Chandra Bhushan : राष्ट्रभक्ति और लफंगापन… सैम्युएल जॉनसन 18वीं सदी के एक फाकामस्त, रूढ़िवादी, ब्रिटिश जीनियस थे। उनसे ज्यादा लिखने-पढ़ने वाले दुनिया में बहुत हुए हैं, पर जितने किस्से उनके बारे में कहे जाते हैं, उसके आस-पास पहुंचने का सौभाग्य विरले लोगों को ही मिला होगा। उनके दोस्त जेम्स बॉसवेल द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी ‘लाइफ ऑफ सैम्युएल जॉनसन’ को अंग्रेजी साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं में गिना जाता है।
इसी में बॉसवेल ने बताया है कि अपना वह कालजयी वाक्य ‘पैट्रिऑटिज्म इज द लास्ट रिफ्यूज ऑफ अ स्काउंड्रल’ (राष्ट्रभक्ति लफंगे का आखिरी ठिकाना है) सैम्युअल जॉनसन ने 7 अप्रैल 1775 को बोला था।
बॉसवेल ने अपनी किताब में इस वाक्य का कोई संदर्भ नहीं बताया है। लेकिन इसे कहते वक्त जॉनसन की उम्र 66 साल थी, जिसके बाद नौ साल वे और जिंदा रहे। यानी प्रथमदृष्ट्या जवानी की गदहपचीसी या बुढ़भस की सनक का इसमें कोई रोल नहीं था। बचपन में राष्ट्रभक्ति का लफंगेपन से जुड़ना मुझे गंदा लगता था। सैम्युएल जॉनसन का नाम पता होता तो उनके नाम पर दो-चार गालियां भी मैं जरूर निकालता। लेकिन उमर बढ़ने के साथ उनकी बात समझ में आती गई।
अभी सोशल मीडिया पर सक्रिय एक राष्ट्रवादी पूर्व संपादक जब-तब मुझे विचलित कर देते हैं। खासकर इस बात से कि अखबार संभालते वक्त पैसे-पावर को कैसे उन्होंने अपनी जूती की नोक पर रखा। मुझे याद आता है, मैंने नई-नई नौकरी शुरू की थी, तभी मेरी एक मित्र एम एससी (बॉटनी) करके जॉब मार्केट में आई। अपने बॉस से मैंने उसके लिए कहीं बात करने को कहा तो उन्होंने इन्हीं संपादक को फोन मिलाया और उन्होंने मेरी मित्र को अगली दोपहर मिलने का समय दे दिया।
उसके तीसरे दिन वह मुझे बहुत ही दुखी अवस्था में मिली। कहा, ‘तुमने कैसे आदमी के पास भेज दिया? कोई जान न पहचान, पर वह मुझे वहीं के वहीं मेरठ ले जाने पर अड़ गया।’ बाद में मुझे भी उनके अखबार में नौकरी करने का सौभाग्य मिला, पर तब तक वे कहीं और जा चुके थे।
जो जानकारियां उनके बारे में मिलीं, उनके मुताबिक राजनीतिक चमचागिरी की तो उनकी औकात ही नहीं थी लेकिन जो बंदा अखबार में पॉलिटिकल रिपोर्टिंग का प्रभारी था, उसकी मक्खनबाजी खुलेआम करते थे। गजब संयोग कि उगाही और धोखाधड़ी के सचित्र आरोपों के साथ दोनों उस अखबार से एक ही दिन निकाले गए और कुछ दिन इधर-उधर छिपते भी रहे।
कितनी अच्छी बात है कि अभी के दौर में ऐसे लोग न सिर्फ देशभक्ति और राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं बल्कि अपने मन को यह समझाने में भी सफल रहे हैं कि उनका जीवन स्वाभिमान, ईमानदारी और कार्यकुशलता से लबरेज बीता। इसमें कुछ बुराई नहीं, पर जब वे ‘देश’ नाम के डंडे से हर किसी की चौतरफा पिटाई शुरू करते हैं तो सैम्युएल जॉनसन की बात बेसाख्ता याद आती है।
नवभारत टाइम्स, दिल्ली में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार चंद्रभूषण की एफबी वॉल से.
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