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लेखन की दुनिया में धीरे-धीरे अकेले होते जाना…

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विमल कुमार-

“कीर्ति गान “और “वैधानिक गल्प” के चर्चित लेखक चंदन पांडे ने आज विजयमोहन सिंह स्मृति पुरस्कार ग्रहण करते हुए कहा कि वह लेखन की दुनिया में धीरे-धीरे अकेले हो गए हैं .उनकी इस टिप्पणी को सुनकर मुझे निर्मल वर्मा का लिखा हुआ यह वाक्य याद आया कि लेखक अकेला होता है।

हम में से कइयों को यह अनुभव हुआ है कि वह लेखक के रूप में धीरे-धीरे अकेले होते चले गए । इस अकेलेपन के लिए समाज और समय का भी योगदान होता है तो कई बार लेखक अपने स्वभाव से भी अकेला हो जाता है लेकिन चंदन पांडे ने अपने इस कथन में एक वाक्य यह भी जोड़ा कि जब से उन्होंने यह दो किताबें लिखी हैं, उनके मित्र भी उनके दुश्मन हो गए हैं। शायद उनके अकेलेपन का यह कारण रहा हो कि उनके समकालीन मित्रअब उनके मित्र नहीं रहे।

आखिर इसके पीछे क्या कारण हो सकता है ?क्या यह माना जाए कि हिंदी की दुनिया में एक लेखक का समकालीन मित्र उससे इतना ईर्ष्या करने लगता है कि वह धीरे-धीरे उसका दुश्मन होता जाता है। कुछ तो “घोषित” तौर पर “दुश्मन” होते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी “दुश्मन” हैं जो “अघोषित” रहते हैं। ऊपर से तो वह मित्र दिखते हैं लेकिन भीतर ही भीतर वह दुश्मन होते हैं। असल में हिंदी की दुनिया में लेखन में कैरियर इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि हर कोई तात्कालिक रूप से सफल होना चाहता है।

हालांकि इस सफलता का कोई स्थाई अर्थ नहीं है। यह सफलता एक तरह का भ्रम है लेकिन कुछ लोगों को यह भ्रम भी नसीब नहीं होता है कि वे सफल हैं। क्या एक लेखक अपने मित्र लेखक का इसलिए दुश्मन हो जाता है कि उसे तथाकथित यश या सफलता या मान्यता नहीं मिली , उसकी कृति उपेक्षित रह गई या जबकि उसके साथी लेखक को मिली।आखिर जो भी कारण रहे हो पर यह बहुत दुखद है हिंदी की दुनिया में लेखक एक दूसरे के दुश्मन हो जाते हैं।

यह दुश्मनी लेखिकाओं के बीच में भी है चाहे वे 75 या 80 साल की हों या 60 -65 साल की या 35– 40 साल की। लेखन लेखक को उदार और सहिष्णु नहीं बना रहा बल्कि वह आक्रामक अधीर हिंसक बना रहा है ।हिंदी में संवाद कम विवाद अधिक है।पता नहीं चंदन के मित्र उनके इस बयान के बाद और शत्रु हो जाएंगे या मित्र।यह तो चंदन ही बता सकते हैं।

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