प्रेस क्लब ने वर्तमान समय में पत्रकार और पत्रकारिता के सामने मौजूद स्थितियों और चुनौतियों पर एक खुली परिचर्चा का आयोजन किया जिसमें दिल्ली जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल पांडेय ने भी हिस्सा लिया। परिचर्चा में उन्होंने विचारधाराओं से परे स्वतंत्र पत्रकारिता की मुखर वकालत करते हुए कहा कि अगर हम वाकई पत्रकारों का हित चाहते हैं तो हमें विचारधारा के खेंमे से निकल कर सोचना होगा। पत्रकार पत्रकारों का ही “मारा” है।
इस मौके पर पत्रकारों की हत्या और उत्पीड़न के मामले को उठाते हुए अनिल पांडेय ने कहा कि पत्रकारों की हत्या और उत्पीड़न केवल पिछले दो सालों से नहीं हो रहा है। पिछले दो दशकों से यह तेजी से बढ़ा है। बस दिक्कत यह है कि विचारधारा का चस्मा लगाए लोगों को यह अब दिखाई देना शुरु किया है। उन्होंने पत्रकारों के हित के लिए काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि पिछले 25 सालों में 61 पत्रकारों की हत्या हुई है। लेकिन इनमें से 96 फीसदी मामले में दोषियों को सजा नहीं मिल पाई। 25 सालों में जिनते पत्रकारों की हत्या हुई उसमें से 47 फीसदी मामले में नेता संलिप्त पाए गए। लेकिन इन मामलों को कोई नहीं उठा रहा है।
आउटलुक पत्रिका की आरएसएस पर विवादित स्टोरी के मामले में अनिल पांडेय ने सुझाव दिया कि यह मामला पत्रकारिता के किसी तरह के उत्पीड़न का नहीं है। अकसर अखबारों और मीडिया घरानों पर गलत स्टोरी का आरोप लगा कर लोग मुकदमें दर्ज कराते रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। आरएसएस ने भी आउटलुक के बारे में गलत और भ्रामक स्टोरी प्रकाशित करने को लेकर मामला दर्ज कराया है। यह किसी का कानूनी हक है। कोई भी संस्था ऐसा कदम उठा सकती है। फैसला अदालत करेगा कि कौन सही है कि कौन गलत। इसलिए इसे अदालत पर छोड़ देना चाहिए। हमें बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि आउटलुक की विश्वसनीयता संदिग्ध है। पहले भी वह विवादों में रही है। प्रसिद्ध पत्रकार राम बहादुर राय ने भी इस पर उनका फर्जी इंटरव्यू छापने का आरोप लगाया हुआ है।
अनिल पांडेय ने कहा कि परिचर्चा में कुछ खास राज्यों में पत्रकारों के उत्पीड़न की बात हो रही है जबकि बात पूरे देश के पत्रकारों के उत्पीड़न की होनी चाहिए। इसी सलेक्टिव अप्रोच से पत्रकारिता का नुकसान हो रहा है। वक्ता केरल और राजस्थान की बात तो कर रहे हैं, लेकिन उनकी नाक के नीचे ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा पत्रकारों के उत्पीड़न पर चर्चा नहीं हो रही है। अरविंद केजरीवाल ने कैसे सचिवाल में प्रवेश पर पत्रकारों पर पाबंदी लगा दी थी और कैसे मालिकों पर दबाव डाल कर सोशल मीडिया पर उनका विरोध करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार की नौकरी ले ली है, यह किसी से छुपा नहीं है।