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भास्कर कोई छोटा-मोटा अखबार नहीं, नया भी नहीं, फिर यह क्या और क्यों कर रहा है…

: यह कैसी पत्रकारिता : दैनिक भास्कर कोई छोटा-मोटा अखबार नहीं है। नया भी नहीं है। फिर यह क्या और क्यों कर रहा है। मीडिया के कॉरपोरेटीकरण में इस बात का कोई मतलब नहीं है कि संपादक कौन है या अखबार किसका है। मतलब ब्रांड का है और ब्रांड की ऐसी फजीहत। वह भी तब जब आसानी से स्थिति सुधारी और अपने अनुकूल की जा सकती है। इसके बावजूद अगर ब्रांड नाम की फजीहत हो रही है तो उद्देश्य बड़े होंगे या ब्रांड खोखला है। अभी मैं इस बाबत कुछ कह नहीं सकता और यही मानकर चल रहा हूं कि अखबार चलाने वालों को जो परिपक्वता और सूझ-बूझ दिखाना चाहिए वह कहीं नहीं दिख रहा है।

देश में पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों की जो स्थिति और स्तर है उसके मद्देनजर संभावना इस बात की भी है कि मीडिया मालिकों को यह मुगालता हो जाए कि हमारे कर्मचारी जब प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी खिंचवाते हैं तो एसपी की क्या औकात। पर यह सब ठीक नहीं है और निरंकुशता थोड़ी देर चल जाए, चलती नहीं रह सकती है। आप जानते होंगे कि दैनिक भास्कर ने एक ऐसी खबर प्रकाशित की जो सांप्रदायिक सौहार्द के लिहाज से संवेदनशील थी और निश्चित रूप से खबर को प्रकाशित करने में संपादकीय विवेक का उपयोग नहीं किया गया था।

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अव्वल तो वह खबर वैसे जानी ही नहीं चाहिए थी जैसे गई और अगर जानी ही थी तो उसे खबर के बुनियादी सिद्धांतों के अनुरूप आरोपी के पक्ष के साथ लगाया जाना चाहिए था। इससे खबर संतुलित भी हो जाती। खबर में लिखा है कि एसपी ने कहा कि मामले की जांच कराई जाएगी। अगर ऐसा था तो इंतजार किया जाना चाहिए था पर जल्दी या पहले खबर देने की प्रतिस्पर्धा के लिहाज से इंतजार संभव नहीं था तो भी दूसरे पक्ष का बयान तो होना ही चाहिए था। खबर जिस ढंग से छपी वह निश्चित रूप से आपत्तिजनक है और सोशल मीडिया पर उसका विरोध होना था, हुआ। इसके बाद हो सकता है एसपी पर कार्रवाई के लिए दबाव भी बना हो।

मैंने भी इस खबर पर प्रतिक्रिया में यही लिखा था कि अगर किसी के घर पर पाकिस्तानी झंडा फहराए जाने पर एतराज था या यह खबर थी तो जिसने लगाया था उससे बात की जानी चाहिए थी और तब खबर लिखना चाहिए था। बात की जाती तो पता चल जाता कि रिपोर्टर और फोटोग्राफर जिसे पाकिस्तानी झंडा समझ रहे थे वह पाकिस्तानी नहीं है, कुछ और है। दूसरे झंडा फहराने वाले का पक्ष जाता तो खबर संतुलित हो जाती है। पर ऐसा नहीं किया गया और अगर यह मान लिया जाए कि खबर छापने के पीछे कोई गलत भावना नहीं थी तो भी लापरवाही साफ दिखाई दे रही है और खबर छापने से पहले इस बात की परवाह नहीं की गई कि खबर छपने से सांप्रदयिक सौहार्द बिगड़ सकता है – और ऐसा करना अपराध है। मैंने लिखा था यह मामला दंगा भड़काने या सांप्रदायिक सद्भाव खराब करने की कोशिश में आएगा। भारत में कोई मीडिया से पंगा नहीं लेता वरना एफआईआर होनी चाहिए।

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एफआईआर इसलिए भी होनी चाहिए थी कि पहली नजर में यह मामला चूक का नहीं था। पुलिस जांच का इंतजार किया जाता या झंडा फहराने वाले या मुसलिम समुदाय के किसी व्यक्ति से पक्ष जानने की कोशिश की गई होती तो मामला स्पष्ट हो जाता है। जरा सी बुद्धि लगाई जाती तो समझ में आता कि आज के सहिष्णु बताए जा रहे माहौल में कौन मुसलमान हिम्मत करेगा अपने घर पर पाकिस्तान का झंडा लगाने का या ऐसा करके पंगा करना चाहेगा। फिर भी लगा था तो कोई कारण होगा। उसे पता किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि अति उत्साह में पहले गलतिया नहीं हुई हैं और जो हुई हैं वे पत्रकारों को मालूम ना हो। जैसे, उपराष्ट्रपति योग समारोह में नहीं गए थे तो कारण था – पर इंतजार नहीं करके जल्दबाजी में किया गया ट्वीट वापस लेना पड़ा था। ऐसे और भी मामले हैं। कार्रवाई किसी मामले में नहीं हुई।

दौसा के इस मामले में एफआईआर तो अखबार के संपादक और मुद्रक के खिलाफ भी होनी चाहिए और कार्रवाई कायदे से उनके खिलाफ भी होनी चाहिए। क्योंकि छोटी मछलियों के खिलाफ कार्रवाई मामले की लीपापोती भर है समस्या का निदान नहीं। अपराध रोकने का उपाय नहीं। अखबार में अगर नालायक, अक्षम या गैर जिम्मेदार लोग हैं तो ऐसा होगा ही। और भविष्य में इस और दूसरे अखबार में ऐसा न हो इसलिए संपादक और मुद्रक को गिरफ्तार किया जाना चाहिए कार्रवाई उनके खिलाफ भी होनी चाहिए। असली जिम्मेदारी उनकी ही होती है। हो सकता है एसपी ने मामले को स्थानीय स्तर का ही माना हो और ज्यादा तूल न देने के लिए नीचे के लोगों को गिरफ्तार किया हो। अखबार इतने पर संभलने और गलती मानने की बजाय दंबई दिखा रहा है। एसपी को धमकाने की ही कोशिश नहीं कर रहा है उनपर आरोप लगा रहा है और बातें छिपा रहा है।

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अखबार ने जो खबर छोपी उसका शीर्षक है, “एसपी का गुंडाराज, चार बजे एफआईआर, डेढ़ घंटे बाद ही पत्रकार गिरफ्तार”। अव्वल तो यह प्रशंसनीय है कि आरोप लगने पर डेढ़ घंटे में ही दौसा जैसे शहर में भास्कर के पत्रकार जैसी प्रभावशाली हस्ती को गिरफ्तार कर लिया गया पर अखबार इसे गुंडाराज बता रहा है जबकि खुद गुंडई कर रहा है। अखबार ने आगे लिखा है, “दौसा में पुलिस अधीक्षक योगेश यादव के गुंडाराज के आगे जनता बेबस नजर रही है। अब तो शहर में हालात यह हो गए कि मामलों में बिना जांच के ही एसपी के हुक्म से पुलिस निर्दोष लोगों को गिरफ्तार करने लगी है। शहर में बढ़ रहे अपराधों पर अंकुश लगाने में नाकाम एसपी के खिलाफ जब भास्कर ने लगातार खबरें प्रकाशित की तो बौखलाए एसपी ने पत्रकार भुवनेश यादव को ही गिरफ्तार कर लिया।

गिरफ्तारी से पहले एसपी के निर्देश पर शुक्रवार शाम चार बजे पत्रकार के खिलाफ साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने का आरोप लगा मामला दर्ज किया गया। मामला दर्ज होने के महज डेढ़ घंटे बाद ही करीब साढे़ पांच बजे पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया। वह भी तब जब पत्रकार यादव सूचनाएं एकत्र करने के लिए एसपी ऑफिस गए थे।” यह सरासर बदमाशी है और अखबार या खबर देने के अधिकार का दुरुपयोग। कायदे से अखबार को गलती स्वीकार कर माफी मांगनी चाहिए पर वह उल्टे धौंस जमा रहा है।

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लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे जनसत्ता अखबार में लंबे समय तक काम करने के बाद इन दिनों सेल्फ इंप्लायड के बतौर अनुवाद का काम संगठित तौर पर करते हैं. संजय से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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