अणु शक्ति सिंह (पत्रकार और लेखिका)-
मेरे विचार से मांसाहार और शाकाहार का विवाद केवल और केवल धर्म-राजनीति का षड्यंत्र है।
कई वैज्ञानिक शोधों से साबित हो चुका है कि खान-पान की अभिरुचियों का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की स्थानीयता और उसके भौगोलिक-सामाजिक परिदृश्य/मूल से जुड़ा हुआ है।
समुद्री स्थानों पर जहाँ शाक-सब्ज़ी की कमी है, जलीय भोजन मुख्य स्रोत है खाने का।
ठंडे प्रदेशों में वसा की आवश्यकता शरीर को गर्म रखने के लिए होती है, अतः रेड मीट उन इलाक़ों के खाने में स्वतः ही उतर आया। यूरोपीय या ठंडे भारतीय इलाक़ों के भोजन पर नज़र डालिए।
अब एक उदाहरण बिहार से। उत्तर बिहार अमूमन बाढ़ प्रभावित इलाक़ा रहा है। सावन यानी जुलाई-अगस्त में चढ़ता पानी आश्विन माने सितंबर-अक्तूबर तक ही उतरता है।
बाढ़ में सब्ज़ियाँ तो नहीं मिलती, हाँ मछली की बहुतायत होती रही है। पानी में कटने वाला मोटा गरमा धान भी। ज़ाहिर है उत्तर बिहार में लगभग हर वर्ग के लोग बिना किसी भेद के मछली-भात खाते हैं (ब्राह्मण भी)। यहाँ मछली ‘शगुन’ का भी हिस्सा है।
बचपन में किसी कहानी में पढ़ा था कि ध्रुवों पर सील फ़ैट का ख़ूब इस्तेमाल होता है, रौशनी के साथ-साथ औषधि के लिए भी।
बहुत अच्छा है, आप शाकाहार करते हैं पर दूसरे की प्लेट देखकर नाक-भौं सिकोड़ने से आप अच्छे नहीं लगते हैं। सच कहूँ तो आप इस तरह काफ़ी हिंसक नज़र आते हैं।
धर्म का ही ज़िक्र करेंगे तो आपका सनातन ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत करता है जब मांसाहार को चुना गया। एक कथा के अनुसार कृष्ण ने स्वयं मांस का भोग स्वीकार किया है।
अंग्रेज़ी में एक कहावत है, डोंट लेट योर फ़ूड गेट कोल्ड वरीइंग अबाउट व्हाट इज़ ऑन माय प्लेट।
अर्थात्, मेरी थाली के भोज्य की चिंता में अपना खाना मत ठंडा कीजिए।
खाइए न आपको जो खाना है। लोगों की चिंता सरकार पर छोड़िए। कुछेक पशु-पक्षियों के अतिरिक्त बाक़ी सभी शिकार पर क़ानूनन रोक है।
वैसे, इस देश में मांसाहार और शाकाहार का सारा वितंडा उत्तर भारत के मैदानी सवर्णों और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों का फैलाया हुआ है।
उत्तर भारत में उनके पास सबसे अधिक उपजाऊ ज़मीनें थीं। तमाम फसल और शाक-सब्ज़ी उनके हवाले हुआ।
क्यों इस इलाक़े के दलित मांसाहारी हुए, यह बड़ा सवाल है। जातिवाद का असर क्या होता है, कैसे यह आहार शृंखला पर प्रभाव डालता है, आराम से नज़र आ जाएगा।
इसी तरह दक्षिण भारत के ब्राह्मण के हवाले अधिकतम संसाधन आए। वे शाकाहारी बने रह सकते थे। अन्य जातियाँ नहीं।
शाकाहार की परम्परा को ठीक से परखा जाए तो जानवरों की जान बख़्शने की क़ीमत पर लगातार मनुष्यों को दबाये जाने की बात भी साफ़ नज़र आ जाएगी।
कुछ लोग तमाम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर पूरे समाज के हिस्से का खाते रहे। अन्य वर्ग सूअर, चूहे, घोंघे से लेकर चीटियों तक में पोषक तत्व खोजते रहे।
जातिवाद इस देश में तब भी तगड़ा था। अब भी तगड़ा है। आहार तब भी प्रभावित था। अब भी प्रभावित है।
उत्तर भारत से यहाँ सीधा अर्थ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सरीखे गंगा के इलाक़े से है जिन्हें गंगेज़ प्लेट्यू भी कहा जाता है। बिहार बंगाल अपवाद हैं।
बिहार में मांसाहार की सार्वभौमिकता अर्थात् सभी वर्ग में उपस्थिति पर पिछला पोस्ट लिख ही चुकी हूँ। बंगाल भी उसी श्रेणी में गिना जाएगा। इसकी वजह बाढ़ है और कई महीनों तक सब्ज़ी का ग़ायब हो जाना है।जल-मग्न इलाक़ों में मछली और मांसाहार स्वतः ही खाद्य प्रवृत्ति का हिस्सा बन जाते हैं।
ज़रूरी है कि थोड़ा पढ़ा-समझा जाए मनुष्य और उसकी भौगोलिकता-सामाजिकता के बारे में।
सुशोभित (पत्रकार और लेखक)-
माँसभक्षियों के कुछ और कुतर्क और उनका समाधान :
- माँसाहार का सम्बंध भौगोलिकता से है। ठंडे प्रदेशों, समुद्री प्रदेशों, बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में साग-सब्ज़ी नहीं उगतीं, इसलिए माँस खाया जाता है।
समाधान : अगर ठंडे, समुद्री और बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में साग-सब्ज़ी नहीं उगती, तो जिन क्षेत्रों में भरपूर उगती है, वहाँ के लोग पूर्ण शाकाहारी बन जावें। उसमें क्या बाधा है? पाप तो जितना कम हो, उतना बेहतर। हिंसा जितनी घटे, उतना अच्छा। लेकिन मज़े की बात ये है कि अगर पूरी दुनिया में माँसभक्षण के पैटर्न का अवलोकन करें तो पाएँगे कि गर्म क्षेत्रों, मैदानी इलाक़ों, बाढ़ से प्राय: मुक्त रहने वाले प्रांतों के लोग भी जमकर माँस खा रहे हैं। उन्हें कौन-सी भौगोलिक बाधा है? पहाड़ पर माँस खाने वालों का हवाला देकर मैदानी इलाक़ों में माँसभक्षण को न्यायोचित ठहराना ठीक वैसा ही है, जैसे युद्ध में हो रही हिंसा का हवाला देकर नागरिक-क्षेत्रों में भी हिंसा करना। कि युद्ध के मैदान में गोलियाँ बरसती हैं तो मेट्रो स्टेशनों पर भी बरसाई जाएँ! इसमें क्या तुक है?
- माँसाहार का सम्बंध व्यक्ति की क्रयशक्ति से है। अतीत में ग़रीब लोगों के पास स्वयं की उपजाऊ भूमियाँ नहीं थीं, उन्हें मजबूरन माँस खाने को विवश होना पड़ा।
समाधान : इसका उत्तर भी वही : जो समृद्ध और सम्पन्न परिवार से हैं, वे ही पूर्ण शाकाहारी बन जावें। क्या समृद्ध और सम्पन्न परिवारों के लोग माँस नहीं खाते, ग़रीब लोग ही खाते हैं? वास्तव में आज तो साधन-सम्पन्न लोग वंचितों से अधिक माँस खा रहे हैं। दूसरे, शाकाहारी होने के लिए स्वयं की भूमि होना या स्वयं खेतिहर किसान होना आवश्यक नहीं है, जैसे माँसाहारी होने के लिए क़त्लख़ानों का संचालक होना या किसी एनिमल फ़ॉर्म का मालिक होना ज़रूरी नहीं है। अतीत में वैसा था, आज नहीं है। तीसरे, आज जिसकी क्रयशक्ति माँस ख़रीदकर खाने की है, वह उससे काफ़ी कम क़ीमत में शाकाहारी भोजन भी कर सकता है। भौगोलिक स्थिति की ही तरह व्यक्ति की आर्थिक स्थिति का भी माँसाहार से कोई सीधा और अनिवार्य सम्बंध नहीं है। वैसे तो ग़रीबी और अपराध का भी एक सम्बंध है, जेलों में निर्धन वर्ग के लोग भरे पड़े हैं। क्या इस तर्क का हवाला देकर अपराध को मान्यता देने लग जाना चाहिए?
- आहार शृंखला जातिवाद के कारण निर्मित होती है, दलित क्यों माँसाहारी हुए इसकी विवेचना करना ज़रूरी है।
समाधान : माँसभक्षण के विरोध का कोई सम्बंध भारतीय परिप्रेक्ष्यों से नहीं है, यह एक वैश्विक चिंता है। जातिवाद भारत में है, दुनिया में नहीं है। फिर भी पूरी दुनिया के लोग माँस खा रहे हैं। गर्म इलाक़ों के लोग भी खा रहे हैं, मध्यवर्गीय और अमीर भी खा रहे हैं, और भारत के परिप्रेक्ष्य में सवर्ण भी खा रहे हैं। वास्तव में माँसभक्षण के विरोध को डिसक्रेडिट करने की सबसे बड़ी साज़िश है, उसे सवर्णवाद से जोड़कर सवर्ण बनाम दलित की डायलेक्टिक में फ़िट कर देना। वर्ल्ड एनिमल फ़ाउंडेशन का डाटा कहता है कि आज पूरी दुनिया में 8.8 करोड़ लोग वीगन हैं। क्या ये सब सवर्ण भारतीय हैं, जैनी हैं, बनिये हैं? अमेरिका में एक करोड़ लोग शाकाहारी और दस लाख लोग वीगन हैं, यूके में तो बीस लाख लोग वीगन हैं। इनका सवर्ण-दलित वैचारिकी से क्या लेना-देना? दुनिया के तमाम वीगन लोगों में तीन-चौथाई स्त्रियाँ हैं। ज़ाहिर है, स्त्रियाँ जीवन को जन्म देती हैं और उसे पाल-पोसकर बड़ा करती हैं, उनकी चेतना में तो यह धँसा हुआ होना चाहिए कि मैं जीवहत्या न करूँ। वास्तव में स्त्री होकर भी माँसभक्षण करना या माँसभक्षण की वकालत करना तो घोर नीचता ही कहलावेगी।
- वैसे, ब्राह्मण भी तो माँस खाते हैं?
समाधान : क्या ही वैचारिक दरिद्रता है कि ब्राह्मणवाद से लड़ाई है और ब्राह्मणों के कृत्य का हवाला देकर एक अपराध को उचित ठहराया जा रहा है? तर्क तो यह कहता है कि अगर ब्राह्मण और सवर्ण भी माँस खा रहे हैं और हमारी लड़ाई ब्राह्मणवाद-सवर्णवाद से है, तब तो हमारे लिए यह वस्तु त्याज्य हो जानी चाहिए। नहीं?
याद रखें : माँसभक्षण का सीधा सम्बंध क्रूरता से है। उदासीनता से- कि मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है कोई मरता हो मरे। निरे सुखवाद से- कि मेरे दस मिनट का जिह्वासुख किसी की जान से अधिक मूल्यवान है। माँसभक्षण का सीधा सम्बंध हिंसा से है, जब भी आप माँस खाने का निर्णय करते हैं, दुनिया के किसी कोने में एक डरे-सहमे, निर्दोष और कातर प्राणी की हत्या की जाती है। संसार का कोई तर्क या कुतर्क उस निष्पाप की हत्या को जायज़ नहीं ठहरा सकता है।
जो लोग भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिस्थितियों के अधीन नहीं हैं, वे तो तुरंत ही इस पाप को त्याग दें। और जो अधीन हैं, वे देखें और कोशिश करें कि क्या वे इसे न्यूनतम बना सकते हैं? क्या ऐसी स्थिति उनके जीवन में है कि अगर वे माँस नहीं खाएँगे तो जीवित ही न रहेंगे? अगर वैसा है, तब अपने नैतिक-निर्णय का निर्धारण स्वयं कर लें। किंतु अगर वे माँस के बिना भी जीवित रह सकते हैं तो किसी मासूम प्राणी को भी जीवित रहने दें।
और हाँ, सावन के महीने में ही चोरी, लूट, हत्या और बलात्कार पर क़ानूनन बंदिश हो- ऐसी बात नहीं है। चोरी, लूट, हत्या और बलात्कार बारहों महीने और चौबीसों घंटे प्रतिबंधित हैं। इसी तरह माँसभक्षण भी बारहों महीने और चौबीसों घंटे का पाप है। सावन का महीना ख़त्म होने पर पाप करने की छूट नहीं मिल जाती। ईश्वर अगर आपके हृदय में विराजित है तो सावन या नवरात्र के समाप्त होने पर वह आपके अपराध से आँख नहीं फेर लेगा। अगर सच में ही धर्मालु या विवेकी हो तो पूरे वर्ष ही अपराध से विमुख होने का प्रण ले लो!
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श्रीकांत आचार्य ( पत्रकार) चण्डीगढ़
July 29, 2023 at 5:54 pm
बहुत ही बढ़िया@अणु शक्ति सिंह (पत्रकार और लेखिका)…श्रीकांत आचार्य ( पत्रकार) चण्डीगढ़