सत्येंद्र पी सिंह-
नीचे विमलेश सिंह का लिखा पढ़िए। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा है। इलाहाबाद पढाई के लिए जाने वाले अमूमन पढाई में क्रीम दिमाग वाले होते हैं। जो ऊर्जा राष्ट्रनिर्माण में लगाई जानी चाहिए, वह तैयारी के तैयारा में खप जाती है। यह वो गोल्डन एज होती है जब युवा सबसे ज्यादा क्रिएटिव व एनर्जेटिक होते हैं।
देश मे पर्याप्त बीएड हैं, पर्याप्त अनपढ़ हैं लेकिन उनको कनेक्ट करने वाली सरकार नहीं है। सड़कें नहीं हैं, घर नहीं हैं, सड़कें और घर बनाने वाले खाली हाथ हैं, लेकिन उनसे काम कराने वाली सरकार नहीं है। पता नहीं कब यह व्यवस्था बदलेगी और देश के हर युवा को काम मिल सकेगा। युवा इतने में खुश हैं कि भर्ती रद्द न हो, भर्ती में बेईमानी न हो, जाति या पैसे के दम पर पद लूटे न जाएं। यहां यह सोचना भी नामुमकिन है कि तैयारी में वक्त बर्बाद करने की नौबत क्यों आये?
विमलेश सिंह-
जब इलाहाबाद तैयारी के लिए कोई छात्र/ छात्रा घर से पहली बार निकलता है तब उसके माता-पिता यही कहते है कि बेटा मेरे पास पैसा कम है मन से पढ़ना ।
इलाहाबाद में 10×10 का कमरा भी आज 3000 प्रति माह के हिसाब से मिलता है। पढ़ने वाले इलाहाबाद में अपनी किताब ख़रीदने के लिए ऑटो से नही बल्कि पैदल चलते है ताकि 20 रुपया किराए का बच गया तो दो टाइम सब्जी खरीद लूंगा।
सलोरी , गोबिंदपुर , राजापुर , बघाड़ा जैसे किसी स्थान पर रहते रहते सर का आधा बाल झड़ जाता है , चेहरे की रौनक धंस जाती है। माथे पर तनाव की लकीरें साफ दिखाई देने लगती है। दो टाइम के बजाय एक टाइम खाना बनता है ताकि इससे पैसा बचेगा तो कोई फार्म भर सकूँगा क्योंकि घर से पैसा बहुत लिमिट में मिलता है। कभी कभी बाहर की मिठाई खाने का मन हुआ तो चीनी खा कर अनुभव करना पड़ता है कि हमने रसमलाई खा लिया है।
बहुत ही सँघर्ष और तप जैसी जिंदगी इलाहाबाद जैसे शहर में जीने के बाद जब कोई भर्ती आती है तब 1000 पद के लिए लाखों आवेदन आता है। पढ़ने वाले के घर से फोन आता है कि बेटा इस भर्ती में बढ़िया से पढ़ना। घर वालो की उम्मीदों के बोझ ने फिर से टेंशन दे दिया। फिर भी लाखों लोगों को पीछे धकेल के परीक्षा में पास हुआ घर परिवार समाज और स्वयं को लगता है कि अब इसकी नौकरी मिल गयी है कोई टेंशन की बात नही है बस ज्वैनिग तो रह गयी है दोस्तो और रिस्तेदार को पार्टी भी दे दिया फिर दो साल तक इंतजार कर रहे है कि अब ज्वैनिग होगी लेक़िन उसी बीच नया आदेश आता है कि भर्ती की परीक्षा रद्द हुआ।
क्या महसूस हुआ होगा उस पास छात्र/ छात्रा के ऊपर…
दस साल से पढ़ाई कर रहे है कोई भर्ती आती नही है एक भर्ती आ गयी पास भी हुआ अब उसको रद्द करना क्या न्यायोचित है.?
आटा गर्मी में गूथते समय पसीना इस कदर गिरता है जैसे लगता है कि शरीर से चिल्का झील का पानी निकल रहा है। सर का बाल तख्त पर , टेबल पर , कुर्सी पर ऐसे गिरते है जैसे किसी नाई का दुकान है।
रोटियां बनाते बनाते जिंदगी रोटी जैसी हो जाती है , पढ़ाई करने वाले छात्र घर पर ही रोटी- सब्जी – चावल- दाल सब एक साथ खाने को पाता है रूम पर तो कभी एक साथ नही बनता है बनेगा भी कैसे क्योकि घर से इतना पैसा नही मिलता है।
जब गैस भराना होता है तो दोस्तो से या बगल वाले भैया से उधार लेना पड़ता है । जिस दिन रूम का किराया देना पड़ता है उस दिन लगता है कि आज किसी ने कलेजा निकाल दिया है।
भर्तियां रद्द नही करना चाहिए बड़ी मेहनत से दो वक्त का खाना न खाकर फार्म भरा जाता है आखिर जो पैसा और समय बर्वाद हुआ है उसका हिसाब है किसी के पास..?
आज बेरोजगार लोग को देखते ही लोगो की भाषा और सामाजिक भावना बदल जाती है। सम्मान नही मिलता है। फिर भी समाज मे रहते हुए अपने अरमान की चादर सिलता है। फिर कोई आकर उसकी चादर को फाड़ देता है तो मानो उसको भावनाओ का किसी ने चीरहरण कर दिया है। फिर भी लोक लज्जा स्थिति में पुनः खड़ा करता है तभी आकर किसी ने उसकी रोटी छीन लिया है।
किसी भी प्रतियोगी छात्र/ छात्रा के कपड़े देखना कमरे के अंदर वाला अंडरवियर में इतने छेद होते है फिर भी 60 रुपया का मोह इसलिए देखता है कि आधा किलो दाल ले लूंगा ।
टूथपेस्ट खत्म होने के बाद उसको फाड़कर उसपर ब्रश को रगड़ कर एक एक दिन अपने पास रहते हुए पैसा की बचत करता है।
घर से गेंहू , चावल , आलू तक माँ-बहन देती है कि कुछ पैसा तो बचेगा , वहां स्टेशन या रोडवेज पर उतने के बाद ऑटो या रिक्सा इसलिए नही लेता है कि 20 रुपया कौन देगा सिर पर राशन वाला बोझ उठाता है और कमरे की तरफ निकल लेता है।
भर्तियां देने से पहले इस तरह का विज्ञापन निकालो की भर्ती किसी भी कारण रद्द कर दी जाएगी और रद्द एक निश्चित तिथि में किया जाएगा ताकि छात्र अगली तैयारी को करे। यहां दो साल बाद रद्द करना किसी के पैर के नीचे से जमीन खींचने जैसा है।