नई दिल्ली : वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन ने कहा कि हिंदी पत्रकारिता में दलित चिंतकों की हिस्सेदारी इतनी मजबूत हो गई है कि यदि उनके सामाजिक-साहित्यिक मुद्दों को केन्द्र में नहीं रखा गया तो यह पत्रकारिता के पेशे से बेईमानी और इसकी व्यवसायिकता की हानि होगी। प्रो. राजकुमार ने कहा कि शिक्षा ही प्रतिरोध की शक्ति देती है।
‘दलित समाज के आधारभूत प्रश्न : विशेष संदर्भ- साहित्य, शिक्षा और संस्कृति’ विषय पर दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन ‘भारतीय विज्ञान अनुसंधान परिसद, दिल्ली’ के सौजन्य से किया गया। कार्यक्रम का संयोजन साहित्यकार प्रो. श्योराज सिंह बेचैन द्वारा किया गया। संगोष्ठी के प्रथम दिवस (30 मार्च 2015) के उदघाटन सत्र के मुख्य अतिथि प्रो. विष्णु सर्वदे, विशिष्ठ अतिथि प्रो. अच्युतन थे एवं इस सत्र की अध्यक्षता अरविंद मोहन ने की।
प्रो. विष्णु सर्वदे ने कहा कि दलित साहित्य में भारतीय समाज की वास्तविक संस्कृति का चित्रण मिलता है। इस क्रम में उन्होंने दलित साहित्य के संदर्भों से अपनी बात की पुष्टि की। प्रो. अच्युतन ने कहा कि सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आज दलित साहित्य की ऊंचाई का प्रमाणिक अध्ययन होना चाहिए। साथ ही आने वाले कार्पोरेट जगत में उनका क्या स्थान होगा, इस पर विचार की आवश्कता है। कार्यक्रम के प्रथम सत्र का विषय ‘दलित साहित्य एवं शिक्षा के अन्तःसंबंध’ था। इस सत्र की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के अंगेजी विभाग के प्रो. तपन बासू ने किया। सत्र के प्रथम वक्ता बलवीर माधोपुरी ने दलित आत्मकथाओं के माध्यम से वर्तमान में भी गांवों में दलित समाज की दयनीय स्थिति पर चिंता व्यक्त की और दलित साहित्य में आक्रोश उसी समाज के अमानवीय व्यवहार की उपज बताया। प्रो. राजकुमार ने कहा कि शिक्षा के प्रसार से ही दलित साहित्य का आगाज हुआ।
सूरजपाल चौहान ने साहित्य के सौंदर्यशास्त्र पर बात रखते हुए मुख्यधारा के सौन्दर्यशात्र को अश्लील एवं प्रदूषणयुक्त बताया। उन्होंने कुमारसंभव और गीत गोविंद के माध्यम से उदाहरण देते हुए उनमें व्याप्त अश्लीलताओं को उजागर किया और बताया कि उनके यहां स्त्री भोग की वस्तु है। पूरे सवर्ण साहित्य में स्त्री एक वस्तु है और उनके साहित्यकारों की दृष्टि में स्त्री के देह जांघ, स्तन, नितंब इत्यादि ही रहता है। उनके यहां फटे, मैले कपड़े वाली काली कलूटी स्त्री एवं उसका संघर्ष नहीं दिखता। उन्होंने बताया कि दलित साहित्य ने साहित्य में व्याप्त अश्लीलता एवं भ्रष्टाचार को दूर किया है। प्रो. शत्रुघ्न कुमार ने कहा कि दलित साहित्य को इस रूप में लेना होगा कि वह पूरे समाज में बदलाव का आह्वान करता है।
दूसरे सत्र में ‘दलित साहित्य में सांस्कृतिक निर्माण की प्रक्रिया’ विषय पर गंभीर चर्चा हुई। इसकी अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. हरिमोहन शर्मा ने की। डा. रामचंद्र ने कहा कि दलित साहित्य अपने भीतर कई विमर्शों को समेटता है। दलित साहित्य में केवल दलित समाज ही नहीं बल्कि पूरा भारतीय समाज प्रतिबिंबित होता है। सांस्कृतिक रूपान्तरण की प्रक्रिया दलित साहित्य से ही शुरू होती है। इस संदर्भ में उन्होंने प्रो.श्योराज सिंह बेचैन की लंबी कहानी ‘रावण’ एवं दिवंगत दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘सलाम’ से सांस्कृतिक रूपान्तरण को स्पष्ट किया। डा. टेकचंद ने साहित्य में सांस्कृतिक निर्माण की प्रक्रिया में लैंगिक एवं भाषिक भेदभाव को स्पष्ट किया। उन्होंने इसकी प्रयोगशाला परिवार नामक संस्था को बताया जहां से संतान को स्त्री-पुरुष और दलित-द्विज का पाठ पढ़ाया जाता है। डा. अश्विनी कुमार ने ‘दलित साहित्य में मिथक और यथार्थ’ विषय पर वक्तव्य दिया और मुख्यधारा के साहित्य से इसकी भिन्नता को रेखांकित किया।
प्रो. देवशंकर नवीन ने मिथिलांचल एवं वहां के सांस्कृतिक तत्वों का विश्लेषण करते हुए कहा कि हमारी संस्कृति में हमारे पूर्वजों ने रीति-रिवाजों, परंपराओं, और त्योहारों के माध्यम से जो सामाजिक सौहार्द का संदेश दिया है, उसे समझने और साधने के स्तर तक पहुंचने की जरूरत है। प्रो. अजमेर सिंह काजल ने दलित समाज की शिक्षा में ज्योतिबा फूले, डा. अम्बेडकर, ईसाई मिशनरियों एवं अंग्रेजों के योगदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि हमें जिन लोकतांत्रिक मूल्यों को स्वीकारा जाना चाहिए, वह दलित साहित्य में मौजूद हैं। प्रो. हरिमोहन शर्मा ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि दलित साहित्य का सबसे बड़ा अवदान यह है कि वह हमारी संकुचित होती सांस्कृतिक व्यवस्था को विस्तृत करता है।
संगोष्ठी के पहले दिन के अंतिम सत्र में ‘संत साहित्य एवं उसके सामाजिक योगदान’ पर चर्चा हुई। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ दलित साहित्यकार-पत्रकार डा. सोहनपाल सुमनाक्षर ने की। कबीरपंथी संत एवं विचारक सनातदास ने कबीर की समाजदृष्टि के माध्यम से उनके सामाजिक सरोकारों का जिक्र करते हुए कहा कि कबीर साहब को प्राध्यापकीय आलोचना ने छद्म रचा और उनका ब्राह्मणीकरण, वैष्णवीकरण और हिंदूकरण किया गया। कबीर साहब को उनके काव्य में प्रक्षिप्त रचकर एवं उनके जीवन में किंवदंतियों को घुसाकर वर्चस्वशाली हिंदी आलोचना ने उनके विचारों को नरम किया और अपने फायदे के लिए उपयोग किया। इस पर उन्होंने चिंता भी व्यक्त की। डा. मनोज कुमार ने रविदास के सामाजिक एवं साहित्यिक अवदान पर प्रकाश डाला। डा. सोहनपाल सुमनाक्षर ने अपने वकतव्य में कबीर के बरक्स रविदास पर हिंदी आलोचना में कम चर्चा पर चिंता व्यक्त की। इन्होंने दलित साहित्य को समाज का वास्तविक दर्पण बताया। दलित साहित्य की समृद्ध लोक सुधारक संत परंपरा को रेखांकित किया। इस अवसर पर इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लेखकों, शिक्षकों एवं शोध छात्रों की उपस्थिति रही। कार्यक्रम के अंत में इस संगोष्ठी के संयोजक प्रो. श्योराज सिंह ने अतिथियों एवं श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया।