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सुख-दुख

लखनऊ में पत्रकारों की राजनीति पर सवाल उठाओ तो पूछा जाता है- ‘किस गुट की तरफ से बोल रहे हो?’

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता.

इन दो व्यक्तियों की तस्वीरों को देखिये और पहचानने की कोशिश कीजिये… जितने अति वरिष्ठ हैं और जितने भी बड़े पत्रकारों के नेता हैं, उनमें से शायद बहुत कम ही इनको पहचानते होंगे… जो नहीं पहचानते, उन्हें मैं बता देता हूं- इसमें बायीं तरफ हैं Neeraj Mishra और दाहिनी तरह है Mukesh Verma. दोनों टीवी के बहुत कनिष्ठ पत्रकार हैं लेकिन दिल के बहुत बड़े हैं और साथियों के लिए जीना-मरना जानते हैं… इनका पत्रकार दोस्त था… नाम था Santosh Kumar Gwala…

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता.

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इन दो व्यक्तियों की तस्वीरों को देखिये और पहचानने की कोशिश कीजिये… जितने अति वरिष्ठ हैं और जितने भी बड़े पत्रकारों के नेता हैं, उनमें से शायद बहुत कम ही इनको पहचानते होंगे… जो नहीं पहचानते, उन्हें मैं बता देता हूं- इसमें बायीं तरफ हैं Neeraj Mishra और दाहिनी तरह है Mukesh Verma. दोनों टीवी के बहुत कनिष्ठ पत्रकार हैं लेकिन दिल के बहुत बड़े हैं और साथियों के लिए जीना-मरना जानते हैं… इनका पत्रकार दोस्त था… नाम था Santosh Kumar Gwala…

बेहद ही नेकदिल और शानदार बन्दा… लेकिन मौत से किसकी यारी है… आज हमारी कल तुम्हारी बारी है… काल के गाल ने उसको लील लिया… युवा पत्रकार, जो करियर भी न संवार सका था. पीछे पत्नी और दो बेटियाँ… समस्या और भी थी- इनके पास न स्थायी नौकरी थी… न राज्य मुख्यालय की मान्यता… न पीएफ… न फंड… न ठेके-पट्टे-ट्रांसफर-दलाली का अनुभव… न बड़े भाइयों/बड़े पत्रकारों पर विश्वास… क्योंकि जो अपने साथियों के लिए कुछ नहीं कर पाए या कुछ नहीं करना चाहा तो ये कैसे उम्मीद लगाते…. उस समय स्वर्गीय Surendra Singh का उदाहरण इनके सामने था, जिनके लिए हम सब अति वरिष्ठ पत्रकार अब तक कुछ नहीं कर पायें हैं… खैर…

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दोनों दोस्तों ने समझ लिया कि उनका एक साथी चला गया है, उसके परिवार पर बहुत बड़ा पहाड़ टूट गया है. सबने तमाम अपने दोस्तों से चर्चा की, चन्दा इकठ्ठा किया और अपने एक साथी के परिवार को तत्काल एक लाख रूपये की मदद उपलब्ध करवायी… इनकी पहुँच मुख्यमंत्री तक नहीं थी तो इन्होंने अपनी वेदना डीएम राज शेखर और एसएसपी राजेश पांडेय तक पहुंचाई. सोचिये कि हम पत्रकार बड़ी-बड़ी डींगे हांक कर जिन अफसरों को गाली देते हैं लेकिन अपने ही साथियों के दर्द में नहीं खड़े होते है… उन्हीं अफसरों ने हमसे इतर इन मेहनतकश पत्रकारों के लिए अपना हाथ बढ़ाया… स्वर्गीय संतोष के दोनों बच्चे प्रमुख स्कूलों में पढ़ते हैं, ऐसी स्थिति में उनके लिए फीस का इंतजाम किया गया… जिलाधिकारी ने प्रयास कर दोनों बच्चियों की इंटर तक की फीस स्कूल प्रबंधन से अनुरोध कर माफ़ करा दी… फिर स्वयं के प्रयासों से ढाई लाख रूपये की सहायता परिवार को उपलब्ध करवाई…

इसी तरह एसएसपी राजेश पांडेय जी ने भी प्रयास कर तकरीबन ढाई लाख रूपये परिवार को दिलवाए. ये बच्चे यहीं न थमे… इन्होंने और इनके साथियों ने प्रयास जारी रखा… जिन अफसरों और नेताओं को जानते थे उनसे गुजारिश करते रहे और सफलता पायी… अपने मरहूम दोस्त को मुख्यमंत्री से बीस लाख रूपये की सहायता दिलाने में सफल हुए… इनकी कोशिशें यहीं नहीं थमी हैं. नीरज कहता है कि हमारा साथी था, ऐसे कैसे उसके परिवार को अकेला छोड़ दें… मुकेश कहता है कि हमारे प्रयास अभी ख़त्म नहीं हुए हैं. कोशिश कर रहे हैं कि उसकी पत्नी को सरकारी नौकरी मिल जाए. मैंने आज पूछ लिया कि किसी पत्रकार संगठन या गुट की मदद नहीं ली.. तो बोला- छोड़िये न सर, सब बड़े भाई हैं… लेकिन मुझे पता है, उसने कहा इसलिए नहीं क्योंकि ये जानते थे कि अगर बड़े भाइयों से कहेंगे तो वो केवल रायता फैलाएंगे और वैसी ही “मदद” करेंगे, जैसी अपने साथियों की करते हैं…

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यह किस्सा इस लिख रहा हूं कि मैंने कल एक और धरना देख लिया…. राज्यपाल के साथ तस्वीरें देखीं और एक विज्ञप्ति भी देखी… जिसमें “दिल्ली और पूरे भारत” में पत्रकारों पर हमले की चिंता थी… पहले बताया गया कि धरना दिल्ली में पत्रकारों पर हमले के विरोध में है…. पर जब भाई Shalabh Mani Tripathi, भाई Gyanendra Shukla, भाई Rajendra Kumar और कुछ साथियों ने मुद्दा उठाया कि यूपी में पत्रकारों के लिए क्या सब मीठा-मीठा हो गया है? तो दुबारा भेजे गए मैसेज में यूपी की घटनाओं को भी जोड़ दिया गया… बहुत अच्छा किया… लेकिन ये तो अन्याय है कि हम अब तक अपने लखनऊ के साथियों के लिए कुछ कर नहीं पाए हैं और दिल्ली के लिए धरना दे रहे हैं…. और फिर टीवी पत्रकारों के हमले के विरोध में धरने की जो तस्वीरें फेसबुक और वाट्सएप पर नज़र आयीं, उसमें लखनऊ के टीवी पत्रकार दिख ही नहीं रहे थे…

दरअसल अब तो ये हाल है कि पत्रकारों की कुछ भी एक्टिविटी होती है तो आम पत्रकार पूछते हैं कि किस गुट की तरफ से है… Kumar Sauvir, आनंद सिन्हा, Rajendra Kumar, Mohd Kamran और नावेद शिकोह जैसे लोग पत्रकारों की राजनीति पर सवाल उठाते हैं तो पूछा जाता है कि किस गुट की तरफ से बोल रहे हैं… लेकिन दोनों गुट इन सवाल पूछने वालों तो नहीं बनाए हैं? गुटों से ज्यादा अच्छे तो Jitendra Shukla साबित हुए हैं, जो कम से कम कुछ चन्दा इकठ्ठा कर साथियों के मदद करते हैं. दो गुटों का मैंने तब भी विरोध किया था और आज भी करता हूँ… तब किसी ने मुझे Pranshu Mishra गुट का बताया तो किसी ने हेमंत तिवारी भाई के गुट के होने का आरोप मढ़ दिया….

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लेकिन सच्चाई ये है कि जितने अच्छे मित्र मेरे प्रांशु हैं, उतना ही सम्मान मैं हेमंत जी का भी करता हूं… कल जो धरने में थे उनमे भी कई बड़े भाई और साथी हैं… लेकिन हमें हासिल क्या हुआ? अगर कुछ हासिल हुआ तो आम पत्रकारों को भी बता दिया जाए… वरना हमें अपने छोटी भाइयों से सीखना चाहिए, जिन्होंने किसी की आलोचना किये बगैर अपने दोस्त की मदद की… हम में से किसी ने तो सुरेन्द्र सिंह, केडी शुक्ला के साथ चाय पी होगी… कभी तो ये हमारे सुख-दुःख में खड़े हुए होंगे… अगर दिल्ली के पत्रकारों के लिए हम इतना कर सकते हैं तो जिनके साथ उठे-बैठे उनके लिए तो कुछ करें…. साथियों और बड़े भाइयों बात बुरी लगी हो तो माफी… छोटे भाइयों को एक बार फिर मेरा सलाम…

खबर थी गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्जे
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ…

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लेखक नवल कान्त सिन्हा से संपर्क [email protected] या +91 9415409234 के जरिए किया जा सकता है.


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