रंगनाथ सिंह-
CPI-ML Liberation के करीब पाँच दशक के इतिहास में कुल तीन पार्टी प्रमुख हुए हैं। सीधी सरल लोकतांत्रिक व्यवस्था है। जब तक जीवित रहेंगे, महासचिव रहेंगे। दीपांकर भट्टाचार्य तो सोनिया गांधी से ज्यादा समय तक पार्टी प्रमुख रह चुके हैं। CPI-ML Liberation का छात्र संगठन AISA देश के शैक्षणिक परिसरों में काफी सक्रिय है। CPI-ML Liberation का सांस्कृतिक संगठन जसम भी काफी लामबन्द है।
पिछले बिहार चुनाव से पहले तक लगता था कि CPI-ML Liberation भी सीपीआई की गति को प्राप्त हो रहा है लेकिन इन्होंने लालू यादव की पार्टी राजद से गठबंधन करके चुनाव लड़ा और अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 12 विधायक बिहार विधानसभा में भेजे।
AISA की शैक्षणिक परिसरों में दमदार उपस्थिति रही है इसलिए इसी संगठन से मेरे सबसे ज्यादा मित्र भी हैं। मित्रों, जब सारी प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों का खसरा-खतौनी निकाला जा रहा है तो आपका न निकाला जाता तो पक्षपात का आरोप लगता। आप पर जातिवाद का आरोप मैं नहीं लगाऊँगा क्योंकि आपकी भाषा में वह महज संयोग है लेकिन कम से कम आंतरिक लोकतंत्र तो बहाल कीजिए।
CPI, CPM और CPIML-Lib में दशकों तक घटित होते रहे संयोग हम पहले की पोस्ट में देख चुके हैं। जातीय वर्चस्व के मामले में इन तीनों दलों की स्थिति भाजपा और कांग्रेस से अलग नहीं है। ब्राह्मण समाज को इस बात की बधाई देना लाजिम है कि राष्ट्रीय स्तर पर फैशनेबल लगभग हर विचारधारा की कमान उन्होंने अपने हाथ में रखी हुई है। उन्होंने क्रान्ति और प्रतिकान्ति दोनों खेमों में संयोग की मात्रा कम नहीं होने दी है। खैर।
जिन तीन कम्युनिस्ट पार्टियाँ का ऊपर जिक्र हुआ वो लोकतांत्रिक हैं। चुनाव लड़ती हैं। जीतती-हारती हैं। माओवादी पार्टी इनसे अलग है। वह भारत सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर रही है। कुछ साल पहले माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो की लिस्ट बाहर आयी थी। लोगों को यह जानकार हैरानी हुई कि उसमें 90 प्रतिशत वो लोग हैं जो उस इलाके के आदिवासी नहीं हैं।
दलित वैचारिकी में रुचि रखने वाले Velivada वेबसाइट से परिचित होंगे। रोहित वेमुला एवं उनके कुछ साथियों को जब हैदराबाद यूनिवर्सिटी हॉस्टल से निकाल दिया गया तो उन्होंने फुटपाथ पर सामान रख लिया और वहाँ एक प्लेकार्ड लगा दिया जिसपर लिखा था- वेलीवाड़ा। तेलुगु में वेलीवाड़ा शायद वही अर्थ रखता है जिसे हमारी तरफ चमटोल कहते हैं। उन दलित छात्रों एवं बुद्धिजीवियों ने इसी नाम से कांशीराम के जन्मदिन के दिन वेबसाइट शुरू की।
साल 2017 में नीचे तस्वीर में दिख रहा आलेख वेलीवाड़ा पर छपा था। इस आलेख के कुछ हिस्से मैं अनुवाद में प्रस्तुत कर रहा हूँ-
“आदिवासी छत्तीसगढ़ के धरती के लाल हैं और राज्य की आबादी का 30 प्रतिशत हैं लेकिन वो अपना राजनीतिक दल बनाकर संगठित होने और राज्य सत्ता पर काबिज होने के काबिल नहीं है। वह जाति जो अतिअल्पसंख्यक है उसका छत्तीसगढ़ की सत्ता पर कब्जा है।….गरीब आदिवासी वो हथियार और असलहे कहाँ से ला रहे हैं जिनसे वो ताकतवर भारत सरकार से युद्ध कर रहे हैं?”
बाहरी कब्जे के खिलाफ आदिवासियों के विद्रोह का लम्बा इतिहास रहा है। कुछ लोगों ने आदिवासियों की इस जातीय स्मृति एवं परम्परा का इस्तेमाल किया और उन्हें तोप के सामने धकेल दिया। खुद तो दंडकारण्य के पीएम-सीएम-डीएम होने का सुख ले रहे हैं लेकिन गरीब-मासूम आदिवासियों को भारत के अर्धसैनिक बलों के सामने झोंके हुए हैं। दिल्ली में बैठे कई ब्राह्मण एवं सवर्ण मानते हैं कि भारत सरकार को जंगल में बैठने वाली इस ब्राह्मण महासभा के सामने झुक जाना चाहिए क्योंकि मासूम आदिवासी मारे जा रहे हैं! ऐसी सलाह देने वाले बहुतेरे लोग आजीवन भारत सरकार से सैलरी लेते रहे हैं।
जिस पोस्ट पर विवाद शुरू हुआ, जानबूझकर कई लोगों से पूछा कि क्या वो ‘माओवादी पार्टी की विचारधारा का समर्थन करते हैं!’ किसी ने सीधा जवाब नहीं दिया। कुछ लोगों ने कहा कि सार्वजनिक रूप से जवाब देना सुरक्षित नहीं तो मैंने कहा मैसेज बॉक्स में जवाब दे दें तो भी किसी का जवाब नहीं आया। क्यों? या तो आप दोहरेपन के शिकार हैं! या आप कायर हैं कि जिस विचारधारा के लिए लठैती कर सकते हैं उसे हिमायती होने की बात स्वीकार नहीं कर सकते! या आप अपोजिशन इंडस्ट्री के लाभार्थी हैं। आप आदिवासियों की बेहतरी के लिए नहीं सोचते बल्कि अपने ब्रेड-बटर के लिए आदिवासियों का इस्तेमाल करते हैं। जो चीज वेलीवाड़ा के दलित बुद्धिजीवी देख सकते हैं वो आप नहीं देख सकते क्योंकि आपकी आँख पर स्वार्थ का या ब्राह्मणवाद का पट्टर पड़ा हुआ है। आपकी कथनी और करनी के बीच बहुत चौड़ी खाई है।
सीधी सरल बात है कि जो व्यक्ति खुद हथियार नहीं उठा सकता, अपने बच्चों को हथियार उठाने के लिए नहीं भेज सकता वो फिर दूसरे के बच्चों को हथियार उठाने की सैद्धान्तिकी कैसे पढ़ा सकता है? यह निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना और अनैतिक कृत्य है। वह व्यक्ति कायर है जो अपनी विचारधारा को स्वीकार नहीं कर सकता। जिस कोबाद घांदी ने पाँच अदालतों में केस लड़ा कि उसका माओवादी पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है! उसकी तुलना भगत सिंह से करने वाले किस दुनिया में रहते हैं! भगत सिंह और साथियों ने अदालत का रास्ता इसलिए चुना ताकि वो अपने विचार कचहरी के माध्यम से दुनिया तक पहुँचा सकें! कोबाद जैसे कायरों की तुलना साहसी क्रान्तिकारियों से करना उनकी तौहीन है।
जब डॉ आम्बेडकर जीवित थे तो देश में एक ही कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई थी। उसके बारे में आम्बेडकर के विचार देखिए-
देश की दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी और इस वक्त की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम के बारे में नीचे तस्वीर में दिख रहा आलेख चार साल पहले छपा था।
इस साल सीपीएम ने छुतका छुड़ाते हुए एक दलित को पार्टी की सबसे ऊँची सभा पोलित ब्यूरो में जगह दी है। एक नारीवादी वेबसाइट आज शाम इस बात पर भी चर्चा कर रही है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में आज तक कोई महिला महासचिव क्यों नहीं बनी और सभी प्रमुख पार्टियों को मिलाकर 98 साल में केवल एक दलित को यह सौभाग्य क्यों मिल पाया!
साईबाबा वाली पोस्ट पर आई टिप्पणियों के जातिगत चरित्र की तरफ एक ब्राह्मण मित्र ने ही ध्यान दिलाया। पोस्ट से बिदकने वाले ज्यादातर लोग सवर्ण हैं और उनमें ज्यादातर ब्राह्मण। कुछ मित्र, इसे संयोग बताते हैं लेकिन यह कैसा संयोग है जो 1925 में सीपीआई की स्थापना से शुरू होकर 1964 में सीपीएम की स्थापना तक जारी रहता है और 2018 में लेख लिखा जाता है कि पोलित ब्यूरो में कोई दलित क्यों नहीं है!
मामला केवल कास्ट-इलीट का नहीं है। मामला, कास्ट-इलीट के साथ-साथ, क्लास-इलीट, जेंडर-इलीट, लोकेशन-इलीट और लैंग्वेज-इलीट होने का भी है। कोई बता सकता है कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के पास वह कौन सा ब्रह्म-ज्ञान था जिसकी वजह से वो जेएनयू की छात्र राजनीति करके पार्टी महासचिव पद तक पहुँचे लेकिन उनकी ही पार्टी में दूसरे लोग जो चुनाव जीतते रहे उनका करियर-ग्राफ इन लोगों जैसा नहीं है।
बात-बात में जात-बाहर कर देना और खुद को पवित्र और दूसरे को पापी ठहरा देना ब्राह्मणवादी मानसिकता है। कल जिन लोगों ने मुझपर तोहमत मढ़ने में खुद को गौरवान्वित महसूस किया, उनकी जाति के साथ ही उनकी वर्गीय स्थिति भी देखनी चाहिए या नहीं देखनी चाहिए? इनमें ज्यादातर जीने-खाने के जोड़-जुगाड़ में लगे महत्वाकांक्षी मध्यमवर्गीय लोग हैं और इनकी प्रिय लेखिका इलीट अरुंधति राय हैं! यह जनवाद की कैसी दुर्गति है?
जो लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरी राजनीति क्या है उन्हें कभी अरुंधति से भी पूछना चाहिए कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? सभी तरह की सत्ताओं के खिलाफ लिख-पढ़कर भी तुम इलीट कैसे बनी हुई हो! जिन लोगों की कुबुद्धि पर तुम तरस खाती हो उस अवाम से सौ गुना बेहतर जीवन कैसे जीती हो?
क्रान्ति की बातें करने के साथ ही आदमी की बरकत होती रहे तो दुनिया बदलने का रूमान कौन नहीं पालना चाहेगा? अरुंधति राय का पूरा करियर पूँजीवादी लोकतंत्र का खड़ा किया हुआ है। उन्हें जितना अमेरिका जाते देखा है उतना रूस, चीन या क्यूबा जाते नहीं देखा! ‘मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ से पहले तक अरुंधति की जितनी किताबें आई हैं, पढ़ी हैं। उनके ज्यादातर लेख भी पढ़े हैं। सच कहूँ तो मुझे आज तक नहीं पता चला कि उनकी ठीकठीक राजनीति क्या है? अगर उनका कुल मकसद डेमोक्रेसी को सबवर्ट करना ही है तो फिर क्या हमें उनके और आम्बेडकर के बीच किसी एक को चुनना नहीं होगा? क्या हमें माओवाद और लोकतंत्र के बीच एक को चुनना नहीं होगा?
खुद को जनवादी समझने वालों को अरुंधति जैसे कास्ट, क्लास, लोकेशन और लैंग्वेज इलीट के रूमानी मोह से निकलने पर विचार करना चाहिए। अरुंधति अरुंधति करने से आप अपने आसपास के लोगों से सुपीरियर नहीं हो जाएँगे। एक समय था कि अरुंधति की न्यूज-क्रिएटर के तौर पर काफी वैल्यू थी। सोशलमीडिया ने उसे भी खत्म कर दिया। आज कोई अमेरिकी सिंगर, जर्मन फुटबॉलर या अमेरिकी टेनिस स्टार भारत से जुड़े मुद्दों को न्यूजी बनाने में उनसे ज्यादा सक्षम है।
और हाँ, 1925 से कम्युनिस्ट पार्टी में जो संयोग शुरू हुआ, 1964 तक जारी रहा वह उसके बाद भी किस तरह प्रबल रहा उसके बारे में आने वाली पोस्ट में लिखा जाएगा। तब तक आप इसपर विचार जरूर करें कि कोई संयोग 1925 से 2022 तक लगातार बना हुआ है तो क्या यह महज संयोग है?