श्रीकान्त अस्थाना-
इंडियन एक्सप्रेस में रविवार को प्रकाशित सरकारी विज्ञापन में असम्बद्ध अथवा अवास्तविक चित्रों के उपयोग पर हंगामा खड़ा करने की कोशिश के पीछे क्या है? क्या ये चित्र वास्तव में सांकेतिक चित्र भर न होकर कोई सांघातिक झूठ फैला रहे हैं? महीनों से सभी अखबारों में ऐसे विज्ञापन छप रहे हैं। फिर, जो लोग फर्जी फोटो का रोना रो रहे हैं, रिवर्स सर्च करके असली फोटो का पता बता रहे हैं, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?
क्या वे किसी के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं? क्या वे विज्ञापन विभाग के किसी अधिकारी या इंडियन एक्सप्रेस से कोई हिसाब बराबर करना चाहते हैं? या, जैसा कि कुछ सरकार-समर्थकों का मानना है, उन्हें दो पृष्ठों पर छपी सामग्री में कुछ भी हल्ला मचाने लायक नहीं मिला, तो चित्र ही सही।
कोई भी अखबार जब चिह्नित करके ऐडवरटोरियल प्रकाशित करता है तो इसका मतलब साफ होता है कि वह हिस्सा सामान्य समाचार नहीं है, बल्कि विज्ञापनी समाचार है। कोई दो राय नहीं कि कानूनी स्थिति यही है कि किसी प्रकाशन में प्रकाशित हर शब्द और चित्र के लिए सम्पादक उत्तरदायी है। मैंने देखा कि इलस्ट्रेशन के रूप में लगाए जिन चित्रों पर आपत्ति की गई है, उन पर कोई चित्र-परिचय देकर यह नहीं बताया गया है कि वे कहाँ के हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि यह वैसी ही बात है जैसे बच्चों की किताब में कोई C for Car के इलस्ट्रेशन में लगाई गई कार के बॉनेट या ग्रिल पर कोई लोगो पहचान कर कहे कि प्रकाशक ने बच्चों की किताब के माध्यम से फलां कार का प्रचार किया है।
ऐसा निहित स्वार्थ वाले लोग ही कर सकते हैं। फिर हल्ला मचा रहे लोगों का क्या स्वार्थ है? क्या यह शोशा उछाल कर वे अपने पर भरोसा करने वालों को असली मुद्दे छोड़ कर ग़ैर-मुद्दा मामलों की ओर नहीं ठेल रहे हैं? क्या यह सचमुच कोई मुद्दा है? क्या योगी सरकार को अपनी सच्ची या झूठी उपलब्धियों का जनता के आगे बखान करने का अधिकार नहीं है? क्या सरकारी दावों के झूठा होने पर जनता खुद फैसला नहीं ले सकेगी कि आपको बताना पड़ रहा है कि चित्र फर्जी है।
हो सकता है कि मेरी बात से किसी को गलतफ़हमी हो कि मैं योगी सरकार का समर्थक या इंडियन एक्सप्रेस का कारकुन होने के कारण यह सब लिख रहा हूं। लेकिन ऐसा नहीं है। मैं यह सवाल इसलिए उठा रहा हूं कि जिन आचार्यों ने यह शोशा उछाल कर लोगों का समय बर्बाद किया है, वे जब खुद विभिन्न संस्थानों में कार्यरत थे तब सम्पादकीय निष्ठाओं की धेला भर भी परवाह न करने के कितने ही किस्से मौजूद हैं।
कितने ही फर्जी, असंबद्ध, और संदर्भहीन विजुअल्स के साथ फर्जी समाचार गढ़ने की कला तथा समाचारों के स्थान पर सम्पादकीय टिप्पणियां करने की परम्पराओं में रचे-पगे रहे और एक संभावनाशील माध्यम को वास्तव में समाचारहीन बना डालने की प्रक्रिया में सक्रिय योगदान दे चुके लोग जब राई का पहाड़ बनाते हैं, तो कोफ़्त होती है। क्या इन्हें इस बात का ध्यान है कि किसी भी तंत्र में सभी गतिविधियों का अंतिम उत्तरदायी अधिकारी और उसके अधीनस्थों के बीच परम विश्वास का संबंध होता है।
कोई सम्पादक न तो हर समाचार और विज्ञापन के प्रकाशित होने से पहले उसे देख कर आगे जाने की अनुमति देता है, न ही अपने हर अधीनस्थ के कार्यों को हर क्षण नियंत्रित कर रहा होता है। हां, नैतिक उत्तरदायित्व के कारण वह अधीनस्थों की हर गलती को स्वीकारता और सुधारने के निर्देश देता है। इंडियन एक्सप्रेस ने भी ऐसा किया, जबकि गलती भी उसकी नहीं थी। जिस डिज़ाइनर ने पेज बनाया होगा उसने विज़ुअलाइज़ेशन में इन चित्रों का उपयोग इलस्ट्रेशन के रूप में किया होगा।
ऐसा न होता, तो इन पर चित्र परिचय भी होता। इस सारे हंगामे की अंतिम परिणति क्या होगी? क्या जिस अधिकारी से हिसाब बराबर करना था, वह अयोग्य साबित हो जाएगा और उसका कुछ बिगड़ेगा? क्या योगी सरकार के सभी दावे सरासर झूठ या पूरे-पूरे सच हो जाएंगे?
क्या इस महापाप (?) के कारण प्रधानमंत्री मोदी को योगी को हटाने का मौका मिल जाएगा? या, इस हंगामे से बौखला कर उत्तर प्रदेश का सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग कोई स्पष्टीकरण जारी करेगा? मुझे तो इनमें से कुछ भी होने की संभावना नहीं दिखती। हां, इस पर यह पेज बनाने वाले डिजाइनर की गरदन जरूर मरोड़ी जा सकती है। वैसे, हवा में उछाली गई तलवारें कई बार अपेक्षित वार किए बिना सीधे जमीन पर भी गिर जाती हैं।
sanjay sharma
September 13, 2021 at 9:31 pm
पता नहीं किस बेवकूफ को पकड़ कर भड़ास खबरें छाप रहा है. जिनको अखबार और पाठक और विज्ञापनदाता की समझ नहीं है वो अनपढ़ आम आदमी तो कहीं कुछ भी बोल सकता है पर ये टिप्पणी भड़ास के लायक नहीं है. धन्यवाद
Mahendra Awdhesh
September 13, 2021 at 9:54 pm
अस्थाना जी, एडवरटोरियल का मतलब अगर आप समझ लेते, तो शायद इतनी मेहनत न करते! लेकिन, मैं भलीभांति समझ पा रहा हूं कि आप एडवरटोरियल का मतलब बखूबी समझते हैं। आदरणीय, काहे पसीना बहा रहे हैं भादों में!! जबकि, चारों तरफ सच्चाई खुल चुकी है और थू-थू हो रही है…
रोहित
September 17, 2021 at 8:21 am
प. बंगाल न हुआ मानो पेरिस या न्यूयार्क हो गया।जिसकी तुलना उत्तर प्रदेश से करने पर रंगे सियार हुवाँ हुवाँ करने लग पड़े है।। पॉश इलाकों को छोड़ दे तो बंगाल की राजधानी कोलकाता की सड़कों ,गलियां बजबजाते देखा जा सकता है। पूरे प बंगाल का तो हाल ही क्या कहा जाये।जबकि अंग्रेज़ो द्वारा सँवारे गए कोलकाता का शुमार देश के चार मेगा सिटीज में से एक के रूप में किया जाता है। अगर विज्ञापन ग्राफ़िक सेट करने वाले की गलती से एक फोटो उत्तर प्रदेश के विज्ञापन के संदर्भ में छप गई। लगता है जैसे मुँह ऊपर उठाये बियर की बारिश का इंतज़ार करने वालो को अमृत प्राप्त हो गया। ये वही लोग है जो बंगाल में राजनीतिक हिंसा पर मुँह तक नही खोलते।