जर्नलिज्म ऑफ करेज का दावा और रिपोर्टिंग का सच
संजय कुमार सिंह
अमर उजाला में आज टॉप पर छपी खबर का शीर्षक है, “दिख रहा बदलाव …. नौ वर्षों में गरीबी से बाहर आये 24.82 करोड़ भारतीय”। यहां अखबार को जो दिख रहा है और जो वह दिखाने की कोशिश कर रहा है वह नीति आयोग की रिपोर्ट के आधार पर है और इसके अनुसार भारत में गरीबी 2013-14 के 29.17 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में 11.28 फीसदी रह गई है। इस सरकारी प्रचार में और भी बहुत कुछ कहा गया है। ऐसी ही एक खबर नवोदय टाइम्स में पहले पन्ने पर है। इसके अनुसार, “जिनकी पहले कभी परवाह नहीं हुई, हम उन तक पहुंचे : मोदी”। इसके साथ भी सरकारी प्रचार की दूसरी खबरें हैं। आज ही द टेलीग्राफ की लीड बताती है कि विशेषज्ञों ने नीति आयोग के तरीके पर एतराज किया है। यहां शीर्षक है, गरीबी से भारी राहत का दावा।
मेरा मानना है कि नरेन्द्र मोदी ने मणिपुर जाना तो छोड़िये हिंसा शुरू होते ही शांति बनाये रखने की अपील की होती और सख्ती से निपटने का दिखावा भी किया होता तो 2014 के तमाम जुमलों के बावजूद उनके इस दावे को पहले पन्ने पर छापा जाना ठीक हो सकता था, झेला जा सकता था। लेकिन हिन्सा और तनाव फैले तो इंटरनेट बंद कर दिया जाना, लगभग कोई कार्रवाई नहीं करना और करते दिखने की जरूरत भी नहीं समझने के बाद संसद का सत्र शुरू होने से पहले इंटरनेट चालू हो जाना तथा उसके बाद महिला को नग्न करके घुमाये जाने का वीडियो वायरल हो जाये तो उसके समय पर सवाल उठाये जाने की राजनीति कैसे पसंद की जा सकती है और उसका समर्थन कैसे किया जा सकता है। आम लोगों को समझ में नहीं आये यह तो माना जा सकता है पर मीडिया के लोग ऐसा करके देश सेवा कर रहे हैं? या राज्यसभा की सीट सुरक्षित कर रहे हैं?
मुझे याद आता है कि बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद मेरे संपादक प्रभाष जोशी ने भाजपा के खिलाफ लिखना शुरू किया तो यह अफवाह उड़ाई गई कि वे राज्यसभा में जाना चाहते थे औऱ नहीं भेजा गया इसलिए नाराज थे। जबकि वे अपना काम कर रहे थे और पेड न्यूज के खिलाफ अंतिम समय तक अभियान चलाते रहे। उसके बाद सत्तारूढ़ पार्टी ने किसे राज्यसभा भेजा, किसे गवरनर बनाया है सब साफ है फिर भी खबरों में बेईमानी जारी है। सरकार और उसके लोग जो करें, आप विरोध न करें पर प्रचार किसलिये? जाहिर है, अमर उजाला जो देख और दिखा रहा है वह नीति आयोग की रिपोर्ट है और द टेलीग्राफ के अनुसार, जानकारों ने गणना के तरीके पर एतराज किया है। ऐसे में अखबार ने सरकारी खबर छापी है लेकिन सरकारी दावे की तरह। अमर उजाला ने उसे अपनी खबर की तरह प्रचारित कर दिया है और नीति आयोग के दावों की पुष्टि कर दी है।
यहां यह बताना अनुपयुक्त नहीं होगा कि नीति आयोग पुराना योजना आयोग है और नाम बदलने को भी उपलब्धि बताने वाली सरकार ने उसे अब नीति आयोग बना दिया है जबकि यह भारत सरकार के थिंक टैंक की तरह काम करता और इसे आर्थिक विकास को उत्प्रेरित करने का जिम्मा दिया गया है। अंग्रेजी में यह नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया के लिए लिखा जाता है और इसलिए इसे हिन्दी में नीति नहीं लिखकर निति लिखना चाहिये लेकिन नाम है और हिन्दी में नीति ही लिखा जाता है, जो भ्रामक है। इस नीति आयोग के आज के प्रचार के साथ द टेलीग्राफ ने आज अपनी लीड के बराबर में एक और महत्वपूर्ण खबर छापी है। इसके अनुसार, देश में अर्सैनिक बलों के जवानों में मानसिक बीमारी के मामले बढ़ रहे हैं। इसके अनुसार पिछले पांच वर्षों में 654 लोगों ने खुदकुशी की है। मरीजों की संख्या 2020 में 3584 थी जो 2022 में 4940 हो गई। यही नहीं, छह केंद्रीय सशस्त्र अर्धसैनिक बलों के 46960 ने पछले पांच वर्षों में अपनी नौकरी छोड़ी है।
जाहिर है जरूरत इसपर बात करने की होनी चाहिये और कारणों का पता लगाकर उसे दूर करने के उपाय होने चाहिये। ऐसे में आज द टेलीग्राफ का कोट कन्हैया कुमार का है जो हिन्दी में इस प्रकार होगा, राजनीति को महज चुनावों तक सीमित मत कीजिये। न्याय का मतलब सीटों और वोटों की संख्या नहीं है …. महात्मा गांधी ने चुनाव नहीं लड़ा था पर उन्होंने न्याय की लड़ाई लड़ी थी। यहां यह भी बताया जा सकता है कि राहुल गांधी की न्याय यात्रा के दूसरे दिन ही यह खबर आज पहले पन्ने पर नहीं दिख रही है। और मामला न्याय मिलने तक का है। फिर भी टेलीग्राफ को छोड़कर कई अखबारों में न्याय यात्रा की खबर पहले पन्ने पर नहीं है और मंदिर-मूर्ति की खबर अनिवार्य रूप से पहले पन्ने पर है। हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे पहले पन्ने के अधपन्ने पर छापा है।
इंडियन एक्सप्रेस में भी आज पहले पन्ने पर मंदिर और मूर्ति की खबरें हैं जबकि पहला पन्ना आज विज्ञापनों से भरा है। पहले पन्ने पर आधे पेज के एक विज्ञापन के बावजूद मास्ट हेड के नीचे तक दो कॉलम का एक और विज्ञापन है। ऐसे में पहले पन्ने पर क्या खबरें होनी थीं। जो हैं उनमें एक मंदिर की तस्वीर है और तीन कॉलम की खबर से बताया गया है कि अरुण योगीराज की राम लल्ला की मूर्ति नए मंदिर में लगाई जायेगी। अयोध्या ट्रस्ट ने इसकी पुष्टि की है। धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक देश में सरकार को मंदिर, मूर्ति, प्राण प्रतिष्ठा नहीं करना चाहिये पर सरकार को राजनीति भी करनी होती है। लेकिन अखबार? उन्हें तो वाच डॉग की भूमिका में रहना है। कमाना खाना ही है। सरकार सुविधाएं देती है। देश भर के महानगरों में एक्सप्रेस बिल्डिंग है ही, नोएडा में भी है, जनसत्ता के लिए अलग। और सत्तारूढ़ दल की सेवा ऐसी कि गोमांस नहीं खाने वाले मेरे जैसे हिन्दू को भी खबरों का चयन देखकर उबकाई आती है। अगर यह स्थिति है तो देश को हिन्दू राष्ट्र बनने से कौन रोकेगा?
खासकर इसलिए कि इंडियन एक्सप्रेस जो है (और नेशनल हेराल्ड का जो हाल है) उसमें पिछली और दूसरी सरकारों का भी योगदान है और नैतिक रूप से उसे देश हित में काम करना चाहिये न कि हिन्दू राष्ट्र के लिए। वैसे भी, हिन्दू राष्ट्र बनाने वालों के राज में सबका नहीं तो सिर्फ हिन्दुओं का भी भला हो रहा होता तो यह सवाल छोड़ा जा सकता था पर जो हाल है उसे इंडियन एक्सप्रेस की इन खबरों से समझिये। सरकारी प्रचार की खबरें आप पढ़ चुके हैं। झूठे वादों और जुमलों का हाल आप जानते हैं। यह कि भी इसमें सहयोग करने वालों को कैसे पुरस्कृत किया गया है।
आज इंडियन एक्सप्रेस का एक पन्ना। ऊपर-नीचे विज्ञापन है, ये तीन खबरें पूरे पन्ने पर हैं। तीनों खबरें कितनी गंभीर हैं, बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन सरकार के दावे, समर्थकों के संतोष और अखबारों के पहले पन्ने देखिये। डबल इंजन की सरकार में महिला को तीन महीने तक परेशान किया जाता रहा। एक शिकायत के बाद अभियुक्त जमानत पर छूट गया उसे डर ही नहीं है। आम आदमी पार्टी के मंत्रियों जनप्रतिनिधियों को जमानत नहीं मिल रही है। कोई देखने वाला नहीं है और महिला को यह आश्वासन नहीं है कि वह फिर शिकायत करे। कानून-व्यवस्था का पालन करने वालों के भरोसे रहे। डबल इंजन की सरकार है। दूसरा मामला दिल्ली का है। कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दिनों अवैध रूप से विदेश जा रहे भारतीयों से भरा एक विमान वापस आया, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी हुई तो पुलिस अब ‘काम’ कर रही है। उपलब्धि प्रचारित कर रही है। तीसरी खबर देश की राजनीति में विकल्प के रूप उभरने वाली पार्टी का हाल है। मजबूरी हो या इच्छा उसे भी वही करना पड़ रहा है जो बहुमत चाहता है। आखिर सत्ता में बने रहने की मजबूरी यही है जो राहुल गांधी खुलकर नहीं कर रहे हैं तो बुद्धिजीवी कहे जाने वाले और उसके अपने लोग भी कह रहे हैं कि उसने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली।
राजनीति कर सत्ता मिलने के बाद यह मजबूरी हो तो राजनीति में कैसे लोग आयेंगे? भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी की सरकार को चुनावों में हराने के लिए अगर राहुल गांधी न्याय यात्रा निकाल रहे हैं, विपक्ष एकजुट हो रहा है, इंडिया गठबंधन बनाया और अखबार उसे I.N.D.I.A लिख रहे हैं तब खबर है कि बसपा पूरी तैयारी से अकेले लड़ेगी चुनाव। जाहिर है, भाजपा विरोधी वोट इससे बंटेंगे और यह बड़ी खबर है। इसी तरह, आज की एक और महत्वपूर्ण खबर है, विधानसभा अध्यक्ष के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा उद्धव गुट। महाराष्ट्र का मामला आप जानते हैं हाल में जो हुआ वह अखबारों ने भले नहीं बताया, मैंने यहां तो लिखा ही था। विज्ञापन के कारण ये सब खबरें आज इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर नहीं हैं लेकिन मंदिर और मूर्ति की खबर है। इस जर्नलिज्म ऑफ करेज को कवर करने का आनंद ही अलग है।
सब चंगा सी के प्रचार और घुस कर मारने के दावे के पांच साल बाद स्थिति यह है कि सेना एलएसी की घटनाओं का वीडियो सार्वजनिक करती है और उसे डिलीट कर देती है (टाइम्स ऑफ इंडिया)। दूसरी ओर प्रधानमंत्री गोसेवा करते हैं तो वह पहले पन्ने की खबर बन जाती है। बहुत अच्छे और सिर्फ जनहित में जीवन लगा देने वाले प्रधानमंत्री को भी इतना अनुकूल मीडिया क्यों मिलना चाहिये जब चुनाव हारने वाले को गवरनर बनाया जा रहा है, पेगासस और अदाणी के मामले सामने है। जहां तक कानून व्यवस्था की स्थिति का सवाल है, चीनी मांजे की बिक्री तक नहीं रुक रही है। गुजरात में चार और मुंबई व मध्य प्रदेश में एक-एक व्यक्ति से मौत की खबर आज टाइम्स ऑफ इंडिया में है। इसलिए प्रधानमंत्री बुरे और कमजोर न भी हों तो ऐसा नहीं है कि उनसे अच्छा हो ही नहीं सकता है। मौका दिया जाना चाहिये। इनका सच भी मौका देने से ही पता चला। वरना सपनों का भारत बन ही रहा था।
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