मीडिया में बेहद कुशल लोग हैं जो पेशवर तरीके से देश के हालात जान रहे हैं। एक फीसद आका क्लास देश विदेश की उड़ान में वातानुकूलित हैं और बाकी लोग वंचित, उत्पीड़ित, शोषित और उपेक्षित। जिंदगी का भी कोई मकसद होना चाहिए। ज्यादातर पत्रकार अब स्थाई नौकरियों में नहीं हैं। अखबारों का हाल यह है कि मशरुम की तरह कस्बों तक में निकल रहा है और हमारी मेहनत पानी खून से मुनाफा की फसल उगायी जा रही है।
बड़े समूहों में तो एक अखबार के वेतन पर दर्जन दर्जन या दर्जनों अखबार निकालने का काम लिया जाता है। बदले में मजीठिया रपट के मुताबिक स्थाई गिने चुने कर्मचारियों के मुकाबले दो तिहाई वेतन की क्या कहें, बड़े घरानों को छोड़कर संपादक पदवीधारी लोगों को भी दो पांच हजार के वेतन और बाजार से वसूल लेने की आजादी के साथ शर्मनाक जिंदगी गुजर बसर करनी होती है।
बाजार से वसूलने वाले लोग, पोस्तो समुदाय में भी आकाओं के खास लोग हैं जो बाकायदा पुलिसिया बंदोबस्त के तहत सही जगह सही हिस्सा देकर स्ट्रिंगर होने के बावजूद महानगरों से लेकर कस्बों तक तस्करी से लेकर तमाम धंधों के जरिये वातानुकूलित महल खड़े करके वातानुकूलित जीते हैं। बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में प्रेस की पट्टी लगाकर हर किस्म की तस्करी होती है। पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लबों में भी सत्ता समर्थक होशियार तस्कर पत्रकारों का जलवा है। देशभर में।
वसूलीबाज संपादकों को हम बख्शने नहीं जा रहे हैं। लाखों करोड़ों का प्रसार करने के दावे वाले लोग कैसे-कैसे बाजार में घोड़े और सांढ़ छोड़े रहते हैं, उचित समय पर खुलासा करेंगे। ज्यादातर पत्रकार खासतौर पर बहुजन पत्रकार जो मीडिया में पैदल सेना है, उनके लिए कोई मौका नहीं है। हमने वह मंजर देखा है कि आईएस से कठिन परीक्षा पास करने वाले पत्रकारों में सो कोई कोई एक के बाद एक सीढ़ियां छलांग कर सीधे सत्तावर्ग में शामिल हो जाते हैं और बाकी लोग सबएडीटर बने रहते हैं जिंदगी भर।
ये सारे लोग पच्चीस तीस साल, जिंदगी भर लगाकर सबएडिटर से बेहतर किसी हैसियत में नहीं हैं तो क्या ये नाकाबिल डफर लोग हैं, जिनका कुछ लिखा उनके अपने अखबार में नहीं छपता, जिन्हें खुद को साबित करने का कोई मौका नहीं मिलता। जाहिर है कि इन्हें चुनने वाले मसीहा लोग या तो सिरे से अंधे रहे हैं या जाति वनस्ली भेदभाव के तहत अंधा बांटे रेवड़ियां का किस्सा दोहराते रहे हैं। बहरहाल इस किस्से में नाकाबिल डफर ठहराये गये लोग पत्रकारित का, मीडिया का नब्वे फीसद वंचित तबका है, जो ईमानदार भी है और प्रतिबद्ध भी है, जो बाजार से वसूली को पत्रकारिता नहीं मानते।
दोस्तों, देश के इस दुस्समय में भाषा और समझ से लैस होने का बावजूद आपकी खामोशी आपकी त्रासदी नहीं है, यह देश और जनता की गुलामी का सबब है कि मीडिया सिरे से कारपोरेट हैं। अब इस कारपोरेट तिलिस्म को तोड़ने का वक्त है। किसी आका ने आपका न भला किया है और न करेगा। बेहतर है कि छप्पर फाड़ भलाई के बेसब्र इंतजार में जिंदगी बीता देने के बजाये अपनी पेशेवर काबिलियत साबित करें। अपने अखबार, अपने चैनल में जिन्हें कुछ कहने लिखने का मौका नहीं है, वे हमारे लिए, वैकल्पिक मीडिया के लिए लिखें। कोई आका किसी का कुछ भी उखाड़ नहीं सकता। क्योंकि सबसे बड़े गुलाम तो वही हैं। उनकी गुलामगिरि का बोझ अपने सर से उतारकर आजाद होकर भारतीय जनता और भारत देश के लिए कुछ करने का उचित समय है यह।
पत्रकारिता और मीडिया का वंचित वर्ग अगर सक्रिय हो गया, अपने वजूद को साबित करने के लिए उनकी उंगलियां हरकत में आ गयीं, तो एक फीसद टुकड़खोर आका संप्रदाय झूठ का यह कारोबार यकीनन चला नहीं सकते। । पत्रकारिता और मीडिया का वंचित वर्ग अगर सक्रिय हो गया, अपने वजूद को साबित करने के लिए उनकी उंगलियां हरकत में आ गयीं, तो एक फीसद टुकड़खोर आका संप्रदाय के पेड न्यूज कारपोरेट मीडिया के जवाब में हम वैकल्पिक मीडिया को मुख्यधारा बना ही लेंगे। ऐसे तमाम वंचित पत्रकारों से निवेदन हैं कि मई दिवस को कारपोरेट केसरिया रथों के पहिये जाम करने के लिए जनजागरण हेतु वे जो कुछ न्यूनतम कर सकते हैं करें। आप चाहें तो मई दिवस को ही कारपोरेट केसरिया अश्वमेधी रथों के पहिये हो जायें जाम।
हस्तक्षेप से साभार
sanjeev singh thakur
April 26, 2015 at 3:23 pm
bilkul sahi likha aapne