मन में मजीठिया और बाहर मक्कार तंत्र का ताना-बाना। अखबार कर्मचारी आज इसी स्थिति में फंसे हुए हैं। उन्हें इससे निकलने का कोई कारगर-प्रभावी रास्ता सूझ नहीं रहा है। या कहें कि सूझने नहीं दिया जा रहा है। आप छूटते ही सवाल दागने की मुद्रा में आएं उससे पहले ही मैं बता देना चाहता हूं कि वह है सरकार का श्रम विभाग। जी हां, श्रम विभाग! जिसे आपकी मदद करनी चाहिए, सहयोग करना चाहिए, सुझाव देने चाहिए, वही अपनी जिम्मेदारी कर्मचारियों पर थोप रहा है, लाद रहा है। अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है, पीछा छुड़ा रहा है।
ठीक समझा आपने, श्रम विभाग ही तो नसीहत दे रहा है कि आप मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के हिसाब से बनती सेलरी एवं अन्य सुविधाओं का लेखा-जोखा उसे (श्रम विभाग) को सौंपिए। फिर उसी के आलोक में, उसी आधार पर वह आगे की कार्यवाही करेगा। कार्यवाही शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि श्रम विभाग ने श्रमिकों-कामगारों-कर्मचारियों के हित में मालिकों-मैनेजमेंट के खिलाफ कोई कार्रवाई (एक्शन) कभी की हो, याद नहीं आता। क्योंकि उसके इतिहास में ऐसा कुछ कहीं अंकित ही नहीं है। वैसे भी कार्यवाही शब्द सरकारी तंत्र का पसंदीदा शब्द है, जिसका निहितार्थ यह है कि आराम से, आहिस्ता-आहिस्ता अपना काम करते जाओ। साथ ही यह लगे कि परेशान व्यक्ति का काम करने में कोई कोताही नहीं हो रही है।
श्रम विभाग हमेशा से कर्मचारियों के शोषण, उनके साथ हो रहे अवैध-गैर कानूनी कार्यों का मूक दर्शक रहा है। मालिक कर्मचारियों के साथ कुछ भी करें, श्रम विभाग उस पर कोई एक्शन लेने से बचता रहा है। यही हरकत वह मजीठिया के मामले में भी कर रहा है। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने 28 अप्रैल 2015 के आदेश में स्पष्ट रूप से राज्य सरकारों से कहा है कि वे वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अनुच्छेद 17बी के तहत लेबर इंस्पेक्टरों/लेबर अफसरों को नियुक्त करें जो मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के क्रियान्वयन का स्टेटस पता करेंगे। फिर उस पर रिपोर्ट तैयार करके राज्यों के लेबर कमिश्नर निर्धारित अवधि में सुप्रीम कोर्ट को भेजेेंगे। लेकिन इधर झारखंड सरकार के लेबर कमिश्नर ऑफिस ने अखबारों में एक विज्ञापन छपवा दिया है जिसमें कहा गया है कि कर्मचारियों को अपने क्लेम को फार्म-सी में भरकर श्रम आयुक्त के कार्यालय में देना चाहिए। बता दें कि फार्म-सी का प्रावधान वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट में किया गया है। इस विज्ञापन को इतना प्रसारित-प्रचारित करा दिया गया है कि अखबार कर्मचारी इसी में उलझ गए हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि क्या करें, क्या न करें?
एक तरह से देखा जाए तो झारखंड सरकार के लेबर कमिश्नर की ओर से प्रकाशित कराया गया यह विज्ञापन पूरे देश की राज्य सरकारों के श्रम महकमे की मानसिकता, करतूतों-कारगुजारियों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रकारांतर से यह दिखाता है, साबित करता है कि श्रम विभाग के बड़े से लेकर छोटे तक सारे ओहदेदार अधिकार संपन्न होने के बावजूद कर्मचारियों के हित में कुछ करना नहीं चाहते। वे अक्षम होने का दिखावा करते हैं, नाटक करते हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने जिस वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के अनुच्छेद 17बी के तहत लेबर इंस्पेक्टरों/लेबर अफसरों की नियुक्ति करने का आदेश दिया है वह अनुच्छेद 17बी इन इंस्पेक्टरों/अफसरों को इतना अधिकार देता है कि वे अखबारों के दफ्तरों में धड़ल्ले से जाकर वहां सारे रिकॉड्र्स, रजिस्टर्स, बही-खाते, एकाउंट्स से जुड़े सारे दस्तावेज एवं अन्य जरूरी संबद्ध दस्तावेजों की जांच-पड़ताल कर सकते हैं। अनुच्छेद 17बी इन सरकारी अफसरों- कर्मचारियों को भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 45 के तहत भी विशेषाधिकार से संपन्न करता है। मतलब ये कि वे मालिकों-मैनेजमेंट से सख्ती से पूछताछ कर सकते हैं और कर्मचारियों के साथ हो रही नाइंसाफी के खिलाफ उचित कदम भी उठा सकते हैं।
निस्संदेह, अगर श्रम अधिकारी अपने अधिकारों का सही ढंग से इस्तेमाल करते हुए कार्य को अंजाम दें तो अखबार कर्मचारियों का मकसद, लक्ष्य आसानी से पूरा हो सकता है। साथ ही अखबार मालिकों के घृणित, कुटिल, जघन्य, नीच, पापी मंसूबों-धंधों-कारगुजारियों का भंडाफोड़ हो सकता है। लेकिन ऐसा श्रम महकमा कर नहीं रहा। वह अपनी जिम्मेदारी अखबार कर्मचारियों पर थोप रहा है। इसके पीछे श्रम अधिकारियों की निहित मंशा मालिकान के साथ अपने कथित अच्छे संबंधों को बनाए रखना है। वेे नहीं चाहते कि उनके रंग में कोई भंग पड़े। मालिकान से रिश्ते बनाए रख कर वे मोटी कमाई करते हैं। श्रम व श्रमिकों से जुड़े किसी भी मामले में मालिकान फंसते हैं तो श्रम महकमा उनके लिए अमूमन ढाल बन कर खड़ा हो जाता है। मामले की लीपापोती करने में श्रम अधिकारी और कर्मचारी तकरीबन निर्णायक भूमिका निभाते हैं और बदले में मालिकों की ओर से मुंहमांगा इनाम मिल जाता है। इनाम मिलने का यह सिलसिला टूटे न, इसमें निरंतरता बनी रहे, इसलिए विभागीय अफसरान अपने भक्ति कार्य में मशगूल रहते हैं।
यह भी आमतौर पर देखने-सुनने को मिल रहा है कि श्रम अधिकारियों-कर्मचारियों को मजीठिया वेज बोर्ड के बारे में जानकारी ही नहीं है। श्रम ऑफिसों में यह बहाना अक्सर सुना जाता है। -ठीक है, आपको नहीं पता है तो इस बारे में जानकारी ले सकते हैं। और जानकारी आपको लेनी भी पड़ेगी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन जो करना है। अगर नहीं करना है तो बताइए! – एक मुलाकात में श्रम विभाग के एक अधिकारी से मुझे इन्हीं शब्दों में कहना पड़ा। अधिकारी महोदय तुरंत तैयार हो गए और मैंने संक्षेप में उन्हें पूरी जानकारी दे दी। साथ ही वह क्वेश्चनेयर (प्रश्नावली) भी उन्हें सौंप दी जिसे इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के महासचिव श्री परमानंद पांडेय ने तैयार की है। इस प्रश्नावली में मजीठिया से संबंधित 21 सवाल हैं जिनका जवाब अखबार मालिकान-मैनेजमेंट को देना है। यह क्वेश्चनेयर सभी राज्य सरकारों एवं उनके श्रम महकमे को काफी पहले भेजा जा चुका है।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने सभी लेबर कमिश्नरों को रिपोर्ट भेजने के लिए तीन महीने की मोहलत दी थी। इन्क्वायारी-छानबीन-पड़ताल करने और रिपोर्ट बनाने के लिए यह समय पर्याप्त से कहीं बहुत ज्यादा है। लेकिन इस दी गई-मिली हुई अवधि में भी श्रम विभाग अपना काम पूरा नहीं कर पाया है। या पूरा करना नहीं चाहता है। कर्मचारियों से अपना क्लेम फार्म-सी में खुद ही भरने को कहना, सुझाव-नसीहत देना शायद इसी अकर्मण्यता, अक्षमता, लापरवाही, लालच, लोभ का नतीजा है। श्रम विभाग को इससे बचने के लिए अभी भी थोड़ा वक्त है। अगर चूक जाता है तो अवमानना की गाज उसके अधिकारियों पर भी गिरना लाजिमी है। पत्रकार एवं गैर पत्रकार साथियों से गुजारिश है कि वे श्रम विभाग की कारगुजारियों पर पूरी सतर्कता से नजर रखें और जरूरत पड़े तो सर्वोच्च न्यायालय को सूचित करने में पीछे न रहें।
लेखक भूपेंद्र प्रतिबद्ध से संपर्क : 9417556066, [email protected]