विकास पाठक जेएनयू से पढ़े हैं. पत्रकार रहे हैं. इन दिनों शारदा यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत हैं. बीबीसी संवाददाता सलमान रावी ने विकास पाठक से उनके संघ से जुड़ने से और अलग होने को लेकर विस्तार से बात की. फिर उस बातचीत को विकास पाठक की तरफ से बीबीसी की वेबसाइट पर प्रकाशित करा दिया. ऐसे दौर में जब मोदी, भाजपा और संघ को हरओर महिमामंडित करने का दौर चल पड़ा है, बीबीसी ने संघ को लेकर एक शख्स की जुड़ाव व विलगाव यात्रा को प्रकाशित कर यह साबित किया है कि चारण-भाट बनने के इस दौर में कुछ सच्चे मीडिया ग्रुप भी हैं. कम्युनिस्ट हों या संघी हों, दोनों को लेकर क्रिटिकल खबरें सामने आनी चाहिए ताकि जनता को, पाठकों को खुद फैसला करने में सहूलियत हो और उन्हें दोनों अच्छे बुरे पहलू पता रहे. नीचे बीबीसी में छपी खबर है.
-यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया
मैंने संघ क्यों छोड़ा
-विकास पाठक-
मैं अपने परिवार को ‘राष्ट्रवादी’ इसलिए कहता हूँ कि मेरे पिता अर्धसैनिक बल में थे और मैं उसी परिवेश में पला और बड़ा हुआ. पहले इस बात में यक़ीन करता था कि लोग किसी विचारधारा से सहमत होने के बाद ही उससे जुड़ते हैं. मैं उत्तर भारत के एक उच्च जाति के हिंदू परिवार से हूँ. मेरी किशोरावस्था के दौरान रामजन्मभूमि आंदोलन और मंडल आंदोलन अपने चरम पर था. समाज भारतीय जनता पार्टी की ओर झुक रहा था. ख़ासकर वो समाज, जिससे मैं आता हूँ. ‘राष्ट्रवाद’ मेरे परिवार के अंदर था.
स्नातक की पढ़ाई के दौरान संसद में अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों से मैं काफ़ी प्रभावित रहा. लेकिन, जब मैं एमए करने के लिए जेएनयू पहुँचा तो मुझे बड़ा सांस्कृतिक झटका लगा. जेएनयू में कश्मीरी अलगाववादियों को भी बुलाया जाता था, जो मेरे लिए झटके जैसा था. मुझे लगता था कि ऐसा करना राष्ट्रविरोधी है. मुझे यह भी लगने लगा कि साम्यवादी आंदोलन राष्ट्रविरोधी है. इससे मेरा झुकाव अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ओर होता चला गया. 1998 में ऐसा मौक़ा भी आया जब मैं इसमें पूरी तरह सक्रिय हो गया. धीरे-धीरे मेरी अपनी पहचान विद्यार्थी परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में होनी शुरू हो गई. मैं पाँच-छह साल तक विद्यार्थी परिषद से जुड़ा रहा. इस दौरान मैं विद्यार्थी परिषद के वैचारिक पर्चे लिखा करता था. मेरी सक्रियता वैचारिक ही थी. परिषद से जुड़े आंदोलनों से मुझे भावनात्मक समर्थन मिल रहा था और मेरी जान-पहचान भी इससे जुड़े लोगों से ही हो रही थी.
एमफिल और पीएचडी के दौरान मैंने बीसवीं सदी की शुरुआत में हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलनों पर अध्ययन करना शुरू किया. इस पर गहन अध्ययन के दौरान बौद्धिक स्तर पर मुझे दो चीज़ें समझ में आईं. पहली ये कि भारतीय राष्ट्रवाद में जनसंघ या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की कोई भूमिका नहीं थी. हक़ीक़त यह है कि भारतीय राष्ट्रवाद में सबसे अहम भूमिका कांग्रेस की ही थी. शोध के दौरान मुझे भारत की आज़ादी के आंदोलन में संघ की सक्रिय भूमिका का कोई प्रमाण नहीं मिल पाया. बौद्धिक स्तर पर मेरी राष्ट्रवाद की शुरुआती समझ को उसी समय बड़ा झटका लगा. शोध के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि संघ राष्ट्रवाद का एकमात्र प्लेटफॉर्म नहीं है. मगर इसका मतलब क़तई यह नहीं है कि ‘राष्ट्रवाद’ में संघ की भूमिका का हवाला देकर आज भाजपा पर सवाल उठाए जाएं.
शोध के बाद संघ की कमजोरियाँ और ताक़त मेरे सामने खुलकर आने लगीं. मूल रूप से यह आंदोलन हिंदुओं को एकजुट करने का था. हालांकि मैंने संघ से दूरी इस ज्ञान के मिलने के बाद नहीं बनाई. मैं 2004 में संघ से दूर हुआ. जेएनयू से निकलने के बाद मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू की. जेएनयू से संपर्क टूटने के बाद मेरी विचारधारा का संदर्भ भी बदलना शुरू हो गया. जब मैं जेएनयू में था तब विद्यार्थी परिषद मेरे लिए सब कुछ थी. लेकिन अब मैं एक पत्रकार बन रहा था. इससे विद्यार्थी परिषद के साथ जुड़े रहने की मेरी बौद्धिक, वैचारिक और भावनात्मक ज़रूरतें नहीं रहीं. धीरे-धीरे मैं परिषद से दूर होता गया. हालांकि मैं किसी और विपक्षी विचारधारा से भी नहीं जुड़ा.
मैं गांधी की विचारधारा और सावरकर की विचारधारा के बीच के फ़र्क को समझने लगा था. एक की विचारधारा मतभेदों को नज़रअंदाज़ करके जोड़ने वाले बिंदु खोजने की है. महात्मा गांधी का एजेंडा मतभेदों को दूर करने का था. जबकि दूसरे की विचारधारा अपने समुदाय को मजबूत करने की थी. ये एक समुदाय के विकास का मॉडल है जबकि गांधी की विचारधारा सभी समुदायों को साथ लेकर चलने की लगती है. मुझे लगता है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में साथ चलना वक़्त की ज़रूरत है. मैं गांधीवादी विचारधारा से पूरी तरह प्रभावित हो गया. वक़्त के साथ मेरी रुचि भी बदली और मैं संघ से अलग हो गया.
chandra kant gupta
October 15, 2014 at 2:19 pm
yeh thik hai ki sangh ek hi vichar ka pichlagoo hai per kya bharat mein hindu rastrvaad ki jaroorat nahin hai jis tarika ka rastravad RSS chahta hai galat hai kya ies prashn ka uttar dunden tou jabav mil jayega aur gandhi ko iesse jodenge tou galat hoga RSS ka kisi panth aur varg se koi lena-deana nahin hai woh sirf rastra-vad ko paribhashit karta hai jiska netratva hindu brahman karten hain lekin sahyoug sabhi dharm ke log karten hain
navneet
October 13, 2014 at 2:50 pm
विकास पाठक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से अपने छात्र समय में जुड़े –यह बीजेपी की छात्र युवा इकाई है , लेकिन यहाँ संघ कहाँ से बीच में आ गया , बीजेपी -अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय जनता युवा मोर्चा इन सब का राजनितिक एजेंडा है। य़े सब अपने नफा -नुकसान के हिसाब से अपने विचार -बयान सब बदलते रहते है ,मैं भी कई बार बीजेपी की कथनी -करनी में फर्क महसूस करता हूँ , लेकिन संघ अलग ही संगठन है —पाठक जी कभी संघ से नही जुड़े और न ही इनका इंटरव्यू लेने वाले सलमान जानते है संघ के बारे में — रही बात गांधी जी की तो वो इस देश की सभी समस्याओं की मूल जड़ है –मुस्लिम तुष्टिकरण की गन्दी राजनीती की शुरुवात गांधी ने ही की थी फिर कांग्रेस व् सभी दलों ने इसी नीति का अंध अनुसरण किया –इसी आक्रोश की वजह से गौडसे ने गांधी वध किया था –संघ से जो असल में जुड़ेगा वो कभी संघ नही छोड़ सकता
एच. आनंद शर्मा, शिम
October 13, 2014 at 3:00 pm
यह सही है कि भारतीय राष्ट्रवाद में कांग्रेस की अहम भूमिका रही है, लेकिन यह जवाहर लाल नेहरू के समय तक की ही बात है। आजादी के बाद कांग्रेस ने देश में दक्षिण पंथ और वामपंथ दोनों को साथ लेकर मध्य मार्ग की नीति अपनाई थी, जो काफी सफल भी हुई। नेहरू के सलाहकारों में अनेक वामपंथी और दक्षिणपंथी शामिल थे। उन्होंने सभी को साथ लेकर देश को आगे बढ़ाने का काम किया और बहुसंख्य जनता का समर्थन हासिल करने में कामयाब भी रहे। संभवतः इसी कारण कांग्रेस देश में साठ वर्ष तक राज करने में कामयाब रही। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। नीतियों के मामले में कांग्रेस और भाजपा धुर दक्षिणपंथ की राह पर आगे बढ़ रही हैं और वामपंथी नीतियों यानी गरीब जनता के हितों को लगातार नजरंदाज किया जा रहा है। विकास पाठक का लेख वास्तव में ही पठनीय है और अनेक सच्चाइयों पर से पर्दा उठाता है।
Anil Dwivedi
October 14, 2014 at 3:18 pm
मैं विकास पाठक की बात से उतना आश्चर्यचकित नहंी हूं जितना बीबीसी की इस रपट से। बचपन से लेकर आज तक मेरी तरह ही देश के अधिकांश लोग बीबीसी को एक गंभीर समाचार सम्प्रेषण का माध्यम मानते हैं। उसका अपना सम्मान है और अहमियत भी लेकिन विकास पाठक जैसे एक सामान्य स्वयंसेवक या कह लें विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता को इतनी तवज्जो देकर बीबीसी क्या जतलाना चाहता है? और फिर इसमें कोई आपत्तिजनक बात भी नहीं है। अन्याय जैसा कोई मसाला भी नहीं। यह मात्र आरएसएस पर एक कीचड़ उछालने जैसा है।
विकास पाठक जैसे लाखों स्वयंसेवक और कार्यकर्ता संघ से जुड़े हैं। विकास खुद भी जानते होंगे कि संघ में आना और फिर चले जाना एक सामान्य प्रक्रिया है। किसी भी दल में या राजनीतिक दल में यह आम बात है। आप किसी का हाथ पकडक़र रोक नहीं सकते। एक कार्यकर्ता जायेगा, दूसरे दस आएंगे नतीजन संघ का कार्य बढ़ता ही जा रहा है। हां, दूसरे दलों की बनिस्बत आरएसएस का मात्र इतना आग्रह होता है कि आप यदि संघ को छोडक़र जा रहे हैं तो जहां भी रहें, जिस भी दल में रहे, समाज और देश हित की सोचें. उसके लिये अपना योगदान दें। संभवत: खुद विकास पाठक भी इससे सहमत होंगे लेकिन बीबीसी ने एक सामान्य कार्यकर्ता को इतना महत्व देकर अपना कद जरूर घटाया है।
Anil Dwivedi
October 14, 2014 at 3:36 pm
वैसे इस लेख के माध्यम से विवाद पैदा कर रहे तमाम लोगों को मेरा एक ही जवाब है कि आलोक आरएसएस को लाख बुरा-भला कहें, संघ का काम दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। पहले देश ने उसे अपनाया, अब दुनिया अपना रही रही है, समझ भी रही है। मैं समझता हूं, कांग्रेस की जिस विचारधारा को या उसकी नीति को श्रेष्ठ बताया जा रहा है, वह आजादी के पूर्व हो सकती थी लेकिन आजादी के बाद देश ने इस नीति को बुरी तरह धकियाया ही है और संघ की विचारधारा, उसके कार्य को सम्मानपूर्वक तवज्जो दी है। कांग्रेस का 440 सीट से 40 सीट में सिमट जाना इसका प्रबलतम प्रतीक है। फिर से दोहरा दूं कि संघ-शक्ति के आगे कांग्रेस, माक्र्सवादी, समाजवादी या अन्य विचारधारायें धूल खा रही हैं। ऐसे में विकास पाठक का संघ छोडक़र जाने का फैसला अफसोसजनक और हास्यास्पद ही हो सकता है।
Amit
October 16, 2014 at 5:24 pm
यशवंत बाबू आपने जो बीबीसी की तारीफ में कलम खर्च की है इतना बता दूं कि बीबीसी की रिपोर्टिंग भारत विरोधी रही है। खास तौर पर बीजेपी-संघ विरोधी, आईएस के आगे वो तथाकथित शब्द जोड़ता है। और आजकल तो उसकी साइट पर एंटी बीजेपी एंटी मोदी लेखकों के लेख प्रकाशित होते रहते हैं। वो जानता हैं कि उसका भारत में कुछ बिगाड़ नहीं हो सकेगा। लानत भेजता हूं इस पर।
zahoor siddiqi
October 16, 2014 at 5:25 pm
If Gandhi is a root cause of all ailments then why Modi praises Gandhi?Do you think that Godse is the real face of RSS.? Vikas is not the only one who deserted RSS there are other instances also. No nation can progress by following fanaticism. .It does not matter whether you are born in this or that religious community the real question is what you do for the benefit of the society.
Amit
October 16, 2014 at 5:28 pm
ये उच्च जाति का हिंदू क्या होता है बे ….चुतिए
Pankul Sharma
October 19, 2014 at 11:33 am
भाई नवनीत की बात एकदम सही है. विद्यार्थी परिषद और संघ में उतना फर्क ह जितना जूते और पांव में. लगता है विकास बाबू अपने किसी स्वार्थ के चलते परिषद से अलग हुए और अब अपने भीतर विकसित पत्रकार पर सेक्युलर वरक चढाने की चेष्टा में हैं.
हरिहर शर्मा
October 21, 2014 at 2:12 pm
संघ को जानने का दावा करने वाले विकास पाठक का यह दावा कि उन्हें अध्ययन व शोध के दौरान संघ की स्वतंत्रता संग्राम में कोई भूमिका प्राप्त नहीं हुई, अत्यंत ही आस्यास्पद है | संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने न केवल स्वतंत्रता आन्दोलन में कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में सहभागिता की, वरन वे जेल भी गए | इतना ही नहीं तो मुकदमे के दौरान उन्होंने स्वयं की पैरवी स्वयं करते हुए जो कुछ कहा, उससे क्षुब्ध होकर मजिस्ट्रेट ने लिखा कि आरोपी का जबाब मूल अपराध से अधिक राजद्रोहात्मक है | यद्यपि बाद में डॉ.हेडगेवार को समझ में आ गया कि हम गुलाम इसलिए हुए क्योंकि समाज संगठित नहीं था | इस कमी को समझकर दूर करने के लिए ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ |