Kanwal Bharti : दैनिक जागरण की प्रतियाँ जलाने वाले दलितों को अब जाकर पता चला है कि वह भाजपा का अख़बार है, जबकि वह तो अपने जन्म से ही संघ के हिंदुत्व का अख़बार रहा है. यही नहीं, ‘पान्चजन्य’, ‘ऑर्गनाइजर’ और ‘पायनियर’ भी संघ और भाजपा-समर्थक अख़बार ही हैं. किस-किस को जलाओगे? यह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का अलोकतांत्रिक कार्य है. दलित क्यों इन अख़बारों को पढ़ते हैं? इन्हें खरीदना और पढ़ना बंद करना ही इनका सही बहिष्कार है. अगर लोकतान्त्रिक तरीके से आक्रामक विरोध करना है तो जिले-जिले में सेमिनार और गोष्ठियां कीजिये.
मैंने ‘दैनिक जागरण’, ‘पान्चजन्य’, ‘ऑर्गनाइजर’ और ‘पायनियर’ कभी न ख़रीदा और न पढ़ा. एक बार भूल से हाकर घर पर ‘पायनियर’ डाल गया था, उस दिन मेरा मूड दिनभर ख़राब रहा. सालों पहले ‘पान्चजन्य’ के सामाजिक न्याय अंक और बिरसा मुण्डा अंक ख़रीदे थे, यह देखने के लिए कि इन विषयों पर उसकी वैचारिकी क्या है? कोई 25 साल से भी ज्यादा हो गये, ये अंक अभी भी मेरे पास सुरक्षित हैं. इन दोनों अंकों की वैचारिकी की आलोचना भी मैंने की थी. यही प्रतिरोध लोकतंत्र में होना चाहिए.
आज कौन सा ऐसा अख़बार है, जिसमें दलित वैचारिकी का कोई कालम छपता हो? अंग्रेजी में ‘पायनियर’ में चन्द्रभान प्रसाद ने अपना कालम शुरू किया था, जिसे भाजपा के ही उनके मित्र चन्दन मित्रा ने उनसे लिखवाया था. वह सन्डे में छपता था. पता नहीं कि अब भी वह जारी है या नहीं? क्योंकि मैं ‘पायनियर’ नहीं पढ़ता. हिंदी में ‘राष्ट्रीय सहारा’ श्योराजसिंह बेचैन ने ‘दलित उवाच’ कालम लिखना शुरू किया था. यह भी उनके व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण संभव हुआ था. अब शायद वो भी नहीं छपता. इन दो प्रयासों के बाद मेरी जानकारी में नहीं है कि कोई तीसरा प्रयास भी किसी अख़बार में शुरू हुआ हो.
सिर्फ आज की तारीख में ही नहीं, किसी भी काल में हिंदी का कोई अखबार दलित विचार और लेखन को पसंद नहीं करता. किसी दलित लेखक को कभी कभार छाप देना, उनकी लोकतान्त्रिक मजबूरी है, वह उनका अजेंडा नहीं है.
‘पंजाब केसरी’ क्या है? क्या वह पूरी तरह हिन्दुत्ववादी नहीं है? अटल बिहारी बाजपेई की सरकार में क्या सभी अख़बार भाजपाई नहीं हो गये थे? उनके घुटने के आपरेशन को इन अख़बारों ने एक उत्सव में नहीं बदल दिया था? मण्डल-कमण्डल के दौर में क्या सभी अख़बार मण्डल-विरोधी नहीं हो गये थे? (तब नवभारत टाइम्स जरूर एक अपवाद था.)
पहले अंग्रेजी में ‘दि हिन्दू’ में कुछ दलित-पक्ष का पढ़ने को मिल जाता था, पर अब उसकी पालिसी भी बदल गयी है. भाजपा उसके भी अजेंडे में भी शामिल हो गयी है. मुझे उसे भी पढ़ना बंद करना पड़ा. अख़बार भी कारपोरेट हैं, उन्हें मुनाफा चाहिए. जन-हित अब उनका अजेंडा नहीं रह गया है. इसलिए मैं अपने दलित मित्रों से फिर निवेदन करूँगा कि अख़बारों को जलाने की नहीं, उनके खिलाफ दबाव बनाने की जरूरत है.
जाने-माने दलित चिंतक कंवल भारती के फेसबुक वॉल से.
Comments on “दैनिक जागरण जैसे अखबारों को खरीदना और पढ़ना बंद करना ही इनका सही बहिष्कार है : कंवल भारती”
8 -10 साल पहले में लाइब्रेरी जाकर एक एक हिंदी अखबार चाटता था मगर अब तो किसी भी अखबार को देखना का भी मन नहीं करता हे जनसत्ता पर भी बस एक उचटती हुई नज़र ही डाल लेते हे मैगज़ीन भी सब रद्दी हिंदी प्रिंट का अल्लाह जाने क्या होगा
jagran wale mha badmaas hain 😛
ये कवँल भारती की कुंठा है जो उन्होंने लेख में व्यक्त की है| दलित साहित्य को सामान्य हिंदी साहित्य से उत्कृष्ट पेश करिए और एक नंबर बन जाइये| किसी का बहिष्कार करने की जगह खुद को ऊँचा उठाइए|
Kanwalji me ek chhoti salah hai, khud ek akhbar nikal yen, taki manonukul article likh saken.
Kanwalji meri ek chhoti salah hai ki aap khud ek akhabar nikal len, taki apane manonulul articke likh saken,
कँवल जी की बात सही पर मज़बूरी यह है की लोकल खबरों की वजह से पढना है इन के सम्पादकीय और और खबरों के पूर्वाग्रह से परिचित होने के बाद इन की सोच पर दुख ही होता है /हम लोगो के लिए सही अख़बार सिर्फ सपना है