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सुख-दुख

दलाली का चौथा खंभा

हिंदुस्तान की निर्धन और निरक्षर जनता यह सुनते-सुनते थक चुकी है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। सड़क पर चलने वाला एक साधारण आदमी भी जान गया है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पैसा, दलाली, ग्लैमर, सनसनी, सेक्स और झूठ फैलाने में गले तक डूबा है। ऐसे मीडिया से भारत में किसी बदलाव या नवनिर्माण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? रही होगी पत्रकारिता कभी ‘आ़जादी’ के आंदोलन की वाहक, आज तो वह महज एक चाकर की भूमिका में खड़ी ऩजर आ रही है। ऐसा चाकर जिसे अपनी ही जनता के खिला़फ फरेब करने, बुनियादी समस्याओं से ध्यान भटकाने और अपने देसी-विदेशी आकाओं की म़जदूरी करने के लिए नोबल पुरस्कार दिया जा सकता है।

<p>हिंदुस्तान की निर्धन और निरक्षर जनता यह सुनते-सुनते थक चुकी है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। सड़क पर चलने वाला एक साधारण आदमी भी जान गया है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पैसा, दलाली, ग्लैमर, सनसनी, सेक्स और झूठ फैलाने में गले तक डूबा है। ऐसे मीडिया से भारत में किसी बदलाव या नवनिर्माण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? रही होगी पत्रकारिता कभी ‘आ़जादी’ के आंदोलन की वाहक, आज तो वह महज एक चाकर की भूमिका में खड़ी ऩजर आ रही है। ऐसा चाकर जिसे अपनी ही जनता के खिला़फ फरेब करने, बुनियादी समस्याओं से ध्यान भटकाने और अपने देसी-विदेशी आकाओं की म़जदूरी करने के लिए नोबल पुरस्कार दिया जा सकता है।</p>

हिंदुस्तान की निर्धन और निरक्षर जनता यह सुनते-सुनते थक चुकी है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है। सड़क पर चलने वाला एक साधारण आदमी भी जान गया है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पैसा, दलाली, ग्लैमर, सनसनी, सेक्स और झूठ फैलाने में गले तक डूबा है। ऐसे मीडिया से भारत में किसी बदलाव या नवनिर्माण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? रही होगी पत्रकारिता कभी ‘आ़जादी’ के आंदोलन की वाहक, आज तो वह महज एक चाकर की भूमिका में खड़ी ऩजर आ रही है। ऐसा चाकर जिसे अपनी ही जनता के खिला़फ फरेब करने, बुनियादी समस्याओं से ध्यान भटकाने और अपने देसी-विदेशी आकाओं की म़जदूरी करने के लिए नोबल पुरस्कार दिया जा सकता है।

मीडिया का यह विस्मयकारी पतन अचानक नहीं हुआ। आज हम जो राजनेता, नौकरशाह, कार्पोरेट्स और मीडिया का खतरनाक गठबंधन देख रहे हैं, उसके पीछे उदारीकरण के नाम पर विदेशी वंâपनियों की बड़े पैमाने पर भारत में घुसपैठ है। विशाल प्राकृतिक संसाधन, गरीबी और बेरो़जगारी के कारण सहज उपलब्ध सस्ता श्रम और योरपियन बनने की चाहत वाला मध्य वर्ग- इन सबने मिलकर भारत को दुनिया का सबसे बड़ा बिकाऊ देश बना दिया है। सरकार, अ़फसरशाही बिना रीढ़ की हड्डी वाले देसी उद्योगपतियों की जमात और घोर अवसरवादी मीडिया ने भारत को बर्बादी, अराजकता और गृहयुद्ध की दहली़ज पर खड़ा कर दिया है। भयभीत कर देनेवाले इस परिदृश्य में बड़ी भूमिका अंग्रे़जी मीडिया की रही है।

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पेज-३ अंग्रे़जी पत्रकारिता की देन है। अखबारों और पत्रिकाओं में अर्धनग्न लड़कियों की तस्वीरें छापने का सिलसिला किसने शुरू किया? किस अभिनेत्री का आठवां अपेâयर किस उद्योगपति के साथ चल रहा है, किसने अपनी पत्नी को उसके जन्मदिन पर २५० करोड़ रुपये का हेलीकॉप्टर उपहार में दिया, शादी से पहले कौन फैशन डि़जायनर गर्भवती बन गयी- ऐसी खबरें अंग्रे़जी मीडिया का आदर्श और गौरव है। राडिया टेप में कुछ प्रमुख अंग्रे़जी पत्रकारों के नाम जगजाहिर हैं। एक अंग्रे़जी अखबार पर हथियारों के सौदागरों की दलाली का आरोप लगा है। एक मीडिया चैनल पर ब्लैकमेलिंग का केस चल रहा है। म़जेदार बात यह है कि केस करनेवाला एक कुख्यात कार्पोरेट घराना है। सुरा, सुंदरी और हवाई जहा़जों से दुनिया की सैर करने का लुत़्फ उठाने वाले अंग्रे़जी पत्रकारों की सूची जानना चाहें, तो विजय माल्या को फोन कीजिये।

आज देश में ५००० से ज्यादा विदेशी कंपनियां काम कर रही हैं। क्या ये सब दुध की धुली हैं? किस मीडिया समूह ने आज तक एक भी बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिला़फ एक भी शब्द छापा हो? आप लोकतंत्र का चौथा खंभा है, प्रेस की आ़जादी का डंका पीटते रहते हैं, लेकिन देश की लूट के मामले में अपनी जुबान पर ताला लगा देते हैं। आपको शोभा डे जैसी चुलबुली और सनसनीखे़ज पत्रकार को छापने में म़जा आता है, जो कहती है कि भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक में सेल्फी लेने जाते हैं और टहलने जाते हैं। दरअसल, हिंदुस्तान फर्राटेदार अंग्रे़जी बोलने और लिखने वाले दलालों की जागीर बन गया है।

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हिंदी मीडिया का हाल तो और भी बुरा है। हिंदी के बड़े अखबार अपने लेखकों और पत्रकारों को उतना भी नहीं देते, जितना एक कुरियर वाले को मिलता है। मुंबई के एक तथाकथित बड़े मीडिया घराने से अंग्रे़जी और हिंदी में दैनिक छपता है। हिंदी दैनिक के संपादक महज अनुवादक का रोल निभाते हैं और मैनेजमेंट के दबाव में समाचार शीर्षकों में अंग्रे़जी शब्दों का इतना इस्तेमाल करते हैं कि उसे हिंदी का अखबार कहने में शर्म महसूस हो। हिंदी संपादकों की हालत अंग्रे़जी वालों के बंधुआ म़जदूर जैसी हो गयी है। हिंदी के ये बौने संपादक भारत की आर्थिक गुलामी के खिला़फ लड़ सकेंगे?

अंग्रे़जी के तीसमारखां पत्रकारों को मुगालता है कि वे ही देश चला रहे हैं। अरनव गोस्वामी, स्वामीनाथन अंकलेश्वरिया, रजत शर्मा, सुभाष चंद्रा, बरखा दत्त, तवलीन सिंह, शोभा डे, स्वप्निल दासगुप्ता, अरुण पुरी, वीर संघवी जैसे लोग बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सरकार की जी-हुजूरी के लिए चर्चा में रहते हैं। कड़वी सच्चाई यह है कि मल्टीनेशनल वंâपनियां अगर विज्ञापन देना बंद कर दें, तो टीवी चैनल और बड़े अखबार २४ घंटे में बंद हो जायें। अंग्रे़जी मीडिया का बड़बोलापन और अहंकार ध्वस्त हो जाये। जो संस्थान सरकारी अनुदान और वंâपनियों के रहमो-करम पर जिंदा हो, वो लोकतंत्र को कैसे जीवित रख सकता है? मीडिया और साबुन बनाने वाले कारखाने में फर्क करना बेववकूफी है। लोकतंत्र के चारों खंभे- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया आज जर्जर अवस्था में हैं। भारतीय जनता की सहनशक्ति और धीरज के कारण लोकतंत्र जिंदा है।

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लेखक अक्षय जैन मुंबई से प्रकाशित पत्रिका ‘दाल रोटी’ के संपादक हैं. उनसे संपर्क 8080745058 या [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. Avaneesh Narain singh

    August 26, 2016 at 5:44 am

    अक्षय जैन जी, नमस्कार……….
    मैने आपका लेख पढ़ा , जो चौथे स्तंभ के अंतर्गत कार्य करने वाले महानुभावों के मुंह पर करारा जबाव है । तसल्ली इस बात की है कि अभी भी पत्रकारिता में कुछ लोग जिंदा है ।

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