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रामनाथ गोयनका सम्मान पाने वाले शारिक की जुबान के आगे हिन्दी बोलने में शर्म आती है

Vineet Kumar : शारिक खान (Sharique Khan) को “किसकी नज़र लगी बरेली को “के लिए साल 2012 का रामनाथ गोयनका सम्मान मिला. शारिक की जुबान के आगे हिन्दी बोलने में शर्म आती है. उर्दू मिश्रित जिस हिन्दुस्तानी का इस्तेमाल वो अपनी रिपोर्ट में करते हैं, लगता है समाज के बीच की तरलता को बचाए रखने के बीच एक ऐसी भाषा भी बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हों जो व्याकरण के मोर्चे पर कई बार हारकर भी तासीर के मामले में जीत जाती हो.

Vineet Kumar : शारिक खान (Sharique Khan) को “किसकी नज़र लगी बरेली को “के लिए साल 2012 का रामनाथ गोयनका सम्मान मिला. शारिक की जुबान के आगे हिन्दी बोलने में शर्म आती है. उर्दू मिश्रित जिस हिन्दुस्तानी का इस्तेमाल वो अपनी रिपोर्ट में करते हैं, लगता है समाज के बीच की तरलता को बचाए रखने के बीच एक ऐसी भाषा भी बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हों जो व्याकरण के मोर्चे पर कई बार हारकर भी तासीर के मामले में जीत जाती हो.

दो-चार बेहद ही छोटी, औपचारिक-अनौपचारिक की कॉकटेल मुलाकातों के बीच शारिक जितने बेहतरीन मीडियाकर्मी लगे, उतने की सहज और संजीदा इंसान भी. हालांकि इसका पुरस्कार और काम से कोई सीधा संबंध नहीं है कि किसे आप कितना और कैसे जानते हों लेकिन हमारे हिस्से में जब ये अनुभव है तो ये भी मौके होते हैं जहां शुभकामनाओं की लपेट में कुछ अतिरिक्त कह जाने की छूट ले जाते हैं.

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तब टीवी के एकाध-दो टॉक में ही मुझे बुलाया गया था..और बाकी ब्लॉग पर अंधाधुन लिखना जारी था..तभी एक दिन फोन आया- मैं एनडीटीवी से शारिक बोल रहा हूं. ये जस्टिस काटजू और मीडिया काउंसिल को लेकर एक स्टोरी कर रहा हूं, आपकी राय चाहिए. मैंने कहा- बताइए न, कैसे देनी है राय, फोन पर बताउं या फिर…फोन पर नहीं, बस आप अपने घर का पता बताइए, हम पहुंचते हैं.. हम अपने जिस मामूलीपन के साथ वर्चुअल स्पेस पर किटिर-पिटिर करते आ रहे थे, इसके बीच शारिक का अचानक इस अंदाज में बात करना मुझे थोड़ा हैरान भी कर गया लेकिन वो अपने पेशे के लिहाज से स्वाभाविक ही थे..मीडिया में जिन थोड़े वक्त तक मैंने काम किया है- हमें पता है कि कैसे टिक-टैक ली जाती है, बाइट लेने के नाम पर एक्सपर्ट के साथ क्या व्यवहार किया जाता है..एक से एक दिग्गज को कैसे टेट्रापैक की तरह इस्तेमाल करने छोड़ दिया जाता है. ऐसे में उनका पता पूछना हैरान कर गया.

खैर, आधे घंटे बाद वो हमारे घर के सामने थे..आप बताते न कहां आना है, पहुंंच जाता..अरे यार, हमलोग पत्रकार आदमी हैं, रोज यही करना होता है, तुमसे बात करनी थी तो हम आते या तुम? मयूर विहार के पार्क की उसी लोहेवाली बेंच पर बैठकर मुझे इस पूरे मामले में जो लगा, कह दिया..काफी बातें शूट के पहले हो गई थी सो कोई दिक्कत नहीं हुई..वो उसी सहजता से चले गए..जाहिर है, मेरे लिए ये सब नया था, अलग था, उनके लिए नहीं..लेकिन एक बात तो असर कर ही गई…जिस सहजता शब्द को हम आलू-प्याज की तरह रोज इस्तेमाल करते हैं, क्या सचमुच ये चीज लोगों में इतनी सहजता से आ पाती है जितनी सहजता से शारिक से हुई मुलाकातों में अनुभव होता रहा..? बहरहाल कलर्स पर उड़ान सीरियल देखते हुए उनकी स्टोरी हौसले की उड़ान को फिर से देखा..चकोर उसमें भी मौजूद है..

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युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से.

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