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सुख-दुख

तो क्या हम मान लें कि कुछ प्राणी हीन हैं और कुछ श्रेष्ठ हैं, और श्रेष्ठ के ही जीवन का महत्व है?

सुशोभित-

एक चीते की मृत्यु ने सुर्ख़ियों में जगह पाई। किन्तु चीतों के शिकार के लिए उनके बाड़े में जो हिरण तश्तरी में सजाकर परोसे गए थे, उनकी संस्थागत हत्या किसी ख़बर का हिस्सा नहीं बनी। तो क्या हम मान लें कि कुछ प्राणी हीन हैं और कुछ श्रेष्ठ हैं, और श्रेष्ठ के ही जीवन का महत्व है? और यह निर्णय मनुष्यों के द्वारा लिया जाएगा कि किसे जीवित रहना है और किसको नहीं?

चीते जंगल में हिरणों का शिकार करते हैं। लेकिन वह जंगल है और उसमें चीते को चकमा देने, अपनी जान बचाकर भागने का भी पूरा अवसर हिरण के पास है। पर चीते के बाड़े में हिरणों को चारे की तरह निरुपाय फेंक देने का क्या अर्थ है, और वह भी नीतिगत रूप से? अगर किसी विलुप्त हो रहे वन्यप्राणी के संरक्षण की यही क़ीमत है तो यह क़ीमत चुकाने को हमें क्यों तैयार होना चाहिए? प्रकृति में यों भी असंख्य प्राणी आकर विलुप्त हो चुके हैं। मनुष्य अधिक से अधिक इतना ही करें कि स्वयं उनके विलोप में अपनी ओर से कोई योगदान न दें। इतनी भर ही कृपा होगी, इससे अधिक नहीं।

एक समय मनुष्यों का जीवन भी ऐसे ही तर्कों से संचालित होता था। नस्लवाद नात्सीवाद को जन्म देता था, जो कहता था कि कुछ नस्लें श्रेष्ठ हैं और कुछ निकृष्ट। श्रेष्ठ जीवित रहे इसलिए निकृष्ट को मर जाना चाहिए। फिर राष्ट्र-राज्य उभरे और लोकतंत्र, संविधान और क़ानून का प्रवर्तन हुआ, उन्होंने प्रकट में कहा कि क़ानून के सम्मुख सभी मनुष्य समान हैं। यह एक सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क है। वैसा सच में है नहीं, क्योंकि सत्तासीनों और धनिकों के अधिकार साधारणजन से अधिक हैं, उन्हें संरक्षण भी अधिक है। किंतु किन मनुष्यों को मर जाना चाहिए, यह निर्णय अब सरकारों ने करना बंद कर दिया है, इतनी ग़नीमत है। पशुओं के मामले में अभी यह चेतना नहीं आई है। मैं पूछता हूँ, क्यों नहीं आई है?

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मनुष्यों में जो नस्लवाद है, वही पशुओं के परिप्रेक्ष्य में प्रजातिवाद है। यह भावना कि कुछ पशु प्रिय हैं, कुछ पूज्य हैं, कुछ शानदार हैं, कुछ संरक्षणीय हैं- जबकि कुछ अन्य करोड़ों-अरबों की संख्या में मारे जाने के योग्य हैं। हाथी पर बनाई फ़िल्म पुरस्कृत होती है और ईस्टर के लिए भेड़ों के सामूहिक क़त्ल की तैयारियाँ उसी के साथ शुरू होती हैं। थैंक्सगिविंग का टर्की बड़ा मशहूर है। ईद के बकरे की तरह। वह बलि के लिए मनुष्यों के द्वारा चुन लिया गया कि उसका नाम ही अजबलि पड़ गया। कामाख्या को पक्षियों की बलि प्रिय प्रतिपादित कर दी गई। एक बार हम इस वीभत्स सिद्धान्त को स्वीकार कर लेते हैं तो हम चाहे जितना स्वाँग कर लें, मनुष्यों के परिप्रेक्ष्य में भी इससे बच नहीं सकेंगे- देर-सबेर यह धारणा वहाँ भी प्रवेश करेगी ही, अवचेतन के लोक में तो पहले ही प्रविष्ट है- कि कुछ जातियों का जीवन कुछ अन्य जातियों की तुलना में हीन है।

चीता बड़ा शानदार प्राणी है। उसकी तुलना में हिरण इतना शानदार नहीं है। वह निरीह है। तो हमारी सम्वेदना शक्तिशाली के प्रति होनी चाहिए या निर्बल के? यह निर्णय भी लगे हाथ कर ही लें। क्योंकि सामाजिक-न्याय के हमारे बहुतेरे मानदण्ड इससे उलटी बात कहते हैं।

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जब चीते पहले-पहल भारत में लाए गए थे, तब गायें लम्पी बीमारी से मर रही थीं। हमने देखा कि कौन पशु सरकार का सगा है और कौन सौतेला है। सगे की ख़िदमत की गई, उसे भोजन के रूप में जीवित प्राणी परोसे गए। सौतेले को सड़कों पर तड़फकर मरने दिया गया। इकलौती चिंता तब यही उपजी थी कि कहीं इससे दूध के दाम तो ना बढ़ जावेंगे, महामारी तो ना फैल जावेगी? प्राणी को पदार्थ की तरह देखने की यह वृत्ति जघन्य है। सामूहिक-उत्पादन का उपकरण जिसे स्वीकार कर लिया गया, उस शांति, सहिष्णुता और धैर्य के प्रतीक प्राणी की सामूहिक मृत्यु चिंता का विषय क्यों न थी, चीते की क्यों है?

प्रकट में भले भारत-देश गाय के प्रति स्नेह की अभिव्यक्ति करता हो, उसके मन में तो आज चीते की ही छवि बसी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकेगा। पर आपको पता है, हिंसा क्या होती है? हमें लगता है कि हिंसा का सम्बंध शौर्य और ओज से है, भुजाओं में फड़कते बल से है, पुरुषार्थ से है। जबकि वास्तविकता यह है कि हिंसा का सम्बंध अनिष्ट के उस अंदेशे से है, जो आपकी छाती को धड़का देता है, जब आपके बच्चे देर रात तक घर नहीं लौटते। हिंसा कोई सुंदर और उपास्य वस्तु नहीं है, जैसा कि प्रचलित कर दिया गया है। और मैं आपसे कहूँगा कि हिंसा के प्रतीकों का पूजन करने वाला देश आत्मनाश की तैयारी में जुट जाता है। अख़बारों की सुर्ख़ियाँ भी तब हिंसा के प्रतीकों का ही जयगान करती बरामद हों तो आश्चर्य नहीं। खेद अवश्य है।

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