आवेश तिवारी-
अभी मेरी एनडीटीवी के एक पत्रकार साथी से बात हो रही थी वह दुखी है और भविष्य को लेकर उहापोह में। यह निश्चित है कि अडानी के मालिकाना में वह काम नहीं करेगा। उस जैसे बहुत से पत्रकार ऐसे हैं जो रवीश कुमार नहीं हैं जो बड़े नाम वाले भी नहीं है। लेकिन उन्होंने इसके बावजूद अडानी के अधीन काम करना स्वीकार नहीं किया है। रवीश से पहले मैं उनको सलाम करता हूँ। क्योंकि मैं जानता हूँ कि उनके लिए घर चलाने का मुद्दा भी एक बड़ा मुद्दा है।
पत्रकारिता का सबका अपना अपना तरीका होता है अपनी अपनी शैली। रवीश कुमार की शैली अनूठी है। याद रखियेगा जब किसान आंदोलन चल रहा था जब सीएए, एनआरसी के खिलाफ देश भर में आग लगी हुई थी तो तमाम वैसे पत्रकार जिन्हें आप नहीं जानते आम आदमी के पक्ष में खड़े थे और सरकार की नाक में दमकर रखे थे, दरअसल वह जंग लड़ रहे थे और जीते।
इस सरकार से लड़ाई में हजारों पत्रकारों ने अपनी नौकरियां खोई हैं कई की जानें गई हैं। हमें उनको भी हर वक्त याद रखना है। रवीश कुमार अगर फासीवाद के खिलाफ प्रतिक्रिया के प्रतीक हैं तो उनके खिलाफ आईटी सेल और दलाल मीडिया का भारी समूह क्रिया कर रहा है। लेकिन पत्रकारों का एक वर्ग ऐसा है जो क्रिया प्रतिक्रिया से अलग एक्शन में है वह फासीवाद पर ताबड़तोड़ हमले कर रहा है।
याद रखिये लुटियन की पत्रकारिता से अलग भी देश मे गंभीर जनर्लिज्म हो रहा है यकीन न हो तो अभी कारवां की वेबसाइट खोल कर देख लीजिए। अब वक्त आ गया है कि इस सरकार और इसके दलाल मीडिया हाउसों एक साथ हमले किये जायें यह हमले निस्संदेह खबरों से ही होंगे। अब जनमीडिया की जरूरत है जनता की मीडिया जनता के लिए जनता के द्वारा।