दीपक कबीर-
दिन की शुरुवात ही एक गहरी फिक्र और उदासी से हुई..
यूं तो मैं एनडीटीवी भी नहीं देखता था..tv से ही दूर था 2014 से…मगर प्रणव ,राधिका ,कमाल खान..रवीश और जाने कितनों को या कितने के बारों में में व्यक्तिगत जानकारी ,जुड़ाव रखता था तो यकीन था ..कुछ तो है जिसके बहाने लड़ाई लड़ी जा सकती है..
एनडीटीवी का जाना अगर थोड़ा मजे में कहूं तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया की दुनिया में “सोवियत संघ” का जाना है ..
मगर ये तो सिर्फ वजह बना है…नाउम्मीदी इस खबर के पीछे कहीं और छुपी है.., मसलन बहुत से पत्रकार या युवा यू ट्यूब पर चैनल /वेबसाइट पर गंभीर मुद्दों को उठाते चैनल चला रहे हैं,उनके लाखों फलोवर्स हैं…
पर समस्या दो है ..
पहली कि ये सब यू ट्यूब या सोशल मीडिया के उस एक बटन पर विस्तार पाए हैं जिसका नियंत्रण खुद एक ऐसे पूंजीपति के हाथ में है जो एक मिनट में इनका किया धरा सब जीरो कर सकता है…
दूसरा…इनकी लाखों की आडियंस कौन है ???
दुनिया छोड़िए खुद भारत की आबादी करोड़ों क्या अरब बार कर चुकी है..ऐसे में पूरे देश में बिखरे वोटर्स के हिसाब से लाखों की संख्या नगण्य ही रहेगी…
ये संख्या सत्ता के नजरिए से पक्ष या विपक्ष रखने वालों की लगभग कॉमन होती है..मतलब बरखा,वायर, अजीत अंजुम , नवीन कुमार या नवोदित श्याम मीरा..नैशनल वायस,शुद्र..की एक काफी कुछ कॉमन आडियंस ही होगी..
जितने भी इस किस्म के बनेंगे उनका भी शुमार होता जाएगा..
वो भी इसी तरह चर्चित दिखेंगे पर ..आडियंस एक कॉमन ही रहेगी..
ठीक इसी तर्ज पर ऑप इंडिया हों या सुदर्शन या तमाम सत्ता की जबान बोलने वाले दक्षिण पंथी..उनकी भी एक सेट आडियंस है..
यही नहीं…धार्मिक चैनल अलग…अश्लील कंटेंट वाले अलग..
सब अपनी अपनी दुनिया में चलते रहेंगे..जब तक ये पूंजीपति सोशल मीडिया प्लेटफार्म इनकी इजाजत देंगे..
प्राब्लम ये है… कि पहले बहुत सहजता से, स्वत: भी आडियंस या पाठक या जनता की विभिन्न विचारों और उनकी सामग्री की दुनिया में आवाजाही हो जाती थी..
एक किस्म का अनौपचारिक संवाद जन्म लेता था..
और समझ ,वैचारिकी ,पक्ष सब बदल सकते थे..बदलते रहते थे।
मगर अब सोशल मीडिया इंटलीजेंस अपने आप ये फिल्टर करता है और आप को पता भी नहीं चलता कि आप आज़ाद दिखते हुए, सर्च के सारे ऑप्शंस के मालिक होते हुए भी.. रैंडम दर्शक बने हुए भी…विचारों और अभिरुचियों की एक सीमित टनल में गहरे और गहरे धंसते चले जाते हैं..
आप अपने ही किसी हल्के फुल्के आग्रह या विचार के परमानेंट गुलाम होते चले जाते हैं..और ये आप को पता भी नहीं चलता कि कब आपका दिमाग और विचार अनुकूलित हो चुका है या ये कहूं गुलाम हो चुका है…
गुलामों को स्वतंत्र संवाद ,विचार विनिमय की आजादी नहीं होती..
उन्हे बस हुक्म मानना पड़ता है और जहनी गुलामों का डिजाइन ही ऐसा होता है कि कई बार अपनी कुर्बानी ही उन्हें जीवन का पवित्र ध्येय लगती है..
जनता का बहुसंख्यक जिसके हाथ में मोबाइल है,इंटरनेट है वो अपनी अपनी वैचारिक सुरंग में जाने को अभिशप्त है..
और फिर ये खुद ही बिना मोबाइल वालों को भी ऐसा ही बना देगा…
सत्ताएं हम से नहीं,हमारे जीवन सुधार पर नहीं,हमारे आंदोलनों से नहीं……..बल्कि सोशल मीडिया के मालिकों से समझौते करेंगी…उनपर इन्वेस्ट करेंगी..उनके मार्फत हम पर राज करना उन्हे ज्यादा आसान लगेगा..
मेन स्ट्रीम मीडिया पहले ही खत्म यानी कंट्रोल्ड है..
हम विज्ञान के सबसे बड़े आशिक..उसके उपादेय जूनियर ब्रांच “टेक्नोलोजी” से हारे हैं क्योंकि वो पूजीपतियों के कंट्रोल में थी
हम किसी भाजपा…किसी मोदी…किसी पार्टी से नहीं हारेंगे..
दरअसल वो सब भी अब इस सिस्टम के गुलाम ही रहेंगे..भले फायदे में दिखें…
हम इस न्यू वर्ल्ड ऑर्डर के विकृत पूंजीवाद से हार रहे हैं..
जिसने हमारे लगातार बोलने के बावजूद हमें “आपसी संवाद “की दुनिया से बाहर कर दिया या कर देगा..
एनडीटीवी का क्या रोना रोएं!
चुप्पियां ,त्वरित सुख, घटिया सुख , अवसाद ,खुदगर्जी या बेशर्मी ही अब हमारी धाती हैं जब तक हम जिंदा रहेंगे..
हम खास कर 2000 से पहले पैदा हुए लोग….
मगर इसके बावजूद भी कुछ ऐसा हो सकता है कि सब उलट जाय…वही उम्मीद भी है…