शोभा अक्षर-
एक देखा तार जग का
(होमोसेक्सुअलिटी और क्वीयरनेस)
देह में दत्त-चित्त होने के समय पूर्वग्रह के कारक यानी रूढ़ियाँ और थोपे गए नियमों के असामान्य उद्धरण, उनकी अनगिनत सूचियाँ अक्सर ऐसे बाधक बनती हैं जैसे रेगिस्तान में गिरती बूँद फना हो जाती है। भारत में सेक्सुअलिटी को लेकर स्वीकारोक्ति की सम्भावनाएँ जहाँ बनती भी हैं, वहाँ तथाकथित सात्विकता से लैस असाहित्यिक उत्तेजना भी दिखती है।यह उत्तेजना इतनी अतार्किक होती है जितनी तार्किक अल्बर्ट आइंस्टीन का गांधी के लिए लिखा गया यह कथन कि, ‘भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।’
गांधी का पावरलेस (सत्ता में न होना) होकर भी विश्व का सबसे पावरफुल आदमी होना, वाक़ई यह बात आने वाली पीढ़ियों के लिए अविश्वसनीय हो सकती हैं।
ख़ैर, सेक्सुअलिटी पर अपने अनुभवों और अध्ययन से इस बात को लिख रही हूँ, कहती आ रही हूँ कि, ‘वी आर बॉर्न क्वियर’!
बाद में हेटेरोसेक्सुअलिटी का तो सोशल नॉर्म्स की वजह से आइडेंटिफ़िकेशन हो जाता है।कम से कम भारतीय कॉण्टेक्स्ट में यह तो है कि पहले स्त्रियाँ अधिकतर स्त्रियों के बीच रहती थीं और पुरुष, पुरुषों के बीच। शुरू में तो लड़के आपस में ही यौनांगों को लेकर अपने बीच में देह की उत्सुकता और मन की जिज्ञासा जाहिर करते हैं, इसी तरह लड़कियाँ पहले तो एकांत में अपने यौनांगों को लेकर जूझती हैं फिर अपने सहेलियों से देह और मन के इच्छाओं को एक्सप्लोर करते हुए खोजी बनती हैं।
एक और बात यह कि जब हम नवाबों, सामंतों के यहाँ इससे सम्बन्धित कॉण्टेक्स्ट ढूँढते हैं तो स्पष्ट तौर पर यह पाते हैं कि समलैंगिकता को उनके यहाँ उनके शौक़ के तौर पर समाज में सामान्य माना जाता था, बल्कि उनसे छोटे वर्ग में समलैंगिक जोड़े की ख़बर लगते ही उन्हें सजा दे दी जाती थी या यह ज़रूर जाहिर कर दिया जाता था कि, ‘ग़रीबी में नवाबों के शौक़?!’
हालाँकि इन सब बातों का सार यह है कि हम सब शुरू में समलैंगिक होते ही हैं, फिर आगे की परतों में हमारा परिवेश, हमारा समाज, हमारी कंडीशनिंग और बहुत हद तक हमारा ओरिएंटेशन तो शामिल रहता ही है।
अमेरिकी दार्शनिक एवं स्त्रीवादी विचारक ज्यूडिथ बटलर ने लिखा है कि, ‘Masculine and feminine roles are not biologically fixed but socially constructed.’
ज्यूडिथ को पढ़ते हुए एक बात कौंधती है, जो मैंने बहुत पहले कहीं पढ़ी थी कि प्राचीन ग्रीस में (शायद १५वीं या १६वीं शताब्दी में) मनुष्य का एक ही सेक्स माना जाता था, ‘पुरुष’।
मतलब जो भी बच्चा पैदा होता उसे पुरुष(आदमी) ही माना जाता था, योनि वाले बच्चे को पुरुष का ही इनवर्जन माना जाता था।
उफ़्फ़! हम अंदाज़ा नहीं लगा सकते कि पितृसत्ता की जड़ें कितनी गहरी हैं।
हाल ही में विलियम शेक्सपियर का नाटक ‘ट्वैल्थ नाइट’ दुबारा पढ़ कर ख़त्म की, जिसमें ऐंटोनियो का सेबेस्टियन के प्रति जो लगाव है वह उसके समलैंगिक होने को बार-बार झलकाता है। इसी तरह ओलिविया का सिजैरियो(वायोला का पुरुष रूप) के प्रति आसक्त हो जाना, उसके समलैंगिक गुण की ओर इशारा करते हैं।
यह कोई ज़रूरी नहीं कि सेक्सुअलिटी का निर्धारण अंततः इससे तय कर दिया जाए कि फला पुरुष ने फला स्त्री से शादी(या लिव-इन) की तो वह अब हेटेरोसेक्सुअल ही है, या फला स्त्री ने स्त्री से विवाह कर लिया तो वह अब होमोसेक्सुअल ही है। यहाँ आता है यूनिवर्सल सेक्सुअलिटी का टर्म ‘क्वियर’।
- Shobha Akshar
(शीर्षक : निराला की किताब ‘गीतिका’ से)
(निराला ने अपने ऑटोबायोग्राफ़िकल वर्क ‘कुल्ली भाट’(1939) में पंडित पथवारीदीन भट्ट का ज़िक्र कर समलैंगिक विषय को ब-ख़ूबी ऐड्रेस किया है)