K Vikram Rao : अमूमन जूट (मारवाड़ी) प्रेस द्वारा अपने संपादकों से अर्दली सरीखा बर्ताव करने तथा बर्खास्त कर देने की घटनायें सुनने में आती हैं। पर मुम्बई के विख्यात जनपक्षधरीय अंग्रेजी साप्ताहिक “इकनामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली” के स्वामी (समीक्षा ट्रस्ट) द्वारा अपने विचारवान संपादक परंजय गुहा ठाकुर्ता को दरबदर (19 जुलाई) कर दिया गया तो बड़ा अचम्भा हुआ। अवसाद ज्यादा हुआ। संपादक ने अपने त्यागपत्र का कारण न्यास के सदस्यों का “मुझ पर से विश्वास उठ जाना” बताया। बर्खास्तगी का समानार्थी ही त्यागपत्र होता है। किन्तु रंज इस बात पर हुआ कि मीडिया जगत में प्रतिरोध की तरंगें नहीं उठीं।
कुछ दिन बीते NDTV के अरबपति मालिक प्रणब राय के प्रतिष्ठानों पर करोड़ो रूपयों की कर चोरी पर तो रिटायर्ड सम्पादक गण ने आलोचना सभा की थी। हालांकि उनमे कई हैं जो राजदूत, मंत्री, सांसद आदि लाभपदों का लुत्फ उठा चुके हैं। इस साप्ताहिक के संचालन में समीक्षा ट्रस्ट के वे न्यासी शामिल हैं जो सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में नामीगिरामी है। मसलन इतिहासकार डा.रोमिला थापर जिन्हें प्राचीन भारत केवल प्रतिगामी नजर आता है। आर्य उनकी राय में आयातीत जन थें। रोमिला थापर के आंकलन में ईस्लामी शासक उदारमना थे, सेक्युलर थे। समीक्षा ट्रस्ट के अध्यक्ष दीपक पारेख बड़े घरानों से जुड़े हैं। श्याम मेनन, राजीव भार्गव और दीपांकर गुप्त किसी समतामूलक अभियान से कभी भी नही जुडे़ रहे।
ये साहबान जूलियस सीजर के प्रिय मित्र मार्कस ब्रूट्स की भांति हैं, जिन्होंने संपादक ठाकुर्ता को एक राय से निकाल दिया। ब्रूटस ने तो सीजर के पीठ पर छूरा भोंका था।
तो बर्खास्तगी का कारण क्या था ? संपादक ठाकुर्ता ने बड़ी मेहनत कर दो लेख तैयार किये जिनमें नरेंद्र मोदी के परमसखा और ऊंचे उद्योगपति गौतम अडानी की अडानी पावर (ऊर्जा) इकाई की आलोचना लिखी। मगर समीक्षा ट्रस्ट के कर्ताधर्ताओं ने अडानी की चेतावनी पर दोनों लेखों की छपने नहीं दिया। फेंक दिया। अपनी पंद्रह महीनों की नौकरी भी पूरी होने के पूर्व संपादक ठाकुर्ता को सेवाशर्तों के उल्लंघन में पदमुक्त कर दिया। अर्थात ठाकुर्ता अब उन महान संपादकों की दीर्घा को प्रज्जवलित करेंगे जिन्हें उनके मालिकों ने दरवाजा दिखा दिया था। बरतरफ कर दिया था।
इसमें चमकता नाम शीर्ष पर है श्री Arun Shourie का। पत्रकारी तटस्थता के अदम्य पैरोकार अरूण शौरी भाजपा के मंत्री रहे। उन्हें विनिवेश विभाग दिया गया था। जो विनाश विभाग बन गया था। शौरी को इंडियन एक्सप्रेस का संपादक नियुक्त किया गया। उनके प्रधान संपादक थे स्व. बी.जी. वर्गीस। अपने जद में शौरी भूल गये कि वे दक्षिण पंथी दैनिक में नौकर हैं जहां एक मुनाफाखोर मारवाडी मालिक रामनाथ गोयंका संपादकीय कार्य की निगरानी करता है। एक दिन गोयंका ने शौरी के लेख प्रकाशित होने से रोक दिये। शौरी से त्यागपत्र मांग लिया गया | पहले तो कुछ आनाकानी हुई। फिर कोई विकल्प नहीं रहा। तो ऐसी वीरगाथा रही अरूण शौरी के संपादकीय स्वातंत्र्य की जद्दोजहद की। बड़े दहाड़ते थे, म्याऊं बोल गये।
जिक्र हो जाय मोबाशीर जावेद (M.J. Akbar) अकबर का। देश के प्रथम राजनीतिक साप्ताहिक को कोलकता में शुरू किया था, शोहरत पाई। अन्ततः तेलांगाना के अखबार मालिक टी. वेंकटराम रेड्डि ने अपने दैनिक से उन्हें बर्खास्त कर दिया। यह रेड्डि बैंक फ्राड में गिरफ्तार हो चुका था। अकबर को अपनी बर्खास्तगी की सूचना उनके लैपटाप पर मिली जब वे अपनी कार से (4 मार्च 2008) दफ्तर जा रहे थे। अकबर आज मोदी सरकार में विदेश राज्यमंत्री हैं। वे असाधारण संपादक हैं जिनसे मिलने को प्रधानमंत्री और विपक्षी नेता उत्सुक रहते हैं। मैं सम्पादक अकबर तथा उनकी पत्रकार पत्नी मल्लिका जोसेफ का सदैव आभारी रहूंगा। इस दम्पति ने अपने तमाम सहकर्मियों द्वारा एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर कराये थे जिसमें टाइम्स ऑफ इंडिया प्रबंधन (मुंबई) द्वारा मेरी बर्खास्तगी (1976) पर कड़ा विरोध जताया था। उस वक्त मैं तिहार सेंट्रल जेल (दिल्ली) में George Fernandes के साथ फांसी की प्रतीक्षा कर रहा था।
हम पर अभियोग था कि हमने इन्दिरा गांधी की ”विधि द्वारा स्थापित, सरकार पर युद्ध छेड़ा था। हालांकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय (न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा) ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन को भ्रष्ट आचारण के आरोप में रद्द कर दिया था और (12 जून 1975) छह वर्षों तक चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया गया। तभी इमरजेंसी थोप दी गई थी। तिहार जेल मेरे सत्रह नंबर वार्ड में टाईम्स प्रबंधन ने मेरा सेवामुक्ति का आदेश भिजवाया था। एम. जे. अकबर हमारी यूनियन इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ – Indian Federation of Working Journalists) की राष्ट्रीय कमेटी के 1986 में सदस्य रहे थे।
अब उल्लेख करूं किस प्रकार मीडिया मुगल के.के.बिड़ला ने लब्धप्रतिष्ठित संपादक बीजी वर्गिस को हिन्दुस्तान टाइम्स के प्रधान संपादक पद से बर्खास्त कर दिया था। कारण था कि इन्दिरा गांधी के झूठे चुनावी वादों पर वर्गीज ने खोजी रपट छपवाई थी। मसला भारतीय प्रेस काउंसिल (Press Council of India) तक गया। पर वह क्लीव संस्था संपादक को बचा न सकी। उस वक्त आई.एफ.डब्लू.जे. के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के नाते मैं ने वर्गिस के पक्ष में देशव्यापी सघर्ष चलाया। पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के सदस्य-पत्रकारों ने बिडला-इंदिरा गांधी का साथ दिया था। हमारी हड़ताल तोड़ दी थी |
सबसे दिलचस्प बर्खास्तगी नेहरू के दैनिक नेशनल हेराल्ड (National Herald), के सम्पादक एम. चलपति राव की हुई। उनके संपादक बनने की तीसवीं सालगिरह (1976) पर दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग कार्यालय में जलसा आयोजित हुआ। प्रधान मंत्री आईं और संदेशा दे गई कि यह विदाई समारोह है। पर वयोवृद्ध संपादक संकेत समझ नही पाये। वे 1946 में संस्थापक-सम्पादक और स्वाधीनता सेनानी स्व. के रामा राव के स्थान पर संपादक बने थे। अन्ततः एक शाम चलपति राव ने अपने लखनऊ संस्करण के स्थानीय संपादक सीएन चित्तरंजन को टेलिप्रिन्टर पर संदेशा भेजा कि “संपादकीय नही भेज पाऊंगा। आज यशपाल कपूर ने मेरे टाईपिस्ट को हटा दिया है”। ये यशपाल कपूर तीनमूर्ति भवन के माली थे और नेहरू को लाल गुलाब रोज प्रातः देते थे| इन्दिरा गांधी ने कपूर को अपना सचिव और नेशनल हेराल्ड का प्रबंध निदेशक नियुक्त किया था। कपूर ही (मार्च 1971) रायबरेली में प्रधानमंत्री के चुनाव प्रबंधक थे और सरकारी पद पर भी आसीन थे। चुनाव खारिज कर दिया गया था।
बड़ी दुखदायी बर्खास्तगी रही टाइम्स ऑफ इण्डिया (The Times of India), दिल्ली, के बड़े सम्माननीय सम्पादक और पूर्व सांसद श्री हरिकृष्ण (एच.के.) दुआ की। मालिक अशोक जैन तब विदेशी मुद्रा की हेराफेरी में कैद हुये थे तो उन्होंने इसे मानवधिकार का अवहेलना बताई। अशोक जैन ने संपादक दुआ को निर्दिष्ट किया कि वे प्रधानमंत्री पर दबाव बनाये कि उनपर चल रहा मुकदमा वापस ले लें। वे चाहते थे कि संपादक दुआ सुप्रीम कोर्ट चलें ताकि उनकी उपस्थिति का अशोक जैन के पक्ष में प्रभाव पड़े। संपादक दुआ के अस्वीकार करने पर इन मालिकों ने उन्हें टाइम्स ऑफ इडिया के पद से निकाल (26 मई 1998) दिया। अचरज होता है कि वामपंथी और उदारवादी जन के डान कहे जानेवाले कार्यकारी संपादक स्व. दिलीप पडगांवकर इस मसले पर चुप्पी साध गये। लेकिन दूसरे संपादक गौतम अधिकारी ने अपने निर्वीर्य प्रदर्शन से सम्पादकीय स्वाभिमान का जनाजा उठवा दिया। मालिक समीर जैन का आदेश था कि संपादक गौतम अधिकारी से संपादकीय पृष्ठ का दायित्व हटा लिया जाय। सबसे तार्किक पदमुक्ति मेरी नजर में टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रधान संपादक गिरिलाल जैन की थी |
शक्तिमान गिरिलाल जैन का किस्सा 1988 का था। मैं इस दैनिक के मुंबई संस्करण से 38 वर्षों तक जुडा रहा। गिरिलाल जैन को भनक मिल गई थी कि युवा मालिक समीर जैन उनकी छुट्टी करना चाहते हैं। गिरिलाल ने युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मदद मांगी। तय हुआ कि राजीव गांधी चीन यात्रा से वापसी पर समीर को बुला भेजेंगे। पर यह मारवाडी मालिक ज्यादा तेज़ निकला। प्रधानमंत्री के दिल्ली में उतरने के पूर्व ही गिरिलाल की विदाई हो गई। सहकर्मियों ने फेरवेल पार्टी तक नहीं दी। टाइम्स ऑफ इंण्डिया के मामले में प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के एक संदर्भ से मैं भी जुड़ा रहा था। मैं गिरीलाल जैन के पास अक्टूबर 1977 में गया था कि मुझे नौकरी वापस दें दे तथा दिल्ली ब्यूरो में नियुक्त कर दें क्योंकि मेरी पत्नी तब दिल्ली रेलवे अस्पताल में स्थानान्तरित हो कर आई थी।
मेरी गिरफ़्तारी के बाद उसे बडौदा से पाक-सीमा पर गाँधीधाम भेजा गया था | सम्पादक गिरिलाल जैन तेवर चढ़ाकर बोले,””विक्रम तुम चाहते हो कि लोग कहें कि, “the Prime Minister of India had dictated to the Editor of the Times of India to post you in the Delhi bureau?” मैंने साफ मना किया क्योंकि संपादक की स्वतंत्रता हेतु ही हम श्रमजीवी पत्रकार इन्दिरा गांधी की तानाशाही से भिड़े थे और जेल गये थे। तब प्रेस सेन्सरशिप थोपी गई थी। हालांकि जनता पार्टी काबीना का केवल प्रस्ताव था कि इमर्जेंसी में जो भी औघोगिक कर्मी बर्खास्त हुये थे उन्हे वापस बहाल किया जाय। जब मोरारजी देसाई ने संसद भवन में भेंट पर पूछा कि मैं फिर बडौदा में तैनात हो गया ? पता चलने पर कि मैं बेरोजगार हूं, प्रधानमंत्री ने मालिक आशोक जैन को (कोलकता) में फ़ोन किया। मुझे हास्यापद लगा कि खुद तो राजीव गांधी से गिरीलाल जैन रिरिया रहे थे और फिर मेरे साथ न्याय करने से कतरा रहे थे। मुझे लखनऊ में (1978) नियुक्त किया गया|
अतः हे भाई (बर्खास्त संपादक) परंजोत गुहा ठाकुर्ता, भारत के संपादकों की दयनीयता जान लीजिए। वे अपने स्तंभ में सारे विश्व के प्रधानमंत्रियों को राय देते है कि अपनी सरकार कैसे चलायें। मगर खुद अपनी नौकरी महफूज नही रख पाते हैं। अतः एक श्रमिक होने के नाते मुझसे आप समर्थन चाहे, तो स्वागत है, शुभकामनाओं के साथ।
लेखक K Vikram Rao से संपर्क [email protected] या Mob: 9415000909 के जरिए किया जा सकता है.