ओम थानवी-
अपूर्वानंद और लाल डायरी (इन दोनों का डिटेल नीचे है) के बाद लगातार तीसरे दिन एक और महाझूठ – कि यूट्यूब पत्रकार ध्रुव राठी फूहड़ शो “बिग बॉस” में शिरकत करने जा रहे हैं। ऐसी ख़बर इंडिया टुडे, इंडिया टीवी, इंडिया टाइम्स, एबीपी न्यूज़, इकोनॉमिक टाइम्स आदि पता नहीं कितने टीवी-अख़बारों ने उड़ा दी।
आज ध्रुव राठी ने इन ख़बरों का मज़ाक़ उड़ाते हुए अपने वीडियो में कहा है कि वे ऐसे “नॉनसेंस शो” में जाने की सोच भी नहीं सकते, लाखों-करोड़ों दें तब भी। उन्होंने ठीक कहा कि देखिए देश का मीडिया कितना बेसिर-पैर वाला हो गया। वह कुछ भी छाप-दिखा सकता है। तो झूठ का बाज़ार बहुत गर्म है। पता नहीं कौन इसकी हवा लेकर आया है।देखें ये वीडियो-
राजस्थान में एक मंत्री को बर्ख़ास्त कर दिया गया। तब उसने एक लाल डायरी लहराई और कहा कि इसमें कांग्रेस नेताओं को लॉबिंग के लिए दिल्ली जाने वाला पैसा दर्ज है। फिर कहा – डायरी के काम के काग़ज़ छीना-झपटी में छिन गए। इतनी सनसनीखेज़ कथित डायरी की उन्होंने न कॉपी की थी, न मोबाइल में रखा।
पर भाजपा को इसमें भी जैसे तिनके का सहारा मिल गया।“लाल डायरी” को मुद्दा बना लिया। अभियान छेड़ दिया है। शायद इसमें उसे बोफ़ोर्स जैसी चुनावी डायरी दिखाई पड़ रही हो।
“लाल डायरी”, जिसे आज तक किसी ने खोलकर नहीं देखा। डायरी में क्या लिखा है, कोई नहीं जानता। न उसके कथित इंदराज़ की प्रामाणिकता पुष्ट है, न विश्वसनीयता, न वैधता।
भाजपा की तो ख़ैर राजनीति ठहरी, मीडिया भी भ्रष्टाचार की कथित “लाल डायरी” पर पन्ने-पर-पन्ने रंग रहा है। कोई सवाल नहीं। कोई संदेह नहीं। पुष्टि तो हो नहीं सकती। उसमें किसी की मानो दिलचस्पी भी नहीं।
जिनकी झूठ के सहारे कटती हो, उन्हें सच की क्या परवाह?
जैसा कि कहते हैं वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है। प्रो. अपूर्वानंद — हमारे दौर के बहुत संजीदा आलोचक और जुझारू कार्यकर्ता — ने मण्डला “समवाय” के अपने वक्तव्य में एक बार भी “लयात्मकता” शब्द नहीं बोला, पर वक्तव्य के थोड़ी डर बाद ही प्रतिक्रिया होने लगी कि अपूर्वानंद ने वहाँ पढ़ी गई अधिकांश कविताओं को “लयात्मक’ बताया और कविता की लयात्मक को फ़ासीवाद से जोड़ दिया।
सोशल मीडिया त्वरित प्रतिक्रिया के लिए उकसाता है। कोई जाँचने या पुष्टि कर लेने की कोशिश नहीं करता। सबके पास विचार से ज़्यादा व्यक्ति के बारे में अपनी तय राय है और मौक़ा पाते ही वह भी — ‘गाली मारो’ अंदाज़ में — हमले की भीड़ में कूद पड़ता है।
सचाई यह है कि अपूर्वानंद ने कविता के एक रूप “प्रगीत” की बात की थी। उन्होंने ‘लिरिक’ शब्द इस्तेमाल किया, जिसका अनुवाद कहीं से लय नहीं होता। कविता में लय नहीं होगी तो कविता में बचेगा क्या? लय तो गद्य तक की होती है।
प्रगीत रूप को लेकर अपूर्वानंद ने अपनी दुविधा की चर्चा की, यह कहते हुए कि यह रूप एक प्रकार की सरलता की सुविधा देता है, एक आसानी। और उन्होंने इस क्रम में थियोडोर एडोर्नो को उद्धृत करते हुए कहा कि फ़ासिज़्म का चेहरा प्रगीतात्मक होता है।
हाँ, यह मुझे लगा कि ख़ुद उनमें इस विचार को लेकर कोई दिमाग़ी उधेड़बुन मौजूद है। उन्होंने माना भी कि वे तैयारी के साथ नहीं बोल रहे, बल्कि उन्हें नहीं मालूम था कि किस विषय पर बोलना है। (वैसे, अपने मामले में मुझे भी नहीं पता था!)। यह कोई व्याख्यान भी नहीं था। आयोजन को लेकर, दिन में जो सुना, उस पर हमें अपना अनुभव साझा करना था।
फिर भी रूढ़ भाव-सरणियों की उन्होंने अच्छी चर्चा की, अभिव्यक्ति की रूढ़ शैली की भी और कहा कि कहीं एक स्तर पर कविता ऐसे स्टीरियोटाइप की बंदी तो नहीं हो रही। लेकिन कहीं भी उन्होंने रिद्म अर्थात् “लय” को लेकर कुछ नहीं कहा।
उन्होंने चौंकाने वाली भंगिमा अख़्तियार की। लेकिन क्या हम कविता के संदर्भ में इस तरह के विचारोत्तेजक पहलुओं पर विचार नहीं करना चाहते? मुझे रोलों बार्थ का कथन ख़याल आता है, जिसे यहाँ पढ़कर हिंदी के उत्तेजित मित्र बार्थ के लिए पता नहीं किन शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। बार्थ ने कहा था कि भाषा फ़ासीवादी होती है: “Language is neither reactionary nor progressive; it is quite simply fascist; for fascism does not prevent speech, it compels speech.”
किसी बात को महज़ किसी से सुनकर, या ख़ुद सुनते हुए पूरी तरह विचार किए बिना, समझने की कोशिश किए बग़ैर उस पर टूट पड़ना बाक़ी चाहे किसी के लिए स्वाभाविक हो, लेखकों के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। जैसा कि कहा, चौंका मैं भी। जो-जो मित्र मिले उनसे समझने की कोशिश की कि उन्होंने सुने का क्या अर्थ लिया। लेकिन लिरिक को रिद्म के अर्थ में घुमा देने की बेईमानी नहीं सुनी।
अपूर्वानंद ने कविता के संदर्भ में विचार और भाषा की बहसों का उल्लेख किया। कविता या किसी भी कला का काम निजता की अभिव्यक्ति है; लेकिन वैयक्तिक और सामुदायिक के द्वंद्व का समाधान कैसे हो? कवि की आकांक्षा मात्र ख़ुद को व्यक्त करने की तो नहीं होती। राजनीति का जो दबाव कविता पर पड़ता है, जिससे वह निरंतर जूझती है, उसका ज़िक्र भी अपूर्वानंद ने किया था।
उनमें कोई स्पष्ट निष्कर्षात्मक स्वर मुझे अनुभव नहीं हुआ। प्रतिक्रिया के संदर्भहीन निर्णयात्मक स्वर सुनकर किंचित हैरानी हुई है। उम्मीद है इनसे अपूर्वानंद को अपने सोच को धार देने में मदद ही मिलेगी। उनके विचार सुस्पष्ट होकर लेख की शक्ल में सामने आएँ, इसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए।
(अपूर्वानंद की नायाब पुस्तक “मुक्तिबोध की लालटेन” आपने न पढ़ी हो तो ज़रूर पढ़ें। सेतु प्रकाशन से छपी है। उनके विचार की धारा समझ में आ जाएगी। बाक़ी जिन्हें स्कोर सैटल करना हो, करते रहेंगे।)