हिंदी के प्रतिभाशाली कवि और आलोचक पंकज चतुर्वेदी फेसबुक पर लगातार ‘वीरेन डंगवाल स्मरण’ लिख रहे हैं. अब तक 36 कड़ियां प्रकाशित कर चुके हैं. नीचे पंकज के एफबी वॉल से दो कड़ियां उठाकर यहां प्रकाशित की जा रही हैं:
Pankaj Chaturvedi : तुम अगर यह स्वीकार करते थे कि क्रान्ति की मुद्राओं से क्रान्ति नहीं होगी, तो इससे भी सहमत नहीं थे कि कुछ न करने से कुछ होगा। कभी-कभी कोई बात तुम्हें इतनी पसंद आती कि जैसे उसमें तुमने अपना अक्स देखा हो—-
बक़ौल ग़ालिब—-”मैंने यह जाना, कि गोया यह भी मेरे दिल में है।”
एक बार जब मैंने मीर का एक शे’र सुनाया, तो तुम कई दिनों तक बहुत ख़ुश रहे थे, ख़ास तौर पर उसकी पहली पंक्ति से : ”शाइर हो, मत चुपके रहो, अब चुप में जानें जाती हैं!”
यह तमीज़ भी मैंने तुमसे सीखी कि जैसे कोई अच्छा काम करे, तो सबसे पहले उसका एहसान अपने पर है।
तुम्हारे एक मित्र ने जब तुम्हारे सामने दावा किया कि ‘देखो, मेरा यह शरीर संगठन के काम में जर्जर हो गया, ये हड्डियाँ आंदोलन में ही तो गली हैं’; तुमने बेसाख़्ता उनसे कहा : ”तुम्हारी जो थोड़ी-बहुत इज़्ज़त है, वह भी इसी वजह से है।”
कभी मैंने तुमसे पूछा था : ‘कुछ लेखक किसी धरना-प्रदर्शन, अनशन, जुलूस, बहिष्कार, विरोध या हस्ताक्षर अभियान में शामिल क्यों नहीं होते ?’
”इनका मक़सद है कि”—–तुमने जवाब दिया था—-”शिनाख़्त से बचो।”
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 36)
Pankaj Chaturvedi : तुम कहते थे, ‘अगर तुम्हें तुम्हारा प्राप्य न मिले, तो भी कुंठित मत होना !’…….”कुछ चिन्ताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं / पर ऐसी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने।”
जब एक कवि ने कहा कि ‘मैं अपना सब कुछ दाँव पर लगा चुका, अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुका, अब यही बचा है कि हिन्दी साहित्य संसार के सामने अपना ख़ून बिखरा दूँ ‘; तुम इस रूपक से खिन्न हुए :” ‘मॉर्बिड’ मत होना यार ! लोग नहीं समझ रहे हैं, तो न समझें।”
कभी मैंने तुमसे तुम्हारी किसी कविता के लिए कहा कि वह कमज़ोर है, तो तुम न नाराज़ हुए, न एक शब्द बोले।
मैंने देखा कि कवि वह है, जिसमें अपनी आलोचना को सहन करने की संजीदगी हो और जो प्रत्याक्रमण न करे। निजी हमला हो, तो भी—-अगर जवाब देने की विवशता हो—-कम-से-कम हमला करनेवालों की मानसिकता से बचे—-”अपनी अक़्ल से मुझे बख़्शे रखना सियार !”
आक्रमण प्रतिगामी प्रवृत्तियों पर चोट करने के प्रसंग में ही तुम्हें मूल्यवान् और आकर्षक लगता था। अन्यथा तुम्हारी राय थी कि उसे आभूषण की तरह धारण करना वाजिब नहीं। एक सभागार से निकलते समय तुमने कहा था : ”आक्रोश को अपना यू. एस. पी. नहीं बनाना चाहिए।”
तब तक मैं नहीं जानता था कि यू. एस. पी. का मतलब है—‘यूनीक सेलिंग पॉइंट’।
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 30)