जस्टिस (से) मार्कण्डेय काटजू-
मुझे नवंबर 1991 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया था, और उसके कुछ महीने बाद लगभग बर्खास्त कर दिया गया। यह एक अनकही कहानी है जो पाठकों को दिलचस्प लग सकती है।
न्यायाधीश नियुक्त होने के कुछ महीने बाद मेरे सामने एक मामला आया, नरेश चंद बनाम जिला विद्यालय निरीक्षक, गाजियाबाद (ऑनलाइन देखें) जिसे मैंने सुना और निर्णय दिया।
मामले के तथ्य यह थे कि एक युवक, नरेश चंद, को भारत में यूपी राज्य के जिला गाजियाबाद में एक हाई स्कूल के प्रबंधन द्वारा तदर्थ आधार पर जीव विज्ञान शिक्षक नियुक्त किया गया था, जिसे नियमों के तहत जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा अनुमोदित किया जाना था।
डीआईओएस ने इस आधार पर नियुक्ति को मंजूरी देने से इनकार कर दिया कि नरेश चंद ओबीसी (अन्य पिछड़ी जातियां, जो भारत में सामाजिक सीढ़ी में मध्यवर्ती जातियां हैं, तथाकथित ‘उच्च जातियों’ से नीचे, लेकिन अनुसूचित जाति/ दलित से ऊपर हैं) से हैं, जबकि पद अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित था।
फलस्वरूप विद्यालय प्रबंधन द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द कर दी गयी तथा उनकी सेवा समाप्त कर दी गयी। नरेश चंद ने इसे इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी और मामला मेरे सामने आया।
मुझे हमेशा से विज्ञान के प्रति तीव्र उत्साह रहा है, और मेरा हमेशा से मानना रहा है कि विज्ञान भारत की बड़ी समस्याओं को हल करने का साधन है। इस मामले ने मुझे फैसले में अपना दर्शन सामने रखने का मौका दिया।
शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए जातिगत आरक्षण को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा योग्यता और दलितों जैसी ऐतिहासिक रूप से दबी हुई जातियों की उन्नति की आवश्यकता के लिए हितकारी समझौता माना गया था, उदाहरण के लिए इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ में, और इसलिए मैं उन्हें पूरी तरह से अमान्य नहीं कर सकता था I
हालाँकि, जैसा कि ऊपर बताया गया है, मुझमें विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए हमेशा से तीव्र उत्साह और जुनून रहा है, क्योंकि मैं भारत की प्रगति के लिए इसे अत्यंत महत्वपूर्ण मानता हूँ।
एक न्यायाधीश से अपेक्षा की जाती है कि वह अपना निर्णय सुनाते समय अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं को किनारे रख दे, और केवल कानून के अनुसार फैसला दे। आम तौर पर मैं उस सिद्धांत का पालन करता था, लेकिन कुछ असाधारण मामलों में, जहां मुझे लगा कि ऐसा करने से राष्ट्र के हित का घोर नुकसान होगा, मैं कुछ हद तक इससे अलग चला गया। जैसा कि एक लैटिन कहावत ‘इंटरेस्ट रिपब्लिके सुप्रीमा लेक्स’ ( interest republicae suprema lex ) में कहा गया है, गणतंत्र का हित सर्वोच्च कानून है।
जाति-आधारित आरक्षण, हालांकि प्रत्यक्ष रूप से एक हितकारी उद्देश्य के लिए बनाया गया था, परन्तु वास्तव में हमारे चुनावों में वोट पाने का ज़रिया मात्र बन गया था। और मैं विज्ञान को कमजोर करना बर्दाश्त नहीं कर सका, जो राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुंचा रहा था। इसलिए जो विचार मैंने रखा वह यह था कि यद्यपि जाति के आधार पर आरक्षण अन्य क्षेत्रों में स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि ये क्षेत्र भारत की प्रगति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और इसलिए इन क्षेत्रों में कोई समझौता स्वीकार्य नहीं हो सकता है। नतीजतन, इन क्षेत्रों में कोई वैध आरक्षण नहीं हो सकता है, न तो शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए, न इन क्षेत्रों से संबंधित नौकरियों में भर्ती के लिए । मुझे अपने फैसले के कुछ अंश याद हैं:
“आरक्षण की नीति एक ओर उत्कृष्टता की आवश्यकता और दूसरी ओर ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों की मदद करने की आवश्यकता के बीच एक समझौता है। हालांकि, मेरी राय में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में कोई समझौता नहीं किया जा सकता है।
आज हमारा देश अपने 5000 वर्ष के ज्ञात इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। केवल विज्ञान ही है जो हमें पूर्ण विनाश से बचा सकता है। जब तक हम वैज्ञानिक मार्ग और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नहीं अपनाएंगे, विदेशी राष्ट्र पूरी तरह हमें बर्बाद कर देंगे ।
जब हमारा देश वैज्ञानिक पथ पर था तब वह समृद्ध हुआ। विज्ञान की सहायता से हमने हजारों साल पहले, जब ग्रीस और रोम को छोड़कर यूरोप में अधिकांश लोग जंगलों में रहते थे, शक्तिशाली सभ्यताओं का निर्माण किया था। हमने उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोजें कीं, जैसे गणित में दशमलव प्रणाली, चिकित्सा में प्लास्टिक सर्जरी आदि। हालाँकि बाद में हमने अंधविश्वासों और खोखले कर्मकांडों का अवैज्ञानिक रास्ता अपना लिया, जो हमें विनाश की ओर ले गया। इसलिए अब एकमात्र मार्ग यही है कि हमारे पूर्वजों द्वारा दिखाए गए वैज्ञानिक मार्ग, यानि आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, सुश्रुत, चरक, पाणिनि, पतंजलि, रामानुजन और रमन के मार्ग पर फिर से वापस लौटें।
हालाँकि सामाजिक और आर्थिक रूप से दबे-कुचले वर्गों की निश्चित रूप से सहायता की जानी चाहिए, लेकिन राष्ट्र के हित को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जैसा कि कहा गया है ‘इंटरेस्ट रिपब्लिके सुप्रीमा लेक्स’ (गणतंत्र का हित सर्वोच्च कानून है)। जाति-आधारित आरक्षण की नीति के लिए कहीं न कहीं एक सीमा रेखा खींचनी होगी, और मैं विज्ञान पर यह रेखा खींचता हूं। इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कोई जातिगत आरक्षण वैध नहीं हो सकता।
रसायन विज्ञान, भौतिकी, जीव विज्ञान, गणित या किसी अन्य वैज्ञानिक विषय में लेक्चरर के रूप में किसी व्यक्ति की नियुक्ति करने के लिए, या वैज्ञानिक संस्थानों या कॉलेजों में प्रवेश लेने के लिए, या विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नौकरियों पर नियुक्तियां करने के लिए, सबसे मेधावी उम्मीदवार को चुनना होगा , और जाति और धर्म पूरी तरह से अप्रासंगिक और अवैध विचार हैं। मेरी राय में, आरक्षण नीति को वैज्ञानिक क्षेत्र (जिसमें चिकित्सा, प्रौद्योगिकी और गणित शामिल है) तक नहीं बढ़ाया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति डॉक्टर के पास जाता है तो वह डॉक्टर की जाति या धर्म नहीं देखता बल्कि वह उस डॉक्टर के पास जाता है जिसकी प्रतिष्ठा सबसे अच्छी होती है। वास्तव में, एक अक्षम डॉक्टर सार्वजनिक स्वास्थ्य को खतरे में डाल सकता है, जैसे एक अक्षम इंजीनियर एक दोषपूर्ण पुल या इमारत का निर्माण करके, जो गिर सकती है, सार्वजनिक सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है।
इसी प्रकार, जब सरकार परमाणु रिएक्टर स्थापित करना चाहती है तो वह किसी विशेष जाति या धर्म के वैज्ञानिकों की तलाश नहीं करती है, वह सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों की तलाश करती है । जब हमने “अग्नि” रॉकेट लॉन्च किया तो निश्चित रूप से इस महान उपलब्धि में शामिल वैज्ञानिकों को उनकी जाति के कारण नहीं चुना गया था।
मेरी राय में यह देश प्रगति तभी कर सकता है जब वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक सोच अपनायेगा। विज्ञान (चिकित्सा, इंजीनियरिंग या गणित सहित) में शैक्षिक पदों में जातिगत आरक्षण, या वैज्ञानिक क्षेत्र में शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश, या धर्म या जाति के आधार पर वैज्ञानिक पदों पर नियुक्तियाँ करना पूरी तरह से ग़ैर कानूनी, मनमाना और देश के राष्ट्रीय हित के खिलाफ है।
आरक्षण की नीति के समर्थन में तर्क यह है कि इसका उद्देश्य समानता है। तर्क यह है कि चूंकि अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग लंबे समय से उत्पीड़ित और वंचित रहे हैं, इसलिए ऐसे लोगों को बराबरी का दर्जा देने के उद्देश्य से प्रतिपूरक राज्य की कार्रवाई की जरूरत है।
मेरी राय में वंचितों को समान बनाने की यह इच्छा राष्ट्रीय हित को नुकसान पहुंचाने की हद तक नहीं जा सकती है, और इसलिए इसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र तक विस्तारित नहीं किया जा सकता है। मैंने पहले ही उल्लेख किया है कि हम अब अपने देश के लंबे इतिहास के दौर में एक चौराहे पर खड़े हैं। हमें अब या तो वैज्ञानिक मार्ग अपनाना होगा या नष्ट हो जाना होगा। यह हमारे लिए जीवन या मृत्यु का प्रश्न है।’
जिन लोगों ने विज्ञान पढ़ा है वे जानते हैं कि विज्ञान किसी समझौते की अनुमति नहीं देता। यह वस्तुनिष्ठ सत्य की निरंतर खोज है, और इसमें बहुत ऊंचे मानक बनाए रखने चाहिए। आरक्षण की नीति द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में, जो हमारे देश की नियति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, को कमज़ोर कर उस अस्वीकार्य समझौते की अनुमति देना है।
जो लोग विज्ञान के क्षेत्र में आरक्षण की बात करते हैं, वे शायद पश्चिमी देशों द्वारा आधुनिक विज्ञान में हासिल की गई प्रगति के बारे में नहीं जानते होंगे I वे क्वांटम यांत्रिकी ( quantum mechanics ) का अर्थ नहीं जानते होंगे, और क्वांटम यांत्रिकी, जैसा कि हाइजेनबर्ग और श्रोडिंगर ( Heisenberg and Schrodinger ) द्वारा प्रतिपादित, और क्वांटम सिद्धांत ( Quantum theory ) के बीच अंतर नहीं जानते होंगे, जैसा कि मैक्स प्लैंक ( Max Planck ) द्वारा प्रतिपादित किया गया था, और जैसा कि आइंस्टीन ( Einstein ) द्वारा समझाया गया था, और ब्लैक होल ( Black holes ) पर प्रोफेसर स्टीफन हॉकिन्स ( Stephen Hawkins ) के शोध के बारे में नहीं जानते होंगे (देखें ‘A Brief History of Time’)।
वे शायद रामानुजन (जिसके सामने दुनिया के सबसे महान गणितज्ञ हार्डी ( Hardy ) ने भी अपना सिर झुकाया था) की मॉक थीटा फ़ंक्शन ( mock theta function ) की शानदार खोज के बारे में नहीं जानते होंगे, जो उन्होंने तब की थी जब वह 32 साल की उम्र में लगभग मृत्यु शय्या पर थे (देखें ‘The Man who knew Infinity’) I उन्होंने शायद रमन इफैक्ट या चन्द्रशेखर लिमिट के बारे में कभी नहीं सुना होगा। वे संभवतः रदरफोर्ड ( Rutherford ) की महान खोज के बारे में भी नहीं जानते हैं, जिन्होंने अपने प्रसिद्ध गोल्ड फ़ॉइल प्रयोग ( gold foil experiment ) के माध्यम से आधुनिक परमाणु सिद्धांत को प्रतिपादित किया था, जिसे बाद में नील्स बोह्र, ( Neils Bohr ), हाइजेनबर्ग और श्रोडिंगर की द्वारा संशोधित किया गया था। उन्होंने मॉर्गन ( Morgan ) के सामाजिक विज्ञान में उत्कृष्ट शोध के बारे में कभी नहीं सुना होगा, जिनको अमरीकी इरोक्वा जनजाति ( American Iroquois Indians ) के सेनेका समूह ( Seneca tribe ) ने अपनाया था , का अध्ययन किया था (मॉर्गन की ‘Ancient Society’ देखें)।
यह जानकर अफसोस होता है कि जहां पश्चिमी देश दिन-ब-दिन विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, जिससे उनके और हमारे स्तर की प्रगति के बीच अंतर बढ़ रहा है, वहीं हमारे कुछ लोग वैज्ञानिक क्षेत्र में जाति आधारित आरक्षण पर जोर दे रहे हैं, जो हमें केवल पिछड़ा ही रख सकता है। हम राजनीतिक विवशताओं को समझ सकते हैं, लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है, और यह सीमा तब पार हो जाती है जब विज्ञान या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जाति या धर्म आधारित आरक्षण की मांग की जाती है। ”
इन टिप्पणियों के साथ मैंने नरेश चंद की नियुक्ति रद्द करने के आदेश को रद्द कर दिया और उनकी बहाली का आदेश दिया।
1992 में (इलाहाबाद उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के कुछ समय बाद ही) दिए गए इस फैसले ने पूरे भारत में हंगामा मचा दिया।
जबकि भारत के कई हिस्सों में मेरे फैसले के समर्थन में बड़ी रैलियां आयोजित की गईं, खासकर छात्रों की, वहीं अन्य जगहों पर जवाबी रैलियां हुईं, जिनमें मुझ पर जातिवादी होने का आरोप लगाया गया। मीडिया ने कई दिनों तक इस पर व्यापक टिप्पणियां कीं, एक बड़ा वर्ग मेरा समर्थन कर रहा था, लेकिन एक अन्य वर्ग मुझ पर हमला कर रहा था।
इलाहाबाद में ‘सामाजिक न्याय आंदोलन’ ( Social Justice Movement ) नामक संगठन ने सार्वजनिक रूप से मेरा पुतला और मेरे फैसले की प्रतियां जलाईं। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के गेट पर ताला लगाने की घोषणा की, लेकिन पुलिस ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इसकी सुरक्षा के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के परिसर के चारों ओर पुलिसकर्मियों की एक बड़ी टुकड़ी तैनात करनी पड़ी। मुझे गुमनाम पत्रों और टेलीफोन पर जान से मारने की धमकियाँ मिलने लगीं।
अखबारों से मुझे पता चला कि सभी राजनीतिक दलों के अनुसूचित जाति और जनजाति के संसद सदस्यों ने दिल्ली में एक बैठक की, और मेरे खिलाफ संसद में महाभियोग के लिए एक प्रस्ताव लाने का फैसला किया।
मेरी पत्नी और परिवार के अन्य सदस्य डरे हुए थे। मुझे हाल ही में उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया था, और यहाँ मैं बर्खास्त होने की कगार पर था!
काफी समय तक मैं घूमने नहीं जा सका (जिसका मुझे शौक है) और अपने आवास से हाई कोर्ट तक कार से जाने के अलावा मुझे अपने घर तक ही सीमित रहना पड़ा।
उच्च न्यायालय के कुछ वरिष्ठ न्यायाधीशों ने मुझसे कहा कि मैंने अपना करियर नष्ट कर दिया है, क्योंकि हमारे सभी दलों के राजनेता, जो सभी जातिगत आरक्षण के समर्थक थे, मुझे कभी भी सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने नहीं देंगे।
सौभाग्य से, तूफ़ान ख़त्म हो गया और मैं बाल बाल बच गया। लेकिन यह एक भयावय दौर था I