मुंबई में रिपोर्टिंग के दौरान आपस में मारपीट, और रिपब्लिक भारत के रिपोर्टर द्वारा बुरा भला कहने पर टिप्पणी…
-निरंजन परिहार-
मीडिया के हमारे साथियों को सार्वजनिक रूप से लड़ते देख आहत मन से यह कहने को जी करता है कि इस पराक्रम को सम्हालिये। दूसरों की इज़्ज़त उतारने का धंधा करते हुए आपस में एक दूसरे की इज़्ज़त को दांव पर मत लगाइये। हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि हमारा काम हमारे जीने और जीवन को जीतने का साधन रहे तब तक तो ठीक। लेकिन वही काम जब इज्जत खराब होने का कारण बन कर सामने आने लगे तो उस काम के बारे में पुनर्विचार करना बहुत जायज हो जाता है।
मीडिया वैसे भी कब अब कोई पहले जैसा बहुत इज्जतदार माध्यम रह नहीं गया है। फिर ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में तो मीडिया ने बहुत पहले ही अपनी साख खो दी थी। सूचना देने में भी बहुत ज्यादा घालमेल होने की वजह से अब यह जानकारी के माध्यम के रूप में भी मीडिया अपनी साख खोता जा रहा है। अब मीडिया सिर्फ व्यापार है। शुध्द व्यापार। जिसे जिंदगी की कीमत पर सिर्फ अपने मुनाफे की पड़ी रहती है, किसी की इज्जत जाए तो भाड़ में, हमें अपनी गठरी में अपना मुनाफा चाहिए। जितना बड़ा ब्रांड उतना ही बड़ा धंधा। पत्रकारिता में कभी धंधा करने वालों की इज़्ज़त धंधेवालियों जैसी ही मानी जाती थी। और अब वैसे भी कोई औकात नहीं मानी जाती। शायद यही वजह है कि मीडिया के भी अब धंधा बन जाने के बाद मीडिया तकदीर के तिराहे पर है और बाजार में मीडिया की औकात नपने लगी है।
चिंतन की गहराइयों की गवाही के साथ साफ तौर पर कहा जा सकता है कि मीडिया की इज्जत और औकात दोनों सरेआम गिरने लगी हैं। जो मीडिया अपने आंकलन से कभी दुनिया को उसकी औकात और हैसियत का उम्दा अहसास कराता था, उसमें आलम यह है कि चौराहों पर खड़े होकर हम आपस में ही पिटने लगे हैं। और किसी साथी को बुरा लगे तो अपने जूते पर, लेकिन ऐसे धंधे के लिए अपनी जिंदगी को स्वाहा करने से पहले अब हजार बार सोचने का वक्त आ गया है, आप भी यही सोचते होंगे ! नहीं सोचते हैं, तो सोचिए, क्योंकि सवाल आपकी, हमारी और सबकी इज़्ज़त का है, जो टीवी चैनलों की स्क्रीन पर तो तार तार हो ही रही है, अब सरे आम भी हम खुद ही तार तार रहे है।