Ajay Brahmatmaj-
पत्र-पत्रिकाओं में लिखने की शुरुआत तो बहुत पहले हो चुकी थी। जेएनयू में पढ़ाई के दौरान अतिरिक्त आय के लिए मैंने मुख्य रूप से अनुवाद और छिटपुट रूप से छोटे-मोटे लेख लिखना शुरू कर दिया था। नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज और धर्मयुग इत्यादि पत्रिकाओं के लिए लिखते समय मैंने कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दौरान लिखी जा रही भाषा ही जारी रखी।
दैनिक अखबारों के लिए मनोरंजन, भोजन, पर्यटन आदि विषयों पर लिखना आरंभ करने के बाद मेरी भाषा में परिवर्तन आता गया। दैनिक जागरण के साथ 1999 में फिल्म पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत करते समय मैंने सोच-विचार कर एक ऐसी भाषा इस्तेमाल की, जो अखबार के आम पाठकों तक सही अर्थों में पहुंचे।
मुझे साहिर लुधियानवी के एक इंटरव्यू की याद आ रही है। उनसे पूछा गया था कि शायर और गीतकार में क्या फर्क होता है? उनका जवाब था कि फिल्मी गीतों में हमें ऐसे शब्द रखने पड़ते हैं, जो फिल्मों के आम दर्शक भी समझ सकें। शायरी में इसकी जरूरत नहीं महसूस होती। साहित्यिक लेखन और फिल्म पत्रकारिता में भी लगभग ऐसा ही फर्क होता है। अगर आप विज्ञान, दर्शन और ऐसे कुछ दूसरे विषयों की पत्रकारिता कर रहे हैं तो आपकी भाषा थोड़ी अलग और विशिष्ट हो सकती है, किंतु फिल्म पत्रकारिता में ख्याल रखना पड़ता है कि आपकी बात और बातचीत आमफहम शब्दावली में हो। मैंने पाया है की फिल्मों के लेख लगभग सभी पाठक पढ़ते हैं जबकि संपादकीय, खेल, बिजनेस आदि विषयों के लेख के खास पाठक होते हैं। इसलिए फिल्मों पर लिखे लिखे की भाषा सहज, आसान और आम हो। इस चुनौती को सुलझाते समय यह भी ध्यान में रखना पड़ता है कि अगर कोई प्राध्यापक या उच्च शिक्षा प्राप्त पाठक पढ़ रहा हो तो उसे वह भाषा फूहड़ ना लगे।
दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर और फिर से दैनिक जागरण में फिल्म पृष्ठों पर लिखते समय मैंने खुद इस बात का पूरा ख्याल रखा। इन दिनों अपने पुराने लेखो को पढ़ता हूं और हाल -फिलहाल के लेखन से उनकी तुलना करता हूं तो भाषायी फर्क स्पष्ट समझ में आता है।
इंटरव्यू में मैंने अपनी खास तकनीक यह रखी कि मैं सारी बातचीत ऑन रिकॉर्ड करता रहा। मैंने जल्दीबाजी में भी नोट लेने का काम नहीं किया। 2004-5 में तो मोबाइल आ गया था। कुछ सालों के बाद उसमें रिकॉर्डिंग की भी सुविधा आ गई। उसके पहले मैं कैसेट रिकॉर्डर या वॉइस रिकॉर्डर लेकर चलता था। इसकी पहली वजह तो यही थी कि मैं बहुत तेज नहीं लिख सकता था। अगर लिख भी लिया तो खुद पढ़ नहीं सकता था। रिकॉर्ड करने पर यह सुविधा रहती थी कि मैं उन प्रतिभाओं की सारी बातें उन्हीं के शब्दों और भाषा में लिख देता था। मेरे सारे इंटरव्यू में कलाकारों, फिल्मकारों और संबंधित प्रतिभाओं की ही भाषा है। प्रतिभाओं की बोली हुई बातों में मैंने सिर्फ व्याकरणिक परिवर्तन किया है। इंटरव्यू अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है।
पत्र-पत्रिकाओं में वरिष्ठ इस पर ध्यान दें तो काफी सुधार आ सकता है। मेरा मानना है कि इंटरव्यू आमने-सामने बैठकर हो तो ज्यादा बेहतर होता है।
मैंने जितने लेख लिखे हैं, उससे ज्यादा इंटरव्यू किए हैं। धीरे-धीरे मैं सारे इंटरव्यू संकलित कर रहा हूं। मेरे पास पुराने ऑडियो कैसेट में रिकॉर्ड इंटरव्यू हैं। उनका डिजिटाइजेशन करना है। सही उपकरण की सलाह अपेक्षित रहेगी।