम राजनीतिक बहसें और बैकग्राउंड में नाटकों में सक्रिय न रह पाने के मलाल पर हम दोनों की सर्द आहें छूटती।

कुछ सालों बाद हम एक बार फिर दिल्ली में मिले। मैं वहां 79 में ही जा बसा था। 84 में वह भी बरेली से दिल्ली आ बसे। बाद में मैं और चुन्नू एक ही कॉलोनी- मयूर विहार में रहने लगे। ये सब लंबी कहानियां हैं। संक्षेप में यह कि महीने में एक-दो बार हमारी शामें फिर जवान हो उठतीं। पत्रकारिता का पेशा और नाटक न कर पाने की टीस हम दोनों को कचोटती रहती। अंततः दिल्ली उन्हें रास न आयी। नई सदी शुरू होने पहले ही वह दिल्ली छोड़कर सपरिवार आगरा आ गए।

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2005 के अप्रैल में जब फ़ोन पर मैंने उन्हें सूचना दी कि मैं आगरा आ रहा हूँ और फुलटाइम नाटक करेंगे तो वह उछल पड़े। 2006 की 26 जनवरी की गुनगुनी धूप में स्वदेशीनगर कॉलोनी स्थित योगेंद्र की छत पर ही दर्जन भर लोगों के बीच ‘रंगलीला’ का गठन हुआ। वह चूंकि लम्बे समय से आगरा में थे लिहाज़ा सभी लोगों को जानते थे और उन्होंने ही उनमें से ज़्यादातर लोगों को बुलाया था और उनके समक्ष मुझे ‘इंट्रोड्यूज’ किया। इनमें अधिकांश नवयुवक थे जिनमें कुछ नाट्यकर्म की मेरी पुरानी कारगुज़ारियों की बाबत सुनते आये थे और कइयों को मेरे बारे में योगेंद्र ने बताया।

मैंने वहां मौजूद लोगों से कहा कि नयी नाट्य संस्था बनाने के पीछे मेरी मंशा नाटकों के नए डिज़ायन पर, नए तरीके से काम करना है। बेशक हम नुक्कड़ नाटकों से शुरू करेंगे लेकिन हमारा लक्ष्य आगरा की 4 सौ साल पुरानी लोक नाट्य विधा ‘भगत’ को अपने नाटकों के डिज़ायन के रूप में ग्रहण करना है। ‘रंगलीला’ के बहुचर्चित नुक्कड़ नाटक- ‘हाथीघाट पे अकबर’ और ‘जाम के झाम में अकबर’ के पचासों प्रस्तुतियों में दर्शक अभी भी बीरबल की भूमिका में योगेंद्र का अभिनय भूले नहीं है।

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वह ‘रंगलीला’ के संयोजक बने। आगे चलकर जब मैंने ‘भगत’ के पुनरुद्धार को एक बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन छेड़ा तो योगेंद्र उस आंदोलन की और मेरी रीढ़ थे। बेशक वह ‘रंगलीला’ में मुझे अपना नेता मानते थे लेकिन ‘रंगलीला’ में लिया जाने वाला कोई भी फैसला ऐसा नहीं था जिसमें उनकी और मनीषा की सहमति शामिल न होती हो। जिन बातों का इन लोगों ने विरोध किया, उसे मैं लागू न कर सका।

कई बार जब पत्नी होने के नाते मैं मनीषा की राय से असहमत होने पर उसे खिसकाने का ‘षड्यंत्र’ करता तो वह कूद कर मनीषा के पक्ष में आ खड़े होते और यही बात इसकी विपरीत दशा में भी होती। मनीषा चूंकि बड़ी ‘सायलेंट वर्कर’ टाइप वालेंटियर हैं लिहाज़ा बहुत सालों तक उन्होंने मुझसे संकल्प करवा रखा था कि मीडिया आदि के प्रचार में उनके नाम का उल्लेख न आये। हाल के सालों में उनका नाम प्रकाशित होने के पीछे यह योगेंद्र ही थे जिन्होंने इस बात के लिए ख़ासा उधम मचाया कि ‘बैकस्टेज’ की सभी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने के बावजूद क्यों नहीं मनीषा का नाम आगे आना चाहिए और तब हम दोनों उनके तर्कों के आगे मौन हो गए।

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भले ही उनक आधुनिक नाटकों का लम्बा अनुभव था लेकिन मैंने जब उनसे ‘भगत’ में शामिल होने को कहा तो वे शुरू में हिचकिचाए। मैंने उन्हें समझाया कि इस विधा में मैं जो अभिनय का अतिरिक्त ‘कॉम्पोनेन्ट’ शामिल करना चाहता हूँ और उसके लिए सिर्फ़ तुम और हिमानी ही मेरे पास मेरे प्रशिक्षित अभिनेता हो तो वह तैयार हो गए। जो लोग अभिनय कर्म से जुड़े हैं वे जानते होंगे कि चौथे और पांचवे इ ‘काले’ के ‘सुर’ पर गायन के साथ अभिनय कर पाना कितना दुःसाध्य होता है। योगेंद्र ने लेकिन यह बखूबी कर दिखाया। उन्होंने भगत गायकी ख़लीफ़ा स्वर्गीय फूलसिंह यादव से सीखी और मंच पर पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरने लग गए। योगेंद्र को लेकर जिस तरह हम अपनी ‘भगत’ के साथ देस-दुनिया घूमते रहे हैं, उस इतिहास से तो आप सभी वाक़िफ़ हैं ही।

उनकी इस तरह की विदाई असामयिक तो है ही, मेरे लिए मेरा दाहिना हाथ काट जाने जैसा हादसा है। यह ‘रंगलीला’ के लिए ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई कोई नहीं कर पायेगा। हमारे बीच हुए क़रार से ठीक उलट मैं उनकी श्रद्धांजलि लिख रहा हूँ और खून के आँसू रो रहा हूँ।

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