सोशल मीडिया पर पिछले कुछ सप्ताह से बीबीसी के हिंदी सर्विस के बारे में काफी कुछ पढ़ने को मिल रहा है। वह सही है या गलत है, मुझे नहीं पता। लेकिन, मीना कोतवाल के टर्मिनेशन की खबर का दुख है। चूंकि, मीना मेरे साथ आईआईएमसी (बैच 2013-14) में थी और मेरे साथ उनको पहला ‘आलोक तोमर फेलोशिप’ मिला था। वह रेडियो एंड टीवी कोर्स में थी, मैं हिंदी पत्रकारिता में था। वह फेलोशिप तब से हर वर्ष साधारण परिवारों से आने वाले मेधावी छात्रों को दिया जाता है।
अगर मीना की नौकरी बीबीसी में कॉन्ट्रेक्ट बेसिस पर हुई थी और कॉन्ट्रेक्ट पूरा होने पर उन्हें वहां से नौकरी छोड़नी पड़ रही है, तो यह एक स्वाभाविक सांस्थानिक प्रक्रिया है। लेकिन, यदि उनके साथ कॉन्ट्रेक्ट पर गये लोगों को परफॉर्मेंस के आधार पर परमानेंट किया गया और मीना को निकाला जा रहा है, तो यह साफतौर पर मीना के साथ भेदभाव है। क्योंकि, मीडिया की दुनिया के ‘परफ़ॉर्मर’ मौके पाने वाले होते हैं। जैसे वह कोई अंजना हो सकती हैं, कोई चित्रा हो सकती हैं या फिर कोई अन्य भी हो सकता है। मीना ने भी कुछ अच्छे रिपोर्ट किये थे, जिसे मैंने पढ़ा भी था।
बीबीसी, हिंदी का पाठक, श्रोता होने के नाते शुरू से बीबीसी का ‘एज अ ब्रांड’ सम्मान करते आया हूं। पत्रकारिता की दुनिया में आने के बाद वहां काम करने वाले लोगों को भी जाना। मेरा तो मानना है कि भारत में चलने वाले किसी भी ‘विदेशी संस्थान’ को भारतीय संविधान द्वारा दिये गये ‘अफर्मेटिव एक्शन’ यानी ‘आरक्षण’ का पालन करना अनिवार्य होना चाहिए। ताकि, उन विदेशी निवेश वाले संस्थानों में सामाजिक प्रतिनिधित्व बराबर रूप से हो सके। लबर-चपर अंग्रेजी के नाम पर सिर्फ एक ही अभिजात्य वर्ग के लोगों को भरने का उपक्रम न चले।
अगर कानूनी तौर पर ऐसा हो सके तो इसकी लड़ाई लड़ी जानी चाहिए। वह भी सड़क से संसद तक। बाकी, बीबीसी यदि एकसमान एग्जाम लेकर किसी को चयनित करती है, तो उसे नौकरी करने के पूरे मौके देने पर विचार करे। मीना पर भी उनको विचार करना चाहिए। रही बात भेदभाव की, तो भेदभाव के कई परत हैं। उनमें जाति, लिंग, वर्ग, अमीरी, भाषा, क्षेत्र, राज्य, रंग, पहनावा आदि तमाम चीजें शामिल हैं। इसलिए, बीबीसी हो या न्यूयॉर्क टाइम्स भेदभाव हर जगह होते हैं/होंगे। यही सत्य है, यही नित्य है। बाकी, जो है सो हैइये है।
विवेकानंद सिंह
रांची
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